Sunday, 29 May 2016

1. कौन है असली ब्राह्मण?

1. कौन है असली ब्राह्मण?

2. किसे ब्राह्मण कहलाने का हक…

3. जाति के आधार के कथित ब्राह्मण के प्रकार…

4. ब्राह्मणों के असली प्रकार…

1. कौन है असली ब्राह्मण?

पूर्वकाल में ब्राह्मण होने के लिए शिक्षा, दीक्षा और कठिन तप करना होता था। इसके बाद ही उसे ब्राह्मण कहा जाता था। गुरुकुल की अब वह परंपरा नहीं रही। जिन लोगों ने ब्राह्मणत्व अपने प्रयासों से हासिल किया था उनके कुल में जन्मे लोग भी खुद को ब्राह्मण समझने लगे।

ऋषि-मुनियों की वे संतानें खुद को ब्राह्मण मानती हैं, जबकि उन्होंने न तो शिक्षा ली, न दीक्षा और न ही उन्होंने कठिन तप किया। वे जनेऊ का भी अपमान करते देखे गए हैं।

आजकल के तथाकथित ब्राह्मण लोग शराब पीकर, मांस खाकर और असत्य वचन बोलकर भी खुद को ब्राह्मण समझते हैं। उनमें से कुछ तो धर्मविरोधी हैं, कुछ धर्म जानते ही नहीं, कुछ गफलत में जी रहे हैं, कुछ ने धर्म को धंधा बना रखा और कुछ पोंगा-पंडित और कथावाचक बने बैठे हैं। ऐसे ही सभी कथित ब्राह्मणों के लिए हमने कुछ जानकारी इकट्ठा की है।

2. किसे ब्राह्मण कहलाने का हक…

ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या :

जो ब्रह्म (ईश्वर) को छोड़कर किसी अन्य को नहीं पूजता वह ब्राह्मण। ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है। जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं, याचक है।

जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी जीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं, ज्योतिषी है और जो कथा बांचता है वह ब्राह्मण नहीं कथा वाचक है। इस तरह वेद और ब्रह्म को छोड़कर जो कुछ भी कर्म करता है वह ब्राह्मण नहीं है। जिसके मुख से ब्रह्म शब्द का उच्चारण नहीं होता रहता वह ब्राह्मण नहीं।

न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो।यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो॥

अर्थात : भगवान बुद्ध कहते हैं कि ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से। जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है। कमल के पत्ते पर जल और आरे की नोक पर सरसों की तरह जो विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूं।

तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे।जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं॥

अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि जो इस बात को जानता है कि कौन प्राणी त्रस है, कौन स्थावर है। और मन, वचन और काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं।

न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो।न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥

अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि सिर मुंडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं बन जाता। ओंकार का जप कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता। केवल जंगल में जाकर बस जाने से ही कोई मुनि नहीं बन जाता। वल्कल वस्त्र पहन लेने से ही कोई तपस्वी नहीं बन जाता।

शनकैस्तु क्रियालोपदिनाः क्षत्रिय जातयः।वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च॥

पौण्ड्रकाशचौण्ड्रद्रविडाः काम्बोजाः भवनाः शकाः ।पारदाः पहल्वाश्चीनाः किरताः दरदाः खशाः॥- मनुसंहिता (1- (/43-44)

अर्थात : ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त न होने के कारण उस क्रिया का लोप होने से पोण्ड्र, चौण्ड्र, द्रविड़ काम्बोज, भवन, शक, पारद, पहल्व, चीनी किरात, दरद व खश ये सभी क्षत्रिय जातियां धीरे-धीरे शूद्रत्व को प्राप्त हो गईं।

3. जाति के आधार के कथित ब्राह्मण के प्रकार…

जाति के आधार पर तथाकथित ब्राह्मणों के हजारों प्रकार हैं। उत्तर भारतीय ब्राह्मणों के प्रकार अलग तो दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों के अलग प्रकार। लेकिन हम यहां जाति के आधार के प्रकार की बात नहीं कर रहे हैं।

उत्तर भारत में जहां सारस्वत, सरयुपा‍रि, गुर्जर गौड़, सनाठ्य, औदिच्य, पराशर आदि ब्राह्मण मिल जाएंगे तो दक्षिण भारत में ब्राह्मणों के तीन संप्रदाय हैं- स्मर्त संप्रदाय, श्रीवैष्णव संप्रदाय तथा माधव संप्रदाय। इनके हजारों उप संप्रदाय हैं।

पुराणों के अनुसार पहले विष्‍णु के नाभि कमल से ब्रह्मा हुए, ब्रह्मा का ब्रह्मर्षिनाम करके एक पुत्र था। उस पुत्र के वंश में पारब्रह्म नामक पुत्र हुआ, उससे कृपाचार्य हुए, कृपाचार्य के दो पुत्र हुए, उनका छोटा पुत्र शक्ति था। शक्ति के पांच पुत्र हुए।

उसमें से प्रथम पुत्र पाराशर से पारीक समाज बना, दूसरे पुत्र सारस्‍वत के सारस्‍वत समाजा, तीसरे ग्‍वाला ऋषि से गौड़ समाजा, चौथे पुत्र गौतम से गुर्जर गौड़ समाजा, पांचवें पुत्र श्रृंगी से उनके वंश शिखवाल समाजा, छठे पुत्र दाधीच से दायमा या दाधीच समाज बना।…इस तरह ‍पुराणों में हजारों प्रकार मिल जाएंगे।

इसके अलावा माना जाता है कि सप्तऋषियों की संतानें हैं ब्राह्मण। जैन धर्म के ग्रंथों को पढ़ें तो वहां ब्राह्मणों की उत्पत्ति का वर्णन अलग मिल जाएगा। बौद्धों के धर्मग्रंथ पढ़ें तो वहां अलग वर्णन है। लेकिन सबसे उत्तम तो वेद और स्मृतियों में ही मिलता है।

4. ब्राह्मणों के असली प्रकार…

कोई भी बन सकता है ब्राह्मण :

ब्राह्मण होने का अधिकार सभी को है चाहे वह किसी भी जाति, प्रांत या संप्रदाय से हो। लेकिन ब्राह्मण होने के लिए कुछ नियमों का पालन करना होता है।
स्मृति-पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है:-

मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। 8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं। इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है।

1. मात्र : ऐसे ब्राह्मण जो जाति से ब्राह्मण हैं लेकिन वे कर्म से ब्राह्मण नहीं हैं उन्हें मात्र कहा गया है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता। बहुत से ब्राह्मण ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार और वैदिक कर्मों से दूर हैं, तो वैसे मात्र हैं।

उनमें से कुछ तो यह भी नहीं हैं। वे बस शूद्र हैं। वे तरह के तरह के देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और रा‍त्रि के क्रियाकांड में लिप्त रहते हैं। वे सभी राक्षस धर्मी हैं।

2. ब्राह्मण : ईश्वरवादी, वेदपाठी, ब्रह्मगामी, सरल, एकांतप्रिय, सत्यवादी और बुद्धि से जो दृढ़ हैं, वे ब्राह्मण कहे गए हैं। तरह-तरह की पूजा-पाठ आदि पुराणिकों के कर्म को छोड़कर जो वेदसम्मत आचरण करता है वह ब्राह्मण कहा गया है।

3. श्रोत्रिय : स्मृति अनुसार जो कोई भी मनुष्य वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छहों अंगों सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित 6 कर्मों में सलंग्न रहता है, वह ‘श्रोत्रिय’ कहलाता है।

4. अनुचान : कोई भी व्यक्ति वेदों और वेदांगों का तत्वज्ञ, पापरहित, शुद्ध चित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान है, वह ‘अनुचान’ माना गया है।

5. भ्रूण : अनुचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, ऐसे इंद्रिय संयम व्यक्ति को भ्रूण कहा गया है।

6. ऋषिकल्प : जो कोई भी व्यक्ति सभी वेदों, स्मृतियों और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मन और इंद्रियों को वश में करके आश्रम में सदा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए निवास करता है उसे ऋषिकल्प कहा जाता है।

7. ऋषि : ऐसे व्यक्ति तो सम्यक आहार, विहार आदि करते हुए ब्रह्मचारी रहकर संशय और संदेह से परे हैं और जिसके श्राप और अनुग्रह फलित होने लगे हैं उस सत्यप्रतिज्ञ और समर्थ व्यक्ति को ऋषि कहा गया है।

8. मुनि : जो व्यक्ति निवृत्ति मार्ग में स्थित, संपूर्ण तत्वों का ज्ञाता, ध्याननिष्ठ, जितेन्द्रिय तथा सिद्ध है ऐसे ब्राह्मण को ‘मुनि’ कहते हैं।

किसी वेदपाठी परम्परा में
यदि कोई बालक / बालिका जन्म ले
तो उसके “ब्राह्मणत्व को प्राप्त होने की सम्भावना” बढ़ जाती हैं
लेकिन इसका इसका ये मतलब नहीं नहीं हैं कि
ऐसा बालक / बालिका “ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण” हो ही जाए
“निरुक्त शास्त्र” के प्रणेता यास्क मुनि इसीलिए कहते हैं

जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात्‌ भवेत द्विजः।
वेद पाठात्‌ भवेत्‌ विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।।

अर्थात – व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है।

(स्कन्द पुराण०, नागर खण्ड अ० २३९ श्लो० ३१). के अंतर्गत भी यही तथ्य हैं
अतएव “वर्ण निर्धारण” …गुण और कर्म के आधार पर ही तय होता हैं
कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता है यह सत्य है...
इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते हैं जैसे…..
विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम्।
विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥
अर्थात- ”विद्या, तप और ब्राह्मण-ब्राह्मणी से जन्म ये तीन बातें जिसमें पाई जायँ वही पक्का ब्राह्मण है, पर जो विद्या तथा तप से शून्य है वह जातिमात्र के लिए ब्राह्मण है, पूज्य नहीं हो सकता” (पतंजलि भाष्य 51-115)।
महाभारत के कर्ता वेदव्यास और नारदमुनि के अनुसार
“जो जन्म से ब्राह्मण हे किन्तु कर्म से ब्राह्मण नहीं हे
उसे शुद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो”
(सन्दर्भ ग्रन्थ – महाभारत)
महर्षि याज्ञवल्क्य व पराशर व वशिष्ठ के अनुसार
“जो निष्कारण (कुछ भी मिले ऐसी आसक्ति का त्याग कर के) वेदों के अध्ययन में व्यस्त हे और वैदिक विचार संरक्षण और संवर्धन हेतु सक्रीय हे वही ब्राह्मण हे.”
(सन्दर्भ ग्रन्थ – शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद मंडल १०., पराशर स्मृति)
भगवद गीता में श्री कृष्ण के अनुसार
“शम, दम, करुणा, प्रेम, शील(चारित्र्यवान), निस्पृही जेसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण हे”
-जगद्गुरु शंकराचार्य के अनुसार
“ब्राह्मण वही हे जो “पुंस्त्व” से युक्त हे. जो “मुमुक्षु” हे. जिसका मुख्य ध्येय वैदिक विचारों का संवर्धन हे. जो सरल हे. जो नीतिवान हे, वेदों पर प्रेम रखता हे, जो तेजस्वी हे, ज्ञानी हे, जिसका मुख्य व्यवसाय वेदोका अध्ययन और अध्यापन कार्य हे, वेदों/उपनिषदों/दर्शन शास्त्रों का संवर्धन करने वाला ही ब्राह्मण हे”
(सन्दर्भ ग्रन्थ – शंकराचार्य विरचित विवेक चूडामणि, सर्व वेदांत सिद्धांत सार संग्रह, आत्मा-अनात्मा विवेक)
सत्य यह हे कि केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं हे.
कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता है यह सत्य है...
इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते हैं जैसे…..
(a) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है|
(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थे | परन्तु बाद मेंउन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये|ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |
(d) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
(e) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(f) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(g) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(h) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
(i) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(j) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
(k) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं |
(l) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
(m) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |
(n) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
(o) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
(p) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया |
विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
(q) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए
और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
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मित्रों, ब्राह्मण की यह कल्पना व्यावहारिक है कि नहीं यह अलग विषय है किन्तु भारतीय सनातन संस्कृति के हमारे पूर्वजो व ऋषियो ने ब्राह्मण की जो व्याख्या दी है उसमे काल के अनुसार परिवर्तन करना हमारी मूर्खता मात्र होगी.
वेदों-उपनिषदों से दूर रहने वाला और ऊपर दर्शाये गुणों से अलिप्त व्यक्ति चाहे जन्म से ब्राह्मण हों या ना हों लेकिन ऋषियों को व्याख्या में वह ब्राह्मण नहीं है. अतः आओ हम हमारे कर्म और संस्कार तरफ वापस बढे.

॥ वज्रसूचिका उपनिषत् ॥


वज्रसूच्युपनिषत् (वज्रसूचिका उपनिषत्) यह उपनिषद सामवेद से सम्बद्ध है ! इसमें कुल ९ मंत्र हैं !
सर्वप्रथम चारों वर्णों में से ब्राह्मण की प्रधानता का उल्लेख किया गया है तथा ब्राह्मण कौन है, इसके लिए कई प्रश्न किये गए हैं !
क्या ब्राह्मण जीव है ? शरीर है, जाति है, ज्ञान है, कर्म है, या धार्मिकता है ?
इन सब संभावनाओं का निरसन कोई ना कोई कारण बताकर कर दिया गया है , अंत में ‘ब्राह्मण’ की परिभाषा बताते हुए उपनिषदकार कहते हैं कि जो समस्त दोषों से रहित, अद्वितीय, आत्मतत्व से संपृक्त है, वह ब्राह्मण है ! चूँकि आत्मतत्व सत्, चित्त, आनंद रूप ब्रह्म भाव से युक्त होता है, इसलिए इस ब्रह्म भाव से संपन्न मनुष्य को ही (सच्चा) ब्राह्मण कहा जा सकता है !
॥ वज्रसूचिका उपनिषत् ॥
॥ श्री गुरुभ्यो नमः हरिः ॐ ॥
यज्ञ्ज्ञानाद्यान्ति मुनयो ब्राह्मण्यं परमाद्भुतम् ।
तत्रैपद्ब्रह्मतत्त्वमहमस्मीति चिन्तये ॥
ॐ आप्यायन्त्विति शान्तिः ॥
चित्सदानन्दरूपाय सर्वधीवृत्तिसाक्षिणे ।
नमो वेदान्तवेद्याय ब्रह्मणेऽनन्तरूपिणे ॥
ॐ वज्रसूचीं प्रवक्ष्यामि शास्त्रमज्ञानभेदनम् ।
दूषणं ज्ञानहीनानां भूषणं ज्ञानचक्षुषाम् ॥ १॥
अज्ञान नाशक, ज्ञानहीनों के दूषण, ज्ञान नेत्र वालों के भूषन रूप वज्रसूची उपनिषद का वर्णन करता हूँ !!
ब्राह्मक्षत्रियवैष्यशूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषां वर्णानां ब्राह्मण एव
प्रधान इति वेदवचनानुरूपं स्मृतिभिरप्युक्तम् ।
तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणो नाम किं जीवः किं देहः किं जातिः किं
ज्ञानं किं कर्म किं धार्मिक इति ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं ! इन वर्णों में ब्राह्मण ही प्रधान है, ऐसा वेद वचन है और स्मृति में भी वर्णित है !
अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि ब्राह्मण कौन है ? क्या वह जीव है अथवा कोई शरीर है अथवा जाति अथवा कर्म अथवा ज्ञान अथवा धार्मिकता है ?
तत्र प्रथमो जीवो ब्राह्मण इति चेत् तन्न । अतीतानागतानेकदेहानां
जीवस्यैकरूपत्वात् एकस्यापि कर्मवशादनेकदेहसम्भवात् सर्वशरीराणां
जीवस्यैकरूपत्वाच्च । तस्मात् न जीवो ब्राह्मण इति ॥
क्या जीव ब्राह्मण (हो सकता) है?
इस स्थिति में यदि सर्वप्रथम जीव को ही ब्राह्मण मानें ( कि ब्राह्मण जीव है), तो यह संभव नहीं है; क्योंकि भूतकाल और भविष्यतकाल में अनेक जीव हुए होंगें ! उन सबका स्वरुप भी एक जैसा ही होता है !
जीव एक होने पर भी स्व-स्व कर्मों के अनुसार उनका जन्म होता है और समस्त शरीरों में, जीवों में एकत्व रहता है, इसलिए केवल जीव को ब्राह्मण नहीं कह सकते !
तर्हि देहो ब्राह्मण इति चेत् तन्न ।
आचाण्डालादिपर्यन्तानां मनुष्याणां
पञ्चभौतिकत्वेन देहस्यैकरूपत्वात्
जरामरणधर्माधर्मादिसाम्यदर्शनत् ब्राह्मणः श्वेतवर्णः क्षत्रियो
रक्तवर्णो वैश्यः पीतवर्णः शूद्रः कृष्णवर्णः इति नियमाभावात् ।
पित्रादिशरीरदहने पुत्रादीनां ब्रह्महत्यादिदोषसम्भवाच्च ।
तस्मात् न देहो ब्राह्मण इति ॥
क्या शरीर ब्राह्मण (हो सकता) है?
नहीं, यह भी नहीं हो सकता ! चांडाल से लेकर सभी मानवों के शरीर एक जैसे ही अर्थात पांचभौतिक होते हैं,
उनमें जरा-मरण, धर्म-अधर्म आदि सभी सामान होते हैं ! ब्राह्मण- गौर वर्ण, क्षत्रिय- रक्त वर्ण , वैश्य- पीत वर्ण और शूद्र- कृष्ण वर्ण वाला ही हो,
ऐसा कोई नियम देखने में नहीं आता तथा (यदि शरीर ब्राह्मण है तो ) पिता, भाई के दाह संस्कार करने से पुत्र आदि को ब्रह्म हत्या का दोष भी लग सकता है !
अस्तु, केवल शरीर का ब्राह्मण होना भी संभव नहीं है !!
तर्हि जाति ब्राह्मण इति चेत् तन्न । तत्र
जात्यन्तरजन्तुष्वनेकजातिसम्भवात् महर्षयो बहवः सन्ति ।
ऋष्यशृङ्गो मृग्याः, कौशिकः कुशात्, जाम्बूको जाम्बूकात्, वाल्मीको
वाल्मीकात्, व्यासः कैवर्तकन्यकायाम्, शशपृष्ठात् गौतमः,
वसिष्ठ उर्वश्याम्, अगस्त्यः कलशे जात इति शृतत्वात् । एतेषां
जात्या विनाप्यग्रे ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति । तस्मात्
न जाति ब्राह्मण इति ॥
क्या जाति ब्राह्मण है?
( अर्थात ब्राह्मण कोई जाति है )? नहीं, यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि विभिन्न जातियों एवं प्रजातियों में भी बहुत से ऋषियों की उत्पत्ति वर्णित है !
जैसे – मृगी से श्रृंगी ऋषि की, कुश से कौशिक की, जम्बुक से जाम्बूक की, वाल्मिक से वाल्मीकि की, मल्लाह कन्या (मत्स्यगंधा) से वेदव्यास की, शशक पृष्ठ से गौतम की, उर्वशी से वसिष्ठ की, कुम्भ से अगस्त्य ऋषि की उत्पत्ति वर्णित है ! इस प्रकार पूर्व में ही कई ऋषि बिना (ब्राह्मण) जाति के ही प्रकांड विद्वान् हुए हैं, इसलिए केवल कोई जाति विशेष भी ब्राह्मण नहीं हो सकती है !
तर्हि ज्ञानं ब्राह्मण इति चेत् तन्न ।
क्षत्रियादयोऽपि
परमार्थदर्शिनोऽभिज्ञा बहवः सन्ति ।
तस्मात् न ज्ञानं ब्राह्मण इति ॥
क्या ज्ञान को ब्राह्मण माना जाये?
ऐसा भी नहीं हो सकता; क्योंकि बहुत से क्षत्रिय (रजा जनक) आदि भी परमार्थ दर्शन के ज्ञाता हुए हैं (होते हैं) ! अस्तु, केवल ज्ञान भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है !
तर्हि कर्म ब्राह्मण इति चेत् तन्न ।
सर्वेषां प्राणिनां
प्रारब्धसञ्चितागामिकर्मसाधर्म्यदर्शनात्कर्माभिप्रेरिताः सन्तो जनाः
क्रियाः कुर्वन्तीति ।
तस्मात् न कर्म ब्राह्मण इति ॥
तो क्या कर्म को ब्राह्मण माना जाये?
नहीं ऐसा भी संभव नहीं है; क्योंकि समस्त प्राणियों के संचित, प्रारब्ध और आगामी कर्मों में साम्य प्रतीत होता है
तथा कर्माभिप्रेरित होकर ही व्यक्ति क्रिया करते हैं !
अतः केवल कर्म को भी ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता है !!
तर्हि धार्मिको ब्राह्मण इति चेत् तन्न ।
क्षत्रियादयो हिरण्यदातारो बहवः
सन्ति ।
तस्मात् न धार्मिको ब्राह्मण इति ॥
क्या धार्मिक, ब्राह्मण हो सकता है?
यह भी सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि क्षत्रिय आदि बहुत से लोग स्वर्ण आदि का दान-पुण्य करते रहते हैं !
अतः केवल धार्मिक भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है !!
तर्हि को वा ब्रह्मणो नाम ।
यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं
षडूर्मिषड्भावेत्यादिसर्वदोषरहितं सत्यज्ञानानन्दानन्तस्वरूपं
स्वयं निर्विकल्पमशेषकल्पाधारमशेषभूतान्तर्यामित्वेन
वर्तमानमन्तर्यहिश्चाकाशवदनुस्यूतमखण्डानन्दस्वभावमप्रमेयं
अनुभवैकवेद्यमपरोक्षतया भासमानं करतळामलकवत्साक्षादपरोक्षीकृत्य
कृतार्थतया कामरागादिदोषरहितः शमदमादिसम्पन्नो भाव मात्सर्य
तृष्णा आशा मोहादिरहितो दम्भाहङ्कारदिभिरसंस्पृष्टचेता वर्तत
एवमुक्तलक्षणो यः स एव ब्राह्मणेति शृतिस्मृतीतिहासपुराणाभ्यामभिप्रायः
अन्यथा हि ब्राह्मणत्वसिद्धिर्नास्त्येव ।
सच्चिदानान्दमात्मानमद्वितीयं ब्रह्म भावयेदित्युपनिषत् ॥
ॐ आप्यायन्त्विति शान्तिः ॥
॥ इति वज्रसूच्युपनिषत्समाप्ता ॥
॥ भारतीरमणमुख्यप्राणन्तर्गत श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
तब ब्राह्मण किसे माना जाये?
(इसका उत्तर देते हुए उपनिषत्कार कहते हैं ) –
जो आत्मा के द्वैत भाव से युक्त ना हो; जाति गुण और क्रिया से भी युक्त ण हो; षड उर्मियों और षडभावों आदि समस्त दोषों से मुक्त हो; सत्य, ज्ञान, आनंद स्वरुप, स्वयं निर्विकल्प स्थिति में रहने वाला , अशेष कल्पों का आधार रूप , समस्त प्राणियों के अंतस में निवास करने वाला , अन्दर-बाहर आकाशवत संव्याप्त ; अखंड आनंद्वान , अप्रमेय, अनुभवगम्य , अप्रत्येक्ष भासित होने वाले आत्मा का करतल आमलकवत परोक्ष का भी साक्षात्कार करने वाला; काम-रागद्वेष आदि दोषों से रहित होकर कृतार्थ हो जाने वाला ; शम-दम आदि से संपन्न ; मात्सर्य , तृष्णा , आशा,मोह आदि भावों से रहित; दंभ, अहंकार आदि दोषों से चित्त को सर्वथा अलग रखने वाला हो, वही ब्राह्मण है;
ऐसा श्रुति, स्मृति-पूरण और इतिहास का अभिप्राय है ! इस (अभिप्राय) के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार से ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं हो सकता ! आत्मा सत्-चित और आनंद स्वरुप तथा अद्वितीय है ! इस प्रकार ब्रह्मभाव से संपन्न मनुष्यों को ही ब्राह्मण माना जा सकता है ! यही उपनिषद का मत है !

सच्चे मित्र की मित्रता।


संत सिद्धार्थ ने कमरे में प्रवेश करते ही वहाँ पहले से मौजूद लोगों का हाथ जोड़कर अभिवादन किया और अपने लिये नियत स्थान पर बैठ गये।
उन्होने लोगों से पूछा कि वे किस विषय पर चर्चा करना चाहते हैं?
एक सज्जन ने कहा,” महात्मन, कुछ मित्रता पर बताने का कष्ट करें। क्यों ऐसा होता है कि जिन लोगों को हम मित्र समझते हैं वही हमें धोखा देते हैं, हमें दुख पहुँचाते हैं। दुनिया में मित्रता के नाम पर इतनी धोखाधड़ी क्यों है?
संत सिद्धार्थ ने कहा,” ठीक है आज मित्रता और मित्र पर बात कर लेते हैं। सबसे पहला प्रश्न उठता है कि मित्र कौन है? आप लोग बतायें आप लोगों के लिये मित्र की परिभाषा क्या है?
महात्मन, जो सुख दुख में साथ रहे वही मित्र है।
जो संकट में साथ दे, सहायता करे वही मित्र है।
जो दुनिया के लाख विरोध के बाद भी साथ दे वही सच्चा मित्र है।
जो दिल से आपका भला चाहे वही मित्र है।
जो ईमानदारी से दोस्ती का रिश्ता निभाये वही सच्चा मित्र है।
लोगों ने अपनी समझ से मित्रता की भिन्न-भिन्न परिभाषायें कह दीं।
संत सिद्धार्थ ने कहा,” ठीक है, मित्र होने के कई लक्षण आप लोगों ने गिना दिये। आप लोगों ने कहा कि जो संकट में साथ दे वह सच्चा मित्र है, पर ऐसा देखा गया है कि सहायता करने वाले व्यक्ति के साथ कालांतर में सम्बंध ठीक नहीं रहते, कहीं न कहीं विगत में की गयी सहायता का एहसान ही तथाकथित मित्रों के मध्य दरार पड़ने का माध्यम बन जाता है।
क्या ऐसा भी कहा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति संकट में सहायता करता है वह मित्र बन सकता है? तब समाज सेवियों को क्या कहियेगा?
थोड़ा रुककर उन्होने अपनी बात आगे बढ़ाई,” मित्र और मित्रता की बात को यूँ समझते हैं… आपकी तरफ से कौन आपका मित्र हो सकता है? आप किस व्यक्ति के सच्चे मित्र हो सकते हैं? मित्रता एक तरफ से नहीं हो सकती। आपके विचार और भावनायें आदि भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
उन्होने नजर सामने बैठे लोगों पर दौड़ाई और कहा,” मोटे तौर पर एक बात तय कर लें कि वह क्या भाव है जिसके पार करने पर सच्ची मित्रता की बुनियाद मजबूत हो जाती है?
आप लोगों में मित्रता को लेकर निराशा है तो स्पष्ट है कि जितनी भी कसौटियाँ हैं आप लोगों के सामने मित्रता को परखने के लिये वे खरी नहीं उतरतीं क्योंकि अंत में आपको मित्रों से ठेस ही लगती है।
लोगों को चुप देखकर उन्होने कहा,” आप सबसे ज्यादा परेशान होते हैं उस मित्र से जो आपके अहं को ठेस पहुँचाता है। यह अंतिम और सबसे बड़ी कसौटी है जिसे पार करने के बाद ही सच्ची मित्रता की बुनियाद पड़ती है।
इसे पार करे बगैर मित्रता में कोई सच्चाई उत्पन्न नहीं होती। इससे पहले सारी तथाकथित मित्रतायें भुरभुरे महल ही हैं जो जल्दी ही गिर जाते हैं। अगर आपके तथाकथित मित्रों में ऐसा कोई है जिसके सामने आपका अहं पिघल जाता है, वही आपकी तरफ से आपका मित्र बन सकता है।
इस अवस्था से पहले यदि कोई आपकी सहायता करता है तो गहरे में आपके अहं को ठेस लगती है। यदि आप ही किसी की सहायता कर रहे हैं तो आपके अंदर भी यह भावना जन्म लेती है कि आपने उस व्यक्ति के ऊपर एहसान किया है।
अगर वह आपसे कुछ गलत व्यवहार करता है या आपकी उपेक्षा करता है तो आपको लगता है कि आपने तो उस पर एहसान किया और वह आपको ही उपेक्षित समझ रहा है। आप चाहते हैं कि वह आपके द्वारा की गयी सहायता को हमेशा याद रखे, पर यही बात आप तब लागू नहीं करना चाहते जब कोई आपकी सहायता करता है।
साधारण रिश्तों में व्यक्ति का अहंकार मौजूद रहता है अतः रिश्ते गहरायी नहीं पा पाते।
सच्चा मित्र आपके अहंकार की परवाह किये बगैर आपको टोकेगा जरुर जब भी आपको गलत राह पर चलता हुआ पायेगा।
सच्चा मित्र कभी आपके साथ उस कर्म में खड़ा हुआ नहीं दिखायी देगा जो कर्म मानवता के बुनियादी उसूलों के खिलाफ जाते हों। आपको चाहे कितना बुरा लगे, वह इस बात की परवाह किये बिना ही आपको सत्य मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करेगा।
वह आपको गलत कर्म को करने के लिये साथ होने की ऊर्जा नहीं देगा। सच्चा मित्र तो बहुत बार आपके विरोध में खड़ा दिखायी देगा क्योंकि वह कटिबद्ध है आपको गलत मार्ग पर चलने से रोकने के लिये।
जो हर कर्म में, चाहे वे गलत ही क्यों न हों, साथ देते दिखायी देते हैं वे चापलूस होते हैं, सच्चे मित्र नहीं। सच्चा मित्र कैसे आपको पाप के मार्ग पर चलने देगा?
सच्चा मित्र वही है, जो भरपूर ईमानदारी से आपके अहंकार को ठेस पहुँचाये और तब भी आप उसके साथ के लिये अपने अंतर्मन में इच्छा को जिंदा पायें। बाकी सब तरह की मित्रतायें अवसरवादी हैं, सतही हैं, कम आयु की हैं।
कभी ऐसा ईमानदार मित्र मिल जाये जो मित्रता निभाने में भी उतना ही ईमानदार हो तो ऐसे सच्चे मित्र की मित्रता पाने के लिये अपने को भाग्यशाली समझना और उस मित्रता की रक्षा हर हाल में करना।
और स्वयं भी ऐसा ही ईमानदार मित्र बनने की चेष्टा करना, बल्कि आपकी पहल ही ज्यादा महत्वपूर्ण है, आप स्वयं की ही दिशा तो संचालित कर सकते हैं। इस अवस्था के बाद मित्रता दुख नहीं देगी, ठेस नहीं पहुँचायेगी।

अस्त्र शस्त्र विद्या :-


प्राचीन आर्यावर्त के आर्यपुरुष अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण थे। उन्होंने अध्यात्म-ज्ञान के साथ-साथ आततियों और दुष्टों के दमन के लिये सभी अस्त्र-शस्त्रों की भी सृष्टि की थी।आर्यों की यह शक्ति धर्म-स्थापना में सहायक होती थी।
प्राचीन काल में जिन अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग होता था, उनका वर्णन इस प्रकार है-
अस्त्र उसे कहते हैं, जिसे मन्त्रों के द्वारा दूरी से फेंकते हैं। वे अग्नि, गैस और विद्युत तथा यान्त्रिक उपायों से चलते हैं।शस्त्र ख़तरनाक हथियार हैं, जिनके प्रहार से चोट पहुँचती है और मृत्यु होती है। ये हथियार अधिक उपयोग किये जाते हैं।
वैदिक काल में अस्त्रशस्त्रों का वर्गीकरण इस प्रकार था :
(1) अमुक्ता - वे शस्त्र जो फेंके नहीं जाते थे।
(2) मुक्ता - वे शस्त्र जो फेंके जाते थे। इनके भी दो प्रकार थे-पाणिमुक्ता, अर्थात् हाथ से फेंके जानेवाले और यंत्रमुक्ता, अर्थात् यंत्र द्वारा फेंके जानेवाले।
(3) मुक्तामुक्त - वह शस्त्र जो फेंककर या बिना फेंके दोनों प्रकार से प्रयोग किए जाते थे।
(4) मुक्तसंनिवृत्ती - वे शस्त्र जो फेंककर लौटाए जा सकते थे।
अस्त्रों के विभाग :-
अस्त्रों को दो विभागों में बाँटा गया है-
(1) वे आयुध जो मन्त्रों से चलाये जाते हैं- ये दैवी हैं। प्रत्येक शस्त्र पर भिन्न-भिन्न देव या देवी का अधिकार होता है और मन्त्र-तन्त्र के द्वारा उसका संचालन होता है। वस्तुत: इन्हें दिव्य तथा मान्त्रिक-अस्त्र कहते हैं।
इन बाणों के कुछ रूप इस प्रकार हैं—आग्नेय यह विस्फोटक बाण है। यह जल के समान अग्नि बरसाकर सब कुछ भस्मीभूत कर देता है। इसका प्रतिकार पर्जन्य है।
पर्जन्य यह विस्फोटक बाण है। यह जल के समान अग्नि बरसाकर सब कुछ भस्मीभूत कर देता है। इसका प्रतिकार पर्जन्य है।
वायव्य इस बाण से भयंकर तूफान आता है और अन्धकार छा जाता है।पन्नग इससे सर्प पैदा होते हैं। इसके प्रतिकार स्वरूप गरुड़ बाण छोड़ा जाता है।
गरुड़ इस बाण के चलते ही गरुड़ उत्पन्न होते है, जो सर्पों को खा जाते हैं।
ब्रह्मास्त्र यह अचूक विकराल अस्त्र है। शत्रु का नाश करके छोड़ता है। इसका प्रतिकार दूसरे ब्रह्मास्त्र से ही हो सकता है, अन्यथा नहीं।
पाशुपत इससे विश्व नाश हो जाता हैं यह बाण महाभारतकाल में केवल अर्जुन के पास था।वैष्णव—नारायणास्त्र यह भी पाशुपत के समान विकराल अस्त्र है। इस नारायण-अस्त्र का कोई प्रतिकार ही नहीं है।
यह बाण चलाने पर अखिल विश्व में कोई शक्ति इसका मुक़ाबला नहीं कर सकती। इसका केवल एक ही प्रतिकार है और वह यह है कि शत्रु अस्त्र छोड़कर नम्रतापूर्वक अपने को अर्पित कर दे।
कहीं भी हो, यह बाण वहाँ जाकर ही भेद करता है। इस बाण के सामने झुक जाने पर यह अपना प्रभाव नहीं करता।
इन दैवी बाणों के अतिरिक्त ब्रह्मशिरा और एकाग्नि आदि बाण है।
(2) वे शस्त्र हैं, जो यान्त्रिक उपाय से फेंके जाते हैं; ये अस्त्रनलिका आदि हैं। नाना प्रकार के अस्त्र इसके अन्तर्गत आते हैं।
अग्नि, गैस, विद्युत से भी ये अस्त्र छोडे जाते हैं। इन अस्त्रों के लिये देवी और देवताओं की आवश्यकता नहीं पड़ती। ये भयकंर अस्त्र हैं और स्वयं ही अग्नि, गैस या विद्युत आदि से चलते हैं।
नीचे कुछ अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन किया गया है, जिनका प्राचीन संस्कृत-ग्रन्थों में उल्लेख है।
शक्ति यह लंबाई में गजभर होती है, उसका हेंडल बड़ा होता है, उसका मुँह सिंह के समान होता है और उसमें बड़ी तेज जीभ और पंजे होते हैं। उसका रंग नीला होता है और उसमें छोटी-छोटी घंटियाँ लगी होती हैं। यह बड़ी भारी होती है और दोनों हाथों से फेंकी जाती है।
तोमर यह लोहे का बना होता है। यह बाण की शकल में होता है और इसमें लोहे का मुँह बना होता है साँप की तरह इसका रूप होता है। इसका धड़ लकड़ी का होता है। नीचे की तरफ पंख लगाये जाते हैं, जिससे वह आसानी से उड़ सके। यह प्राय: डेढ़ गज लंबा होता है। इसका रंग लाल होता है।
पाश ये दो प्रकार के होते हैं, वरुणपाश और साधारण पाश; इस्पात के महीन तारों को बटकर ये बनाये जाते हैं। एक सिर त्रिकोणवत होता है। नीचे जस्ते की गोलियाँ लगी होती हैं। कहीं-कहीं इसका दूसरा वर्णन भी है। वहाँ लिखा है कि वह पाँच गज का होता है और सन, रूई, घास या चमड़े के तार से बनता है। इन तारों को बटकर इसे बनाते हैं।
ऋष्टि यह सर्वसाधारण का शस्त्र है, पर यह बहुत प्राचीन है। कोई-कोई उसे तलवार का भी रूप बताते हैं।गदा इसका हाथ पतला और नीचे का हिस्सा वजनदार होता है। इसकी लंबाई ज़मीन से छाती तक होती है। इसका वजन बीस मन तक होता है। एक-एक हाथ से दो-दो गदाएँ उठायी जाती थीं।मुद्गर इसे साधारणतया एक हाथ से उठाते हैं। कहीं यह बताया है कि वह हथौड़े के समान भी होता है।
चक्र दूर से फेंका जाता है।वज्र कुलिश तथा अशानि-इसके ऊपर के तीन भाग तिरछे-टेढ़े बने होते हैं। बीच का हिस्सा पतला होता है। पर हाथ बड़ा वजनदार होता है।
त्रिशूल इसके तीन सिर होते हैं। इसके दो रूप होते है।शूल इसका एक सिर नुकीला, तेज होता है। शरीर में भेद करते ही प्राण उड़ जाते हैं।
असि तलवार को कहते हैं। यह शस्त्र किसी रूप में पिछले काल तक उपयोग होता रहा था।
खड्ग बलिदान का शस्त्र है। दुर्गाचण्डी के सामने विराजमान रहता है।
चन्द्रहास टेढ़ी तलवार के समान वक्र कृपाण है।फरसा यह कुल्हाड़ा है। पर यह युद्ध का आयुध है। इसकी दो शक्लें हैं।
मुशल यह गदा के सदृश होता है, जो दूर से फेंका जाता है।
धनुष इसका उपयोग बाण चलाने के लिये होता है।
बाण सायक, शर और तीर आदि भिन्न-भिन्न नाम हैं ये बाण भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। हमने ऊपर कई बाणों का वर्णन किया है।
उनके गुण और कर्म भिन्न-भिन्न हैं।परिघ में एक लोहे की मूठ है। दूसरे रूप में यह लोहे की छड़ी भी होती है और तीसरे रूप के सिरे पर वजनदार मुँह बना होता है।
भिन्दिपाल लोहे का बना होता है। इसे हाथ से फेंकते हैं। इसके भीतर से भी बाण फेंकते हैं।
नाराच एक प्रकार का बाण हैं।परशु यह छुरे के समान होता है। भगवान परशुराम के पास अक्सर रहता था। इसके नीचे लोहे का एक चौकोर मुँह लगा होता है। यह दो गज लंबा होता है।
कुण्टा इसका ऊपरी हिस्सा हल के समान होता है। इसके बीच की लंबाई पाँच गज की होती है।
शंकु बर्छी भाला है।
पट्टिश एक प्रकार का तलवार है जो कि लोहे की पतली पटटियों वाला होता है।
इसके सिवा वशि तलवार या कुल्हाड़ा के रूप में होती है।
इन अस्त्रों के अतिरिक्त भुशुण्डी आदि अन्य अनेक अस्त्रों का वर्णन विभिन्न ग्रंथों में मिलता है।

शंकराचार्य का कथन :-


शंकराचार्य का कथन है कि अद्वैत दर्शन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और उपनिषदों की शिक्षा पर अवलम्बित है। अद्वैत दर्शन के तीन पहलू हैं-
1. तत्व मीमांसा
2. ज्ञान मीमांसा
3. आचार दर्शन
इनका अलग-अलग विकास शंकराचार्य के बाद के वैदान्तियों ने किया। तत्व मीमांसा की दृष्टि से अद्वैतवाद का अर्थ है कि सभी प्रकार के द्वैत या भेद का निषेध। अन्तिम तत्व ब्रह्म एक और अद्वय है। उसमें स्वगत, स्वजातीय तथा विजातीय किसी भी प्रकार का द्वैत नहीं है। ब्रह्म निरवयव, अविभाज्य और अनन्त है।
उसे सच्चिदानंद या ‘सत्यं, ज्ञानं, अनन्तम् ब्रह्मा’ भी कहा गया है। असत् का निषेध करने से जो प्राप्त हो, वह सत्, अचित् का निषेध करने से जो प्राप्त हो, वह चित् और दु:ख का निषेध करने से जो प्राप्त हो, वह आनंद है।
यह ब्रह्मा का स्वरूप लक्षण है, परन्तु यहाँ ध्यान रखने की बात यह है कि सत्, चित् और आनंद न तो ब्रह्म के तीन पहलू हैं, न ही ब्रह्म के तीन अंश और न ब्रह्म के तीन विशेषण हैं। जो सत् है वही चित है और वही आनंद भी है। दृष्टि भेद के कारण उसे सच्चिदानंद कहा गया है- असत् की दृष्टि से वह सत् अचित् की दृष्टि से चित् और दु:ख की दृष्टि से आनंद है।
शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठ
मठ प्रदेश
ज्योतिषपीठ, बद्रीनाथ उत्तराखण्ड (हिमालय में स्थित)
गोवर्धनपीठ, पुरी उड़ीसा
शारदापीठ, द्वारिका गुजरात
श्रृंगेरीपीठ, मैसूर कर्नाटक
जगत का कारण- ईश्वर
यह निर्गुण, निराकार, अविकारी, चित् ब्रह्म ही जगत का कारण है। जगत के कारण के रूप में उसे ईश्वर कहा जाता है। मायोपहित ब्रह्म ही ईश्वर है। अत: ब्रह्म और ईश्वर दो तत्व नहीं हैं- दोनों एक ही हैं। जगत का कारण होना- यह ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है।
तटस्थ लक्षण का अर्थ है, वह लक्षण जो ब्रह्म का अंग न होते हुए भी ब्रह्म की ओर संकेत करे। जगत ब्रह्म पर आश्रित है, परन्तु ब्रह्म जगत पर किसी भी प्रकार आश्रित नहीं है, वह स्वतंत्र है। जगत का कारण प्रकृति, अणु या स्वभाव में से कोई नहीं हो सकता।
इसी से उपनिषदों ने स्पष्ट कहा है कि ब्रह्म वह है जो जगत की सृष्टि, स्थिति और लय का कारण है। जगत की सृष्टि आदि के लिए ब्रह्म को किसी अन्य तत्व की आवश्यकता नहीं होती। इसी से ब्रह्म को अभिन्न निमित्तोपादान कारण कहा है।
जगत की रचना ब्रह्मश्रित माया से होती है, परन्तु माया कोई स्वतंत्र तत्व नहीं है। यह मिथ्या है, इसलिए ब्रह्म को ही कारण कहा गया है। सृष्टि वास्तविक नहीं है, अत: उसे मायाजनित कहा गया है। माया या अविद्या के कारण ही जहाँ कोई नाम-रूप नहीं है, जहाँ भेद नहीं है, वहाँ नाम-रूप और भेद का आभास होता है।
इसी से सृष्टि को ब्रह्म का विवर्त भी कहा गया है। विवर्त का अर्थ है कारण या किसी वस्तु का अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए अन्य रूपों में अवभासित होना, अर्थात् परिवर्तन वास्तविक नहीं बल्कि आभास मात्र है।
विद्या के प्रकार :-
ब्रह्म की सृष्टि का कारण कहने से यह मालूम पड़ सकता है कि ब्रह्म की सत्ता कार्य-करण अनुमान के आधार पर सिद्ध की गई है। परन्तु यह बात नहीं है।
ब्रह्म जगत का कारण है, यह ज्ञान हमको श्रुति से होता है। अत: ब्रह्म के विषय में श्रुति ही प्रमाण है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि तर्क के लिए कोई स्थान नहीं है। श्रुत्यनुकूल तर्क वेदांत को मान्य है। स्वतंत्र रूप से ब्रह्मज्ञान कराने का सामर्थ्य तर्क में नहीं है, क्योंकि ब्रह्म निर्गुण है।
इसी से तर्क और श्रुति में विरोध भी नहीं हो सकता है। दोनों के क्षेत्र पृथक-पृथक हैं। श्रुति और प्रत्यक्ष का भी क्षेत्र अलग-अलग होने के कारण उनमें विरोध नहीं हो सकता। श्रुति पर-तत्व विषयक है और प्रत्यक्ष अपरतत्व-विषयक। इसी से विद्या भी परा और अपरा दो प्रकार की मानी गई है।
सत्ताएँ
ऐसा कहा गया है कि जगत ब्रह्म का विवर्त है, अर्थात् अविद्या के कारण आभास मात्र है। अविद्या को ज्ञान का अभाव मात्र नहीं समझना चाहिए। वह भाव तो नहीं है, परन्तु भाव रूप है-भाव और अभाव दोनों से भिन्न अनिर्वचनीय है। भाव से भिन्न इसलिए है कि उसका बोध होता है, तथा अभाव से भिन्न इसलिए कि इसके कारण मिथ्या वस्तु दिखाई पड़ती है, जैसे रज्जु के स्थान पर सर्पाभास।
इसलिए कहा गया है कि अविद्या की दो शक्तियां हैं- आवरण और विक्षेप। विक्षेप शक्ति मिथ्या सर्प का सृजन करती है और आवरण शक्ति सर्प के द्वारा रज्जु का आवरण करती है। इसी से रज्जु अज्ञान की अवस्था में सर्वपत् दिखाई पड़ती है। इसी प्रकार ब्रह्म भी अज्ञान के कारण जगतवत् दिखाई पड़ता है। अत: वेदान्त में तीन सत्ताएं स्वीकृत की गई हैं-
प्रातिभासिक (सर्प) – जो हमारे साधारण भ्रम की स्थिति में आभासित होता है और रस्सी के ज्ञान के बाधित होता है।
व्यावहारिक (जगत) – जो मिथ्या तो है परन्तु, जब तक ब्रह्म का ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक सत्य प्रतीत होता है, और ज्ञान हो जाने पर बाधित हो जाता है।
ब्रह्म – जिसे पारमार्थिक कहा जाता है। इसका कभी भी ज्ञान नहीं होता है। यह नित्य है। ब्रह्मज्ञान होने से जगत का बोध हो जाता है और मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
जीव वास्तव में ब्रह्म ही है, दूसरा कुछ नहीं, शरीर धारण के कारण वह भिन्न प्रतीत होता है। शरीर तीन प्रकार का होता है- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। अनादि प्रवाह के अधीन होकर कर्मफल को भोगने के लिए शरीर धारण करना पड़ता है।
कर्म अविद्या के कारण होते हैं। अत: शरीर धारण अविद्या के ही कारण है। इसे ही बंधन कहते हैं। अविद्या के कारण कर्तृत्वाभिमान और भोक्तृत्वाभिमान पैदा होता है, जो आत्मामें स्वभावत: नहीं होता।
जब कर्तृत्वाभिमान और भोक्तृत्वाभिमान से युक्त होता है, तब आत्मा जीव कहलाता है। मुक्त होने पर जीव ब्रह्म से एककारता प्राप्त करता है या उसका अनुभव करता है।
उपनिषद कथन
आत्मा और ब्रह्म की एकता अथवा अभिन्नत्व दिखाने के लिए उपनिषदों ने कहा है- ‘तत्वमसी’ (तुम वही हो)। इसी कारण से ज्ञान होने पर ‘सोऽहमस्मि’ (मैं वही हूँ) का अनुभव होता है। जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर, स्वप्न में सूक्ष्म शरीर और सुषुप्ति में कारण शरीर रहता है।
सुषुप्ति में चेतना भी रहती है, परन्तु विषयों का ज्ञान न होने के कारण जान पड़ता है कि सुषुप्ति में चेतना नहीं रहती। यदि सुषुप्ति में चेतना न होती तो जागने पर कैसे हम कहते कि सुखपूर्वक सोया?
वहाँ चेतना साक्षीरूप या शुद्ध चैतन्य रूप है। परन्तु सुषुप्ति में अज्ञान रहता है। इसी से शुद्ध चेतना के रहते हुए भी सुषुप्ति मुक्ति से भिन्न है- मुक्ति की अवस्था में अज्ञान का नाश हो जाता है। शुद्ध चैतन्य रूप होने के कारण ही कहा गया है कि आत्मा एक है और ब्रह्मस्वरूप है।
चेतना का विभाजन नहीं हो सकता है। जीवात्मा अनेक हैं, परन्तु आत्मा एक है, यह दिखाने के लिए उपमाओं का प्रयोग होता है। जैसे आकाश एक है परन्तु सीमित होने के कारण घट या घटाकाश अनेक दिखाई पड़ता है, अथवा सूर्य एक है, किन्तु उसकी परछाई अनेक स्थलों में दिखाई पड़ने से वह अनेक दिखाई पड़ता है, इसी प्रकार यद्यपि आत्मा एक है फिर भी माया या अविद्या के कारण अनेक दिखाई पड़ता है।
जीव और ईश्वर में भेद
जीव और ईश्वर में व्यावहारिक दृष्टि से भेद है। जीवन बद्ध है, ईश्वर नित्यमुक्त है। मुक्त होने पर भी जीव को नित्यमुक्त नहीं कहा जा सकता। नित्यमुक्त होने के कारण ही ईश्वर श्रुति का जनक या आदिगुरु कहा जाता है।
ईश्वर को मायोपहित कहा गया है, क्योंकि माया विक्षेप प्रधान होने के कारण और ईश्वर के अधीन होने के कारण ईश्वर के ज्ञान का आवरण नहीं करती। परन्तु जीव को अज्ञानोपहित कहा गया है, क्योंकि अज्ञान द्वारा जीव का स्वरूप ढक जाता है।
इसी से कभी-कभी माया और अविद्या में भेद किया जाता है। माया ईश्वर की उपाधि है- सत्व प्रधान है, विक्षेप प्रधान है और अविद्या जीव की उपाधि है, तमस्-प्रधान है और उसमें आवरण विक्षेप होता है।
अज्ञानता तथा मुक्ति
अज्ञान के कारण जीव अपने स्वरूप को भूल कर अपने को कर्ता-भोक्ता समझता है। इसी से उसको शरीर धारण करना पड़ता है और बार-बार संसार में आना पड़ता है। यही बंधन है। इस बंधन से छुटकारा तभी मिलता है, जब अज्ञान का नाश होता है और जीव अपने को शुद्ध चैतन्य ब्रह्म के रूप में जान जाता है।
शरीर रहते हुए भी ज्ञान के हो जाने पर जीव मुक्त हो सकता है, क्योंकि शरीर तभी तक बंधन है, जब तक जीव अपने कोआत्मा रूप में न जानकर अपने को शरीर, इन्द्रिय, मन आदि के रूप में समझता है।
इसी से वेदान्त में जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति नाम की दो प्रकार की मुक्ति मानी गयी हैं। ज्ञान हो जाने के बाद भी प्रारब्ध भोग के लिए शरीर कुम्हार के चक्र के समान पूर्वप्रेरित गति के कारण चलता रहता है। शरीर छूटने पर ज्ञानी विदेह मुक्ति प्राप्त करता है।
ज्ञान प्राप्ति के गुण
ज्ञान प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम ज्ञान का अधिकारी होना आवश्यक है। अधिकारी वही होता है, जिसमें निम्नलिखित चार गुण हों-
1. नित्यानित्य-वस्तु-विवेक
2. इहामुत्र-फलभोग-विराग
3. शमदमादि
4. मुमुक्षत्व
इन गुणों से युक्त होकर जब जिज्ञासु गुरु का उपदेश सुनता है, तब उसे ज्ञान हो जाता है। कभी-कभी श्रवण मात्र से भी ज्ञान हो जाता है, परन्तु वह असाधारण जीवों को ही होता है। साधारण जीव श्रवण के उपरान्त मनन करते हैं।
मनन से ब्रह्म के विषय में या आत्मा के विषय में या ब्रह्मात्मैक्य के विषय में जो बौद्धिक शंकाएं होती हैं, उनको दूर किया जाता है और जब बुद्धि शंकामुक्त होकर स्थिर हो जाती है तभी ध्यान या निदिव्यसन सम्भव होता है।
कर्म से अविद्या का नाश नहीं होता, क्योंकि कर्म स्वयं अविद्याजन्य है। कर्म और उपासना से बुद्धि शुद्ध होकर ज्ञान के योग्य होती है। इसी से इन दोनों की उपयोगिता तो मानी गई है, परन्तु मुक्ति ज्ञान या अविद्या नाश से ही होती है।
मुक्ति के उपरान्त कर्म और उपासना की आवश्यकता नहीं रहती। फिर भी मुक्त पुरुष जन-कल्याण के लिए या ईश्वरादेश की पूर्ति के लिए कर्म कर सकता है। जैसे आचार्य शंकर ने किया।
एकदण्डी
एकदण्डी शंकराचार्य द्वारा स्थापित 'दसनामी सन्न्यासियों' में से एक हैं। 'दसनामी सन्न्यासियों' में से प्रथम तीन (तीर्थ, आश्रम एवं सरस्वती) विशेष सम्मानीय माने जाते हैं।
* दसनामी सन्न्यासियों के प्रथम तीन में केवल ब्राह्मण ही सम्मिलित हो सकते हैं।
* शेष सात वर्गों में अन्य वर्णों के लोग भी आ सकते हैं, किन्तु दंड धारण करने के अधिकारी ब्राह्मण ही हैं।
* इन सन्न्यासियों का दीक्षाव्रत इतना कठिन होता है कि बहुत से लोग दंड के बिना ही रहना पसन्द करते हैं।
इन्हीं सन्न्यासियों को 'एकदण्डी' कहा जाता है।
* एकदण्डी सन्न्यासियों के विरुद्ध श्रीवैष्णव सन्न्यासी, जिनमें केवल ब्राह्मण ही सम्मिलित होते हैं, 'त्रिदण्ड' धारण करते हैं। दोनों सम्प्रदायों में अन्तर स्पष्ट करने के लिए इन्हें 'एकदण्डी' तथा 'त्रिदण्डी' नामों से पुकारा जाता है।
इनमें केवल ब्राह्मण ही सम्मिलित हो सकते हैं। शेष सात वर्गों में अन्य वर्णों के लोग भी आ सकते हैं, किन्तु दंड धारण करने के अधिकारी ब्राह्मण ही हैं।
मणिमान
* शंकराचार्य एवं मध्वाचार्य के शिष्यों में परस्पर घोर प्रतिस्पर्धा रहती थी।
* मध्व अपने को वायु देव का अवतार कहते थे तथा शंकर को महाभारत में उदधृत एक अस्पष्ट व्यक्त मणिमान का अवतार मानते थे।
* मध्व ने महाभारत की व्याख्या में शंकर की उत्पत्ति सम्बन्धी धारणा का उल्लेख किया है।
* मध्व के पश्चात उनके एक प्रशिष्य पंडित नारायण ने मणिमंजरी एवं मध्वविजय नामक संस्कृत ग्रन्थों में मध्व वर्णित दोनों अवतार (मध्व के वायु अवतार एवं शंकर के मणिमान अवतार) के सिद्धान्त की स्थापना गम्भीरता से की है।
* उपर्युक्त माध्व ग्रन्थों के विरोध में ही 'शंकरदिग्विजय' नामक ग्रन्थ की रचना हुई जान पड़ती है।

राजा जनक


हमारे इतिहास का कितना बड़ा नाम है-जनक। ऐसा बड़ा नाम कि इनका नाम ही नहीं, उनके साथ लगा उनका वंशनाम, उनके साथ लगा उनका उपाधिनाम तक एक खास अर्थ का प्रतीक बन गया है, खास तरह के वैराग्य भाव का पर्यायवाची बन गया है।
उस महान राजा का नाम था जनक, जो इतने वैराग्यशील माने जाते हैं कि एक कहानी चल पड़ी कि जब एक बार राजदरबार में बैठकर वे अध्यात्म चर्चा में लीन थे, तो किसी ने उन्हें सूचना दी कि महाराज आपकी राजधानी मिथिला में आग लग गई है तो आप जानते हैं कि पुराणगाथाओं में राजा जनक का कौन-सा जवाब दर्ज है-
'मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्याति कश्चन’
यानी अगर मिथिला जल रही है तो इसमें मेरा भला क्या जल रहा है?
हमारे इतिहास में मिथिला में आग लग जाने की घटना कहीं खास दर्ज है नहीं। इसलिए लगता यही है कि जनक की घोर वैराग्यशीलता दिखाने के लिए एक ऐसा गाथा-संवाद गढ़ लिया गया। पर वैराग्यशीलता की प्रतिष्ठा का आलम यह है कि आज हमें परमहंस जैसा कोई महासम्पन्न व्यक्ति मिल जाए, तो हम कह उठते हैं कि वह तो साक्षात जनक है।
विदेह उनका वंशनाम है पर वि+देह यानी जिसे अपने देह की भी सुध नहीं, इस अर्थवाला वंशनाम भी हम आजकल किसी भी वैराग्यशील व्यक्ति को देने में गौरव का अनुभव करते हैं।
जनक को राजर्षि इसलिए कहा जाता है कि वे राजा होते हुए भी अर्थात राजनेता होते हुए भी ऋषि जैसे वीतराग थे। आज हम अगर डा. राजेन्द्रप्रसाद को भी राजर्षि कहना चाहते हैं और पुरुषोत्तमदास टंडन को भी राजर्षि कहते हैं और सारा देश इसका अर्थ तत्काल समझ जाता है
तो जाहिर है कि जनक का उपाधिनाम तक हमारे जहन में अपने पूरे अर्थ-संदेश के साथ कहीं गहरे बस गया है और हजारों सालों से इसी अर्थ संदेश के साथ बसा हुआ है तो क्या यह कोई छोटी बात है?
तो ऐसे जनक कौन थे? कब हुए थे? हम भारतवासियों के दिलोदिमाग में माता सीता के पिता का नाम जनक है जो ठीक ही है। माता सीता के पिता जनक थे और उसी मिथिला के राजा थे, जहां धनुषयज्ञ हुआ था और भगवान राम ने धनुष तोड़ कर माता सीता के साथ विवाह किया था। पर जनक को लेकर हमारे सामने एक बड़ी दिक्कत है।
हमारे सामने एक जनक वे हैं, जो माता सीता के पिता थे और जो भगवान राम के समकालीन थे यानी आज से (छह हजार साल) पहले हुए। हमारे सामने एक जनक वे हैं, जिनके राजदरबार में आचार्य याज्ञवल्क्य ने अपने ब्रह्मवाद की जबर्दस्त प्रतिष्ठा की थी, जहां उस समय की प्रख्यात विदुषी गार्गी वाचक्नवी ने याज्ञवल्क्य वेफ सिद्धांतों को चुनौती दी थी और याज्ञवल्क्य बड़ी मुश्किल से उनके सवालों के जवाब दे पाए थे।
जनक के दरबार में हुआ याज्ञवल्क्य संवाद प्रख्यात ग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण में अपनी पूरी शाब्दिक शोभा के नाम निरूपित है। याज्ञवल्क्य वैशम्पायन मुनि के भतीजे माने जाते हैं और ये वैशम्पायन वे महापुरुष हैं, जो मुनि वेदव्यास की उस टीम के विशिष्ट सदस्य थे, जिसने एक लाख श्लोकों वाला महाभारत तैयार किया था।
जाहिर है कि याज्ञवल्क्य वेदव्यास और वैशम्पायन से संबद्ध होने के कारण महाभारत के नायक कौरव-पांडवों के आसपास के समय के माने जाएंगे और अगर उनकी अध्यात्म चर्चाओं का केन्द्र राजा जनक का दरबार था, तो ये जनक आज से पांच हजार साल पहले हुए।
अर्थात जिस जनक को हम सीता के पिता के रूप में जानते हैं, उनमें और जिन जनक की प्रतिष्ठा महान अध्यात्मवेत्ता के रूप में शतपथ ब्राह्मण नामक ग्रन्थ में ही नहीं, हमारी स्मृतियों में भी दर्ज है, उनमें एक हजार साल का काल बीत जाता है। अब बताइए कैसे हो इस समस्या का हल?
क्यों न हल की तलाश के लिए थोड़ा जनकवंश में डुबकी लगा ली जाए? और डुबकी लगाने से पहले यह बताने की जरूरत नहीं कि सीता के पिता न तो पहले जनक थे और न ही आखिरी जनक। जाहिर है कि एक पूरी वंश परम्परा है, जिसने मिथिला में शासन किया है। जब हम महाभारत के पहले तीन हजार वर्षों को
इतिहास संक्षेप में बखान रहे थे तो हमने बताया कि मनु के बाद जहां अयोध्या में इक्ष्वाकुवंश का राजवंश शुरू हुआ वहां मिथिला में निमिवंश का राजवंश चला।
मिथिला नाम बाद में पड़ा पर उसी शहर में निमिवंश का शासन पहले शुरू हुआ। निमिवंश इसलिए कि इस राजवंश के पहले राजा का नाम था निमि, पूरा नाम है निमिजनक। निमि के बाद हुए मिथि, पूरा नाम है मिथिजनक।
इन्हीं मिथि के नाम पर राजधानी का नाम पड़ा मिथिला। हो सकता है कि यूं ही महत्वाकांक्षा के वशीभूत होकर राजा ने अपनी राजधानी का नाम मिथिला कर दिया हो या फिर वे इतना महान व्यक्तित्व हों कि इतिहास ने उनकी राजधानी उन्हीं के नाम पर लिख दी हो। इन दोनों राजाओं के नाम के साथ जनक लगा है।
वैसे वाल्मीकि रामायण में अपने कुल का परिचय देते हुए सीरध्वज जनक कहते हैं कि मिथि के पुत्र का नाम जनक था (जिनके कारण उनके कुल का नाम जनक कुल पड़ गया) जो पहले जनक थे-
जनको मिथिपुत्राक:। प्रथमो जनक राजा। (बालकांड 71.4)।
इनके बाद आने वाले भी हर राजा के नाम के साथ जनक लगता रहा है। मसलन उदावसु जनक, देवरात जनक, कृतिरथ जनक, सीरध्वज जनक, जनक दैवराति, आदि।
स्पष्ट है कि जनक नाम एक कुलनाम जैसा है और इस नाम वाला कोई एक खास जनक नहीं है। जनक के साम्राज्य का नाम विदेह कैसे और कब पड़ा, कहना कठिन है। पर ग्रंथों में जहां भी जनक के साम्राज्य का वर्णन है, वहां कई बार, बल्कि अक्सर विदेह शब्द मिल जाता है-
विदेहानां राजा
अर्थात विदेहों का राजा, विदेहों अर्थात् विदेह देश का राजा। संस्कृत में देशवाची शब्दों के लिए प्राय: बहुवचन का प्रयोग मिलता है।
माता सीता जिन विदेहराज जनक की बेटी थीं उनका नाम था सीरध्वज जनक और जिन कुशध्वज जनक की तीन बेटियों के साथ भगवान राम के शेष तीन भाइयों की शादी हुई थी, वे सीरध्वज के छोटे भाई थे। या तो सीरध्वज का मध्यम आयु में देहांत हो गया था या फिर कुशध्वज काफी दीर्घायु थे, क्योंकि सीरध्वज का कोई बेटा न होने के कारण, यानी माता सीता का कोई भाई न होने के कारण, कुशध्वज ही अपने भाई सीरध्वज के उत्तराधिकारी बने।
जनकवंश में डुबकी लगाने के बाद फिर से अपने सवाल पर आते हैं कि वे जनक कौन थे जो हमारे इतिहास में महान वैराग्यशील राजर्षि के रूप में अमिट हो गए? सीता के पिता सीरध्वज जनक बाकी जनकों से अधिक महत्वपूर्ण तरीके से पुराणों में वर्णित हैं, पर यह नहीं पता चलता कि वे महत्वपूर्ण क्यों थे? कहीं-कहीं उन्हें वीर राजा के रूप में सराहा गया है।
जिस कदर उन्होंने शिवधनुष तोड़ने की प्रतिज्ञा में सीता-विवाह को बांध दिया था, उससे वे अति साहसी तो लगते हैं, पर कोई खास दूरदर्शी नजर नहीं आते। क्यों?
माता सीता के पिता और भगवान राम के श्वसुर होने के कारण सीरध्वज जनक मशहूर हो गए और इस संबंध का फायदा उनके भाई कुशध्वज को भी मशहूरी के रूप में मिला।
पर इन दोनों जनक-भाइयों में से कोई महान वैराग्यशील अध्यात्मवेत्ता राजर्षि भी था, इसके प्रमाण दूर-दूर तक नहीं मिलते, बेशक गोस्वामी तुलसीदास ने अपने रामचरित मानस में अध्यात्मवेत्ता राजर्षि के तमाम विशेषण सीता के पिता (सीरध्वज) जनक को दे दिए हैं।
याज्ञवल्क्य ने जिस महान अध्यात्मवेत्ता जनक के राजदरबार में ब्रह्मचर्चा के खुशबूदार फूल खिला दिए थे, आखिर वे जनक थे कौन?
कुछ संदर्भों में उन जनक का नाम है दैवराति। यह उनका अपना नाम नहीं लगता, बल्कि दैवराति का अर्थ है देवरात का पुत्र-
देवरातस्य पुत्रा: देवराति:।
पर निमिवंश में जिन देवरात का नाम मिलता है, वे तो निमि से सत्रहवीं पीढ़ी थे, जबकि दैवराति को याज्ञवल्क्य का समकालीन होने के कारण काफी बाद का यानी महाभारत के तत्काल बाद का होना चाहिए।
महाभारत के समय मिथिला में बहुलाश्व जनक राज कर रहे थे, जिनसे मिलने स्वयं कृष्ण गए थे। उनके पुत्र का नाम था कृतिजनक, जो महाभारत संग्राम में कौरवों की ओर से लड़ा था और मारा गया था। कृतिजनक के बाद जिन जनक का नाम मिलता है, वे शायद हमारी समस्या को हल कर दें।
क्या था इन जनक का नाम? नहीं मालूम। जो नाम मिलता है, वह उनका नाम नहीं, बल्कि ओढ़ा हुआ या लोगों के द्वारा दिया गया नाम नजर आता है। नाम है-महावशी यानी जिसने अपने पर (महान) पूरी तरह (वश) बस कर लिया है।
हो सकता है कि यही वे जनक हों, जो महावशी, महा- वैराग्यशील, परमब्रह्मज्ञ, अध्यात्मवेत्ता रहे हों और इस हद तक रहे हों कि उन्होंने अपना नाम तक छोड़ दिया हो और प्रफुल्लित प्रजा ने इन्हें अपनी ओर से महावशी नाम दे दिया हो। पर यकीनन उनके दरबार में ही वे ब्रह्मचर्चाएं होती थीं।
जिनके लिए जनक और याज्ञवल्क्य दोनों ही उस वक्त विश्वविख्यात हो गए। पर सवाल उठता है कि इन जनक को देवरात का बेटा कैसे कहा जा सकता है, जबकि उनके पिता का नाम देवरातजनक नहीं, कृतिजनक था? एक ही जवाब हो सकता है। जनकवंश में देवरात नहीं, कृतिजनक था? एक ही जवाब हो सकता है। जनकवंश में देवरात एक अपेक्षाकृत अधिक प्रसिद्ध नाम है।
हो सकता है कि अयोध्या के राजा ऋषभदेव और उनके पुत्र जड़भरत की तरह मिथिला के राजा देवरात जनक भी वैराग्यशील व्यक्ति रहे हों और जब पीढ़ियों बाद कृत्रिपुत्र जनक परम अध्यात्मवेत्ता हुए तो परम्परा ने या तब के लोगों ने उनका संबंध सीधा उन्हीं अति प्राचीन देवरात जनक से जोड़कर महावशी जनक को दैवराति कहने में अधिक सुख का अनुभव किया हो।
पर ये महावशी जनक परम वैराग्यशील थे, इतने कि उनका सारा जीवन अध्यात्म चर्चाओं में ही आनंद लेने में बीत गया। या तो इन्होंने विवाह नहीं किया था फिर इनके कोई पुत्र नहीं था, क्योंकि महावशी के बाद विदेहराज जनकों की परम्परा ही समाप्त हो गई लगती है। हो सकता है कि अगर कभी मिथिला को आग लगी हो तो वह भी इन्हीं जनक के समय लगी हो और वे उसे जलता छोड़कर महाप्रस्थान कर गए हों।
अगर यह सब ठीक है तो धन्य हैं महावशी, जिन्होंने अपने ब्रह्मज्ञानी होने की ख्याति अपने वंश के तमाम पूर्ववर्ती जनकों को भी दे दी। पर आश्चर्य कि इन महावशी का नाम ही हमें नहीं मालूम। अपना नाम, राज, वंश तक खत्म कर बैरागी हो जाने वाले इस महावशी के बारे में क्या कहें?

शंख


/> पौराणिक कथाओं के अनुसार शंख समुद्र मथंन के समय प्राप्त चौदह अनमोल रत्नों में से एक है। लक्ष्मी के साथ उत्पन्न होने के कारण इसे लक्ष्मी भ्राता भी कहा जाता है। यही कारण है कि जिस घर में शंख होता है वहां लक्ष्मी का वास होता है। पुराणों में शंख की उत्पत्ति के बारे एक रोचक प्रसंग में कहा गया है कि भगवान और शंखचूंड़ राक्षस में जब युद्ध हो रहा था तब भगवान शंकर ने भगवान विष्णु से प्राप्त त्रिशूल से शंखचूंड़ का वध कर उसके टुकड़े कर अस्थि पंजर समुद्र में डाल दिए और उन्हीं अस्थि पंजरों से शंख की उत्पत्ति हुई। इस प्रसंग का उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड के १८ वें अध्याय में भी है। नौ निधियों में भी शंख का उल्लेख है।
अन्य ग्रंथों में शंख के विषय में कहा गया है-
शंख चंद्रार्कदैवत्यं मध्ये वरुणदैवतम्‌। पृष्ठे प्रजापतिं विधादग्ते गंगा सरस्वतीम्‌॥
त्रैलोक्ये यानि तीर्थानि वासुदेवस्य चाज्ञया। शंखे तिष्ठन्ति विप्रेन्द्र तस्मात्‌ शंख प्रपूजयेत॥
दर्शनेन ही शंखस्य किं पुनः स्पर्शनेन तु विलयं यान्ति पापानि हिमवद् भास्करोदमे।
अर्थात्‌ शंख सूर्य व चंद्र के समान देवस्वरूप है जिसके मध्य में वरुण, पृष्ठ में ब्रह्मा तथा अग्र में गंगा और सरस्वती नदियों का वास है। तीर्थाटन से जो लाभ मिलता है, वही लाभ षंख के दर्शन और पूजन से मिलता है। इसीलिए षंख की पूजा की जाती है। जिस प्रकार धूप की गर्मी से बर्फ पिघल जाती है, उसी प्रकार शंख के दर्शन मात्र से पाप नष्ट हो जाते हैं। अथर्व वेद में शंख को पापहारी, दीर्घायु प्रदाता और शत्रुओं को परास्त करने वाला कहा गया है। रामायण, महाभारत आदि काव्यों में भी शंख का उल्लेख मिलता है।
कई देवी देवतागण शंख को अस्त्र (आयुध) रूप में धारण किए हुए हैं। महाभारत में युद्धारंभ की घोषणा और उत्साहवर्धन हेतु षंख किया गया था, जिसका उल्लेख गीता में इस प्रकार आया है-
पांचजन्यं ऋषीकेशो देवदत्तं धनंजय पौण्ड्रं दध्यमौ महाशंख भीमकर्मो वृकोदर।
महाभारत में सूर्योदय के समय युद्धारंभ और सूर्यास्त के समय युद्धावसान दोनों की घोषणा षंखनाद से ही की जाती थी। आदि ग्रंथों में शंख को विजय, यश व पवित्रता का प्रतीक कहा गया है। सनातन धर्म संस्कृति में इसकी विशेष महत्ता है। इसकी इसी महत्ता के कारण इसकी पूजा होती है और सभी शुभ अवसरों पर इसे बजाया जाता है। यह बात वैज्ञानिक जांच में भी सिद्ध हो चुकी है कि शंख नाद से वातावरण हानिकारक जीवाणुओं व प्रकोपों से मुक्त रहता है। प्राप्ति स्थान : वैसे तो शंख लगभग हर समुद्र में पाया जाता है, परंतु भारतवर्ष में यह मुख्यतः बंगाल की खाड़ी, मद्रास, पुरी तट, रामेश्वरम, कन्या कुमारी और हिंद महासागर में मिलता है।
शंख के प्रमुख भेद : शंख के मुख्यतः तीन प्रकार प्रकार होते हैं - वामावर्ती, दक्षिणावर्ती तथा गणेश शंख।
वामावर्ती शंख का प्रयोग सबसे ज्यादा होता है। इसका उपयोग पूजा अनुष्ठान और अन्य मांगलिक कार्यों के समय बजाने व कहीं-कहीं सजावट के लिए किया जाता है। इसे प्रातः और सायं काल आरती के पश्चात बजाने की प्रथा है। इसे दो प्रकार से सीधे होठों से व धातु के बेलन पर रखकर बजाया जाता है जिन्हें क्रमशः धमन व पुराण कहते हैं। षंखवादन के औषधीय गुण भी हैं। इसे बजाने से ष्वास रोग से बचाव होता है। यही नहीं, इसमें रखे जल तथा इसकी भस्म का सेवन करने से अन्य अनेक बीमारियों से भी रक्षा होती है। इसके इन औषधीय गुणों का आयुर्वेद में विशेष उल्लेख है।
दक्षिणावर्ती शंख को लक्ष्मी का साक्षात स्वरूप माना जाता है। यह अत्यंत मूल्यवान होता है और सर्वत्र सुलभ नहीं होता। यह दाईं ओर से खुला होता है। इस शंख के दो भेद होते हैं - पुरुष और स्त्री। यह बजाने के काम नहीं आता। घर में लक्ष्मी के स्थिर वास तथा अन्य वांछित फलों की प्राप्ति के लिए इसकी स्थापना की जाती है।
गणेश शंख पिरामिडनुमा होता है। इसकी स्थापना और पूजा ऋण तथा दरिद्रता से मुक्ति और विद्या की प्राप्ति हेतु की जाती है। गणेश इन सभी कार्यों के देव हैं इसलिए इसे गणेश स्वरूप माना गया है। शंख का ज्योतिषीय महत्व ज्योतिष में षंख को बुध ग्रह से संबंधित माना गया है। इसे चार वर्णों में बाटा गया है जिसका आधार इसका रंग है। इस दृष्टि से षंख चार रंग के होते हैं - सफेद, गाजर के रंग के समान व भूरे, हल्के पीले और स्लेटी।
वैज्ञानिक महत्व
शंख एक समुद्री उत्पाद है, जिसे मोलस्कश परिवार में रखा गया है। यह एक विषेष किस्म के समुद्री जीव का कवच है। ऊपर इसके विभिन्न वैज्ञानिक व औषधीय गुणों का उल्लेख किया जा चुका है। ऊपर वर्णित तीन प्रमुख षंखों के अतिरिक्त कुछ अन्य षंखों का विवरण इस प्रकार है।
गोमुखी शंख
इस शंख की आकृति गाय के मुख के समान होती है। इसे शिव पावर्ती का स्वरूप माना जाता है। धन-संपत्ति की प्राप्ति तथा अन्य मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए इसकी स्थापना दक्षिणावर्ती षंख के समान उत्तर की ओर मुंह कर के की जाती है। मान्यता है कि इसमें रखा पानी पीने से गौहत्या के पाप से मुक्ति मिलती है। विशाखा, पुष्य, अश्लेषा आदि नक्षत्रों में इसकी साधना विषेष रूप से की जाती है। इसे कामधेनु शंख भी कहा जाता है।
विष्णु शंख
यह सफेद रंग और गरुड़ की आकृति का होता है। इसे वैष्णव सप्रंदाय के लोग विष्णु स्वरूप मानकर घरों में रखते हैं। मान्यता है कि जहां विष्णु होते हैं, वहां लक्ष्मी भी होती हैं। इसीलिए जिस घर में इस षंख की स्थापना होती है, उसमें लक्ष्मी और नारायण का वास होता है। मान्यता यह भी है कि इस शंख में रोहिणी, चित्रा व स्वाति नक्षत्रों में गंगाजल भरकर और मंत्र का जप कर किसी गर्भवती को उस जल का पान कराने से सुंदर, ज्ञानवान व स्वस्थ संतान की प्राप्ति होती है।
पांचजन्य शंख
यह भगवान कृष्ण भगवान का आयुध है। इसे विजय व यश का प्रतीक माना जाता है। इसमें पांच उंगलियों की आकृति होती है। घर को वास्तु दोषों से मुक्त रखने के लिए स्थापित किया जाता है। यह राहु और केतु के दुष्प्रभावों को भी कम करता है।
अन्नपूर्णा शंख
यह अन्य शंखों से भारी होता है। इसका प्रयोग भाग्यवृद्धि और सुख-समृद्धि की प्राप्ति हेतु किया जाता है। इस शंख में गंगाजल भरकर प्रातःकाल सेवन करने से मन में संतुष्टि का भाव जाग्रत होता है तथा व्याकुलता समाप्तहोती है।
मोती शंख
यह आकार में छोटा व मोती की आभा लिए होता है। इसे भी लक्ष्मी की कृपा के लिए दक्षिणावर्ती शंख के समान पूजाघर में स्थापित किया जाता है। इसकी स्थापना से समृद्धि की प्राप्ति व व्यापार में उन्नति होती है। इसमें नियमित रूप से लक्ष्मी मंत्र का जप करते हुए ११ दाने चावल लक्ष्मी शीघ्र ही प्रसन्न होती है।
हीरा शंख
यह स्फटिक के समान धवल, पारदर्शी व चमकीला होता है। यह ऐष्वर्यदायक किंतु अत्यंत दुर्लभ है। इससे हीरे के समान सात रंग निकलते हैं। इसका प्रयोग प्रेम वर्धन व शुक्र दोष से रक्षा हेतु किया जाता है। इसकी स्थापना से षुक्र ग्रह की कृपा भी प्राप्त होती है।
टाइगर शंख
इस शंख पर बाघ के समान धारियां होती हैं जो बहुत ही सुंदर दिखती हैं। ये धारियां लाल, गुलाबी, काली व कत्थई रंगों की होती हैं। इसकी स्थापना से आत्मविश्वास में वृद्धि होती है तथा शनि, राहु और केतु ग्रह की व्याधियों से मुक्ति मिलती है। साथ ही साधक के मन में तंत्र शक्ति का संचार भी होता है। तात्पर्य यह कि शंख में अनेक गुण हैं। ये गुण आध्यात्मिक भी हैं, वैज्ञानिक भी और औषधीय भी। इनके इन गुणों को देखते हुए इनकी स्थापना अवश्य करनी चाहिए
परमहंस स्वामी महावीरानंद सरस्वती

Sunday, 15 May 2016

भविष्य जानने की प्राचीन विद्या रमल :-


रमल भूत, भविष्य, वर्तमान, रूप, गुण, आयु तथा मृत्यु हर प्रकार के शुभाशुभ फल ज्ञात करने की प्राचीन विद्या है। भारतीय विद्वानों के मतानुसार ज्योतिष के अन्य अंगों की भांति ‘रमल’ विद्या भी मूलतः भारत की ही देन है जो कालांतर में अगले वंशों में फली फूली।
यह कारण है कि ‘रमल’ के वर्तमान स्वरूप पर अरबी का जबरदस्त प्रभाव है। भारतीय मतानुसार ज्योतिष के 18 मुख्य प्रणेताओं में पवनाचार्य भी है। पवनाचार्य पवन जातक के प्रवर्तक एवं रमल विद्या के जनक कहे जाते हैं।
‘रायल’ शब्द को भी संस्कृत पुस्तक में इस प्रकार किया गया है।
रमुऋीडार्थ धातोश्च तस्यादय विद्यानता। ओणा दित्वादलं प्राप्परमलेति प्रथां गत।।
अर्थात् रयु क्रीडार्थक धातु में दल प्रत्यय लगाकर रमल शब्द बना है। रमल विद्या से संबंधित संस्कृत ग्रंथों में इस विद्या की उत्पत्ति के संबंध में कुछ कथाएं भी मिलती है।
रमल की उत्पत्ति और प्रस्तार का गहरा संबंध है। इसका वर्णन यहां प्रस्तुत है। एक बार भगवान शिव एवं भगवती पार्वती कैलाश शिखर पर बैठे हुए आमोद-प्रमोद में मग्न थे। तभी भगवती भवानी खेल ही खेल में अचानक ही अदृश्य हो गई।
भगवती को इस प्रकार अंतर्ध्यान हुआ देखकर शिवजी अत्यंत आश्चर्यचकित एवं दुःखी हुए वे उन्हें सहस्त्रों वर्षों तक ढूंढते रहे परंतु कोई सफलता नहीं मिली। यह देखकर भगवती के मानस पुत्र श्रीमहाभारत जो भगवान सदाशिव के ही एक अन्य रूप है, प्रकट हुए और उन्होंने भगवान शिव के समीप ही एक स्थान पर अपनी चार उंगलियों से चार बिंदु चिन्ह (ःः) बना दिये।
शिवजी उन बिंदु चिन्ह का कोई अर्थ नहीं समझ सकें। तब महाभैरव ने उन बिंदु चिन्हों के समीप ही चार बिंदु चिन्ह (ःः) और बनाते हुए शिवजी से कहा- ‘‘भगवन् आप इन चिन्हों का आशय समझ गये और उन्हीं के आधार पर गणना करके वे यह ज्ञात करने में भी सफल हो गये कि उनकी प्रियतमा भगवती तारा सुंदरी के रूप में इस समय सातवें आकाश में बिहार कर रही है।तत्पश्चात शिवजी ने सातवें आकाश में पहुंच कर भगवती को प्राप्त कर लिया।
इस प्रकार चिन्ह अर्थात् रमल विद्या का प्रकटीकरण सर्वप्रथम यहां भैरव द्वारा हुआ तथा भगवान सदाशिव ने उससे सर्वप्रथम लाभ उठाया। तत्पश्चात् भगवान शिव के अनुग्रह से यह विद्या अन्य ऋषि-मुनियों को भी प्राप्त हुई।
अनेक प्रकार के लटा-वृक्षों से समन्वित विविध भांति के पक्षियों के कलरव से गुंजायगान एवं अनेक प्रकार के मणि-रत्नों से सुशोभित स्फटिक के सामान शुभ्र वर्ण कलश पर्वत के सुरम्य शिखर पर बैठी हुई भगवती पार्वती जी ने एक समय डाॅलो पूजित भगवान आशुतोष शंकर को प्रसन्न मुख-मुद्रा में देखकर इस प्रकार प्रार्थना की है ‘देवाधि देव आज आप मुझे किसी ऐसी विद्या के विषय में बताइये, जो भूत, भविष्य, एवं वर्तमान त्रिलोक का ज्ञान कराने वाली तथा प्रच्छक के सभी प्रश्नों का सरलता पूर्वक उत्तर देने वाली हों।’
भगवती पार्वतीजी के मुख से निकले हुए इन वचनों को सुनकर शिवजी को अत्यंत हर्ष हुआ। ठीक उसी समय उनके ललाट पर सुशोभित चंद्रमा से अमृत की चार बूंदे स्रवित हुई। उन बूदों के नीचे गिरते ही अमृत प्राप्ति की लालसा से (1) अग्नि (2) वायु (3) जल (4) पृथ्वी ये चारों तत्व उनके चारों ओर घिर आए।
पूर्व दिशा में अग्नि, पश्चिम दिशा में जल, उत्तर दिशा में वायु तथा दक्षिण दिशा में पृथ्वी तत्त्व स्थित हुए। तदनन्तर अमृत-प्राप्ति दिशा में पृथ्वी तत्व स्थित हुए।
तदनन्तर अमृत प्राप्ति की लालसा से ही अन्य ग्रह भी उन सुधा बिंदुओं के चारों ओर उपस्थित हुए। यह देखकर शिवजी ने पार्वती दुर्लभ जी से कहा - हे प्रिय। अब तुम मुनियों के भी परम दुर्लभ ज्ञान को सुनो।
यह संपूर्ण ब्रह्मांड पांच तत्वों से निर्मित है। (1) अग्नि (2) वायु (3) जल (4) पृथ्वी (5) आकाश। इनमें प्रथम चार तत्व स्थूल है तथा पांचवा आकाश तत्व सूक्ष्म रूप से सर्वत्र विद्यमान रहता है। अतः उसे चारों तत्वों का धारक समझना चाहिए।
अग्नि, वाुय, जल और पृथ्वी इन चारों तत्वों के प्रतीक ही ये चारों बिंदु है। इन्हीं को चतुरानन ब्रह्मा ‘‘समझना चाहिए, क्योंकि इन्हीं तत्वों के द्वारा संपूर्ण सृष्टि उत्पन्न होती है।
जब ये बिंदू दो-दो खंडों में विभक्त होकर आद्व की संख्या ग्रहण कर लेते हैं। तब इन्हें ‘‘अष्टवसु’’ के नाम अभिहित किया जाता है। ये आठों बसु विश्व ब्रह्माण्ड के धारक माने जाते हैं।
इन बिन्दुओं के चार-चार खंडों में विभक्त हो जाने, अर्थात संख्या 16 हो जाने पर ये सोलह तिथियों तथा पूर्णिमा और अमावस्या इस प्रकार कुल सोलह तिथियां कही गई है। इन्हीं को चंद्रमा की ‘‘कला’ भी कहा जाता है।
ये बिंदु परस्पर मिलकर विभिन्न प्रकार के रूप ग्रहण करते हैं। इनके किस रूप से किस तिथि और उनके स्वामी का बोध होता है समझना चाहिए।
ये बिंदु परस्पर मिलकर विभिन्न प्रकार के रूप (शक्लों) को ग्रह करते हैं। इनके इन रूपों किसी तिथि और उनके स्वामी का बोध होता है। समस्त ग्रह राशियों और लग्न भी इन्हीं बिन्दुओं से संबंधित है।
पांसे (पाशक) की मदद से इन बिन्दुओं के रहस्य को समझकर भूत, वर्तमान एवं भविष्य की घटनाओं को जानकारी एवं प्रश्नों के उत्तर जाने जा सकते हैं। रमल विद्या में पांसे का बड़ा महत्व है।
ये पांसे अष्ट धातु का प्रयोग ग्रहों से सामंजस्य बनाने के लिए किया जाता है। इन धातुओं का ग्रहों से संबंध निम्नानुसार है।
सूर्य-सोना, चंद्र चांदी, मंगल-लोहा, शनि-सीसा, बृहस्पति -पीतल, शुक्र-तांबा, बुध-जस्ता एवं पारा आकाशीय तत्व है। क्योंकि वह उड़नशील है।
पांसों की संख्या आठ रहती है। जो चार-चार के रूप में एक तार में पिरोए हुए रहते है। पांसों की पडिकाओं पर बिंदू अंकित रहते हैं।
पहली पर 4, दूसरी पर 3, तीसरी पर 2, चौथी पर 5 बिंदु अंकित उत्कीर्ण रहते हैं। पांसों के फैंके जाने पर सोलह स्थितियां बनती है। जो गणना करने पर प्रश्न का उत्तर दर्शाती है।
सही फलित हासिल करने के लिए पांसों में पास प्रतिष्ठा मंदिर मूर्ति की तरह वैदिक रीति से करना चाहिए। प्राण प्रतिष्ठा को उचित समय एवं रमल का प्रयोग करते समय मौमस का ख्याल रखना जरूरी है।
वर्षा ऋतु में बादल हो तथा घटा बिखरी हो उस समय का तारतम्य ग्रहों से सटीक नहीं बैठता है। जिससे उत्तर भी सटीक नहीं निकलता है।
मूक प्रश्न की बजाय मुख प्रश्न का उत्तर सटीक निकलता है। उत्तर जानने के लिए मंत्रोच्चारण के पासे जब फेंके जाते हैं। तब उनको हथेली के बाग्गी (लहियान) स्थिति में रखा जाता है तथा
निम्न सिद्ध मंत्र का उच्चारण करने के बाद पासे फेंके जाते हैं।
मंत्र: -
"नमो भगवति देवि कूष्याण्डिनि सर्व कार्य प्रसाधिनि सर्व निमित प्रकाशिनि एंहियहि त्वर त्वर वरं देहि लिहि लिहि मातडिगनि सत्यं भूहि भूहि स्वाहा"।

शासकों के शासक कौन?


प्राचीन काल से ही आम जनता का ज्योतिष में अगाध विश्वास रहा है और राजनीतिज्ञ भी इसका अपवाद नहीं हैं। नई चुनी हुई सरकारें ज्योतिषी की सलाह पर एक शुभ घड़ी अर्थात् शुभ मुहूर्त का चयन करके शपथ ग्रहण करने में विश्वास करती हैं।
यदि ज्योतिष के इतिहास का अध्ययन करें तो हम पाएंगे कि अनेकानेक राजाओं ने ज्योतिष शास्त्र के विद्वानों व ज्योतिषीय पुस्तकों के लेखकों को न केवल संरक्षण प्रदान किया अपितु उनके ज्ञान का सम्यक लाभ भी उठाया।
सिकंदर महान ने अपने लिए एक भविष्यवक्ता नियुक्त किया हुआ था जिससे वह युद्ध में जाने से पहले सलाह ले लिया करता था। इसी प्रकार सम्राट अकबर के दरबार में भी ज्योतिक राय नामक विख्यात ज्योतिर्विद थे जो राजा को निरंतर परामर्श देते रहते थे और बाद में ये सम्राट जहांगीर के दरबार में ज्योतिषी थे।
ऐसा माना जाता है कि नेपोलियन के पास लीवर्स डी प्रोफैटिक्स नामक एक पुस्तक थी जो नेपोलियन के सत्ता प्राप्ति से 262 वर्ष पूर्व फिलिप डयू डन नोल ओलिवेरियस नामक एक महान डाॅक्टर, सर्जन व ज्योतिषी द्वारा लिखी गई थी।
कहते हैं कि इस पुस्तक के चमत्कारी ज्ञान के कारण नेपोलियन को ज्योतिष पर अगाध विश्वास था। कार्ल इनर्सट क्राफ्ट नामक स्विस एस्ट्रोलाॅजर को हिटलर का विशेष संरक्षण प्राप्त था। एक अन्य ज्योतिषी एैरिक जन हनुसन भी हिटलर को सलाह दिया करते थे।
सन् 1980 में एक मुख्यमंत्री ने एक ज्योतिषी के कहने पर अपने शपथ ग्रहण करने के समय को घोषित करने के बाद 10:00 बजे की बजाए 10:02 कर दिया। इसी प्रकार मंत्रियों के लिए शुभ और खुले कार्यालय का चयन करना भी इस दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है।
कुछ कार्यालय इसलिए अशुभ माने जाते हैं क्योंकि यहां पर जिन भी मंत्रियों ने कार्यभार संभाला वे कोई महत्वपूर्ण कार्य न कर सके। दिल्ली के उद्योग भवन के दो कमरे इसी प्रकार से अशुभ माने जाते रहे हैं।
एक इस्पात मंत्री ने भी लंबे समय के बाद सत्ता में लौटने पर ऐसे ही एक कमरे में जाने से मना कर दिया था। कार्यभार संभालने के बाद मंत्री लोग कई विवादास्पद फाइलों पर कार्य करने से घबराते हैं। कार्यालय के अधिकारियों की राय जब इनके लिए नाकाफी हो जाती है तो यदि मामला अधिक संवेदनशील और रिस्क वाला हो तो ज्योतिषी की राय को अंतिम राय मानकर अंतिम फैसला लेते हैं।
इंदिरा जी और नरसिम्हा राव भी अहम फैसले लेते समय ज्योतिषी की राय अवश्य लेते थे। विदेशों में भी ज्योतिषियों के मशवरे को खूब महत्व दिया जाता है। नटवर सिंह ने स्व. माग्ररेट थैचर के ब्रिटेन की प्रधानमंत्री बनने से पहले प्रख्यात ज्योतिषी चंद्रास्वामी के साथ मीटिंग के बारे में लिखा है जिसमें चंद्रास्वामी ने माग्ररेट थैचर को मंगलवार के दिन लाल साड़ी पहनने की सलाह दी थी। शेष इतिहास साक्षी है।

Saturday, 14 May 2016

तुलसीदल का महात्म्य



भगवान शिव ने स्वयं कहा है - ‘‘सब प्रकार के पत्तों और पुष्पों की अपेक्षा तुलसी ही श्रेष्ठ मानी गई है। वह परम मंगलमयी, समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाली, शुद्ध, श्रीविष्णु को अत्यंत प्रिय तथा ‘वैष्णवी’ नाम धारण करनेवाली है। वह संपूर्ण लोक में श्रेष्ठ, शुभ तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। भगवान श्रीविष्णु ने पूर्वकाल में संपूर्ण लोकों का हित करने के लिए तुलसी का वृक्ष रोपा था। तुलसी के पत्ते और पुष्प सब धर्मों में प्रतिष्ठित हैं। जैसे भगवान श्रीविष्णु को लक्ष्मी और मैं दोनों प्रिय हैं, उसी प्रकार यह तुलसीदेवी भी परम प्रिय है। हम तीनों के सिवा कोई चौथा ऐसा नहीं जान पड़ता, जो भगवान को इतना प्रिय हो। तुलसीदल के बिना दूसरे-दूसरे फूलों, पत्तों तथा चंदन आदि के लेपों से भगवान श्रीविष्णु को उतना संतोष नहीं होता। जिसने तुलसीदल के द्वारा पूर्ण श्रद्धा के साथ प्रतिदिन भगवान श्रीविष्णु का पूजन किया है, उसने दान, होम, यज्ञ और व्रत आदि सब पूर्ण कर लिए। तुलसीदल से भगवान की पूजा कर लेने पर कांति, सुख, भोगसामग्री, यश, लक्ष्मी, श्रेष्ठ कुल, शील, पत्नी, पुत्र, कन्या, धन, राज्य, आरोग्य, ज्ञान, विज्ञान, वेद, वेदंग, शास्त्र, पुराण, तंत्र और संहिता - सब कुछ मैं करतलगत समझता हूं। जैसे पुण्यसलिला गंगामुक्ति प्रदान करने वाली हैं, उसी प्रकार यह तुलसी भी कल्याण करनेवाली है। यदि मंजरीयुक्त तुलसीपत्रों के द्वारा भगवान श्रीविष्णु की पूजा की जाय तो उसके पुण्यफल का वर्णन करना असंभव है। जहां तुलसी का वन है, वहीं भगवान कृष्ण की समीपता है। तथा वहीं ब्रह्मा और लक्ष्मी जी भी संपूर्ण देवताओं के साथ विराजमान हैं। इसलिए अपने निकटवर्ती स्थान में तुलसीदेवी को रोपकर उनकी पूजा करनी चाहिए। तुलसी के निकट जो स्तोत्र-मंत्र आदि का जप किया जाता है, वह सब अनंतगुना फल देनेवाला होता है।

प्रेत, पिशाच, कूष्मांड, ब्रह्मराक्षण, भूत और दैत्य आदि सब तुलसी के वृक्ष से दूर भागते हैं। ब्रह्महत्या आदि पाप तथा खोटे विचार से उत्पन्न होने वाले रोग - ये सब तुलसीवृक्ष के समीप नष्ट हो जाते हैं। जिसने श्रीभगवान की पूजा के लिए पृथ्वी पर तुलसी का बगीचा लगा रखा है, उसने उत्तम दक्षिणाओं से युक्त सौ यज्ञों का विधिवत अनुष्ठान पूर्ण कर लिया है। जो श्रीभगवान की प्रतिमाओं तथा शालग्राम-शिलाओं पर चढ़े हुए तुलसीदल को प्रसाद के रूप में ग्रहण करता है, वह श्रीविष्णु के सायुज्य को प्राप्त होता है। जो श्रीहरि की पूजा करके उन्हें निवेदन किए हुए तुलसीदल को अपने मस्तक पर धारण करता है, वह पाप से शुद्ध होकर स्वर्गलोक को प्राप्त होता है, कलियुग में तुलसी का पूजन, कीर्तन, ध्यान, रोपण और धारण करने से वह पाप को जलाती और स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करती है। जो तुलसी के पूजन आदि का दूसरों को उपदेश देता और स्वयं भी आचरण करता है, वह भगवान श्रीलक्ष्मीपति के परमधाम को प्राप्त होता है। जो वस्तु भगवान श्रीविष्णु को प्रिय जा पड़ती है, वह मुझे भी अत्यंत प्रिय है। श्राद्ध और यज्ञ आदि कार्यों में तुलसी का एक पत्ता भी महान पुण्य प्रदान करने वाला है। जिसने तुलसी की सेवा की है, उसने गुरु, ब्राह्मण, देवता और तीर्थ - सबका भली भांति सेवन कर लिया। जो शिखा में तुलसी स्थापित करके प्राणों का परित्याग करता है, वह पापराशि से मुक्त हो जाता है। राजसूय आदि यज्ञ, भांति-भांति के व्रत तथा संयम के द्वारा धीर पुरुष जिस गति को प्राप्त करता है, वही उसे तुलसी की सेवा मिल जाती है। तुलसी के एक पत्र से श्रीहरि की पूजा करके मनुष्य वैष्णवत्व को प्राप्त होता है। उसके लिए अन्यान्य शास्त्रों के विस्तार की क्या आवश्यकता है। जिसने तुलसी की शाखा तथा कोमल पत्तियों से भगवान श्रीविष्णु की पूजा की है, वह कभी माता का दूध नहीं पीता अर्थात् उसका पुनर्जन्म नहीं होता। कोमल तुलसीदलों के द्वारा प्रतिदिन श्रीहरि की पूजा करके मनुष्य अपनी सैकड़ों और हजारों पीढ़ियों को पवित्र कर सकता है। ये तुलसी के प्रधान-प्रधान गुण हैं। तुलसी के संपूर्ण गुणों का वर्णन तो बहुत अधिक समय लगाने पर भी नहीं हो सकता। 
(पद्मपुराण)

वेदांती शंकर अथार्त आदि शंकराचार्य :-



विक्रमी संवत् से ४५२ वर्ष पूर्व (यह आचार्य उदयवीर शास्त्री का मय-निर्धारण है) केरल के एक गांव में प्रसिद्घ वेदांती शंकर (जो बाद में आदि शंकराचार्य कहलाए) का जन्म हुआ। वह अद्वैत दर्शन के आचार्य हुए; आज के हिंदू विचारों में जिनका सबसे अधिक प्रभाव दिखता है। कम आयु में ही वह संन्यासी हुए।

जिसे इतिहास उनकी 'दिग्विजय' कहता है, वह काशी से प्रारंभ की। वहां मीमांसा-दार्शनिक मंडन मिश्र के साथ प्रसिद्घ शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें मंडन मिश्र की विदुषी पत्नी भाती निर्णायिका थी। उसके बाद उन्होंने सादे देश को मथ डाला।

भारत के चार कोनों में, दक्षिण में श्रंगेरी, पूर्व में पुरी, पश्चिम में द्वारका व उत्तर में बद्रीनाथ में शंकराचार्य ने मठ स्थापित किए। ये विहारों की परंपरा के अनुसार संचालित होते थे। इनका कार्यक्षेत्र तथा नियम भी 'मठाम्नाय' और 'महानुशासनम्' द्वारा निर्धारित किए।

समूचे देश में 'दशनाम' संन्यासियों के अखाड़े प्रारंभ किए। इन्हें देश की नागरिक सेना कह सकते हैं। इन दशनाम संन्यासियों में पुरी, सागर, गिरि, पर्वत, अरण्य, तीर्थ, आश्रम, भारती, सरस्वती जैसे नाम थे।

स्पष्ट ही यह भिन्न-भिन्न स्थलों की रक्षा के लिए बनाई संन्यासियों की सेना थी जो देश भर में घूमकर धर्म (नियम तथा नैतिकता) की और समय आने पर अस्त्र-शस्त्र की तथा आक्रमण से बचाव की शिक्षा देती थी।

वह निश्चित समय पर अपने केंद्र (आश्रम और अखाड़े) में उत्सव तथा अगली शिक्षा के आदान-प्रदान के लिए आती। अधिकांशत: बौद्घ विहार की पद्घति पर इनका संघटन हुआ। इस प्रकार इन चार मठों और इन अखाड़ों, दोनों ने मिलकर उन कमियों को पूरा किया जो भारत से बौद्घ मत के लोप होने के कारण थे।

सुबोध और प्रांजल भाषा के धनी शंकर लगभग ३०० भाष्यों एवं पुस्तकों के रचयिता कहे जाते हैं। कुछ इतिहासज्ञ कहते हैं कि अपने ३२ वर्ष के जीवन में उनके बौद्घिक दिग्विजय के कारण पुन: उस अस्थिर राजनीतिक वातावरण में वेदांत पर आस्था जगी, उससे रहा-सहा बौद्घ मत भारत से समाप्त हुआ।

वहीं दूसरी ओर इतिहासज्ञ उनके दादागुरू गौड़पाद एवं स्वयं शंकर को प्रच्छन्न बौद्घ कहते हैं। उन शंकर को भी देश ने अवतारी पुरूष कहा।

वास्तव में यह उदाहरण है कि भारतीय संस्कृति की भिन्न धाराएं कैसे एक-दूसरे से ग्रथित हैं। इन्हें अलग करके देखना संभव नहीं है। परंतु यह सदा होता आया है कि छोटा सा अंतर, जो वास्तव में हिंदु जीवन में वैचारिक स्वतंत्रता की निशानी है, उसको लेकर इस संस्कृति से अनभिज्ञ व्यक्ति तिल का ताड़ बनाकर लोगों को बहकाते आए हैं।

विचारों की स्वतंत्रता पथभ्रष्टता का लक्षण न होकर उत्कृष्ट बुद्घि तथा परिपक्वता का लक्षण है और मानव सभ्यता के उस स्तर को प्रदर्शित करता है जिसकी बहुतेरे अन्य समाज कल्पना भी नहीं कर सकते।

इसी से अनेक बार भ्रमित होकर हास्यास्पद बातें हिंदु समाज के लिए कही जाती हैं। आज इस समाज की मूलभूत सभ्यता की छलांगों में संसार को आश्चर्यचकित करने वाले एकता के सूत्र को न समझने के कारण उसको छिन्न-भिन्न दिखाने के प्रयासों को प्रगतिशीलता माना जाता है।

भविष्य का अवतार - 'कल्कि'

भविष्य के गर्भ में है 'कल्कि' अवतार। यदि मानव सभ्यता के भविष्य पर विश्वास लाते हैं तो इस पर छाई काली घटाएं छंटनी ही हैं। बुद्घ का 'संघ' पर बड़ा विश्वास था। भागवत पुराण में संकेत दक्षिण मे जनमे अवतार का है। पर वह कोई संघटन भी हो सकता है। बिना समाज में दैवी शक्ति उत्पन्न किए और बिना विकृतियों को हटाए मानव का उद्दिष्ट पूरा नहीं होगा।