Wednesday, 17 February 2016

छान्दोग्योपनिषद और श्रीकृष्ण छान्दोग्योपनिषद् में वर्णित हैं


तद्धैतद घोर अांगिरस: कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाचाऽपिपास एव स बभूव, सोऽन्तवेलायामेतत्त्रयं प्रतिपद्येतात्रितमस्यच्युतमसि प्राणास शितमसीति ।
अर्थात् देवकीपुत्र श्रीकृष्ण के लिए आंगिरस घोर ऋषि ने शिक्षा दी कि जब मनुष्य का अंत समय आये तो उसे इन तीन वाक्यों का उच्चारण करना चाहिए - (1) त्वं अक्षितमसि - ईश्वर ! आप अविनश्वर हैं (2) त्वं अच्युतमसि - आप एकरस रहने वाले हैं (3) त्वं प्राणसंशितमसि - आप प्राणियों के जीवनदाता हैं । श्रीकृष्ण इस शिक्षा को पाकर अपिपास हो गये अर्थात् उन्होंने समझा कि अब और किसी शिक्षा की उन्हें जरूरत नहीं रही । यहां स्वाभाविक रीति से एक शंका होती है और वह यह है कि एक बात अंत के समय करने के लिए कही गयी थी, फिर और शिक्षाओं से श्रीकृष्ण अपिपास क्यों हो गये ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमारी दृष्टि एक वेदमंत्र पर पड़ती है, वह मंत्र इस प्रकार है -
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांत शरीरम् ।
ॐ क्रतो स्मर कृत:स्मर क्रतो स्मर कृत:स्मर ।।
मंत्र का आशय यह है कि शरीर में आने जाने वाला जीव अमर है परंतु यह शरीर केवल भस्मपर्यन्त है । इसलिए उपदेश दिया गया है कि जब इन दोनों के वियोग का समय हो तो हे क्रतो (जीव) बल प्राप्ति के लिए ओम् का स्मरण कर और अपने किये हुए (कर्म) का स्मरण कर ।
मनुष्य का जीवन दो हिस्सों में बंटा हुआ होता है (1) एक भाग उस समय तक रहता है जबतक मनुष्य मृत्युशय्यापर नहीं आता - जीवन के इस हिस्से में मनुष्य को कर्म करने की स्वतंत्रता होती है (2) दूसरा भाग वह है जिसमें मनुष्य मृत्युशय्या पर होता है - इस हिस्से में कर्मस्वातन्त्र्य नहीं रहता अपितु पहले हिस्से में किये हुए कर्म इस हिस्से में प्रतिध्वनित होते हैं - अर्थात् इस दूसरे हिस्से को पहले हिस्से की चित्र खींचने वाली अवस्था कह सकते हैं । जीवन के पहले भाग में जिस प्रकार के भी कर्म मनुष्य करता है, जीवन का दूसरा भाग उसका चित्र खींचकर उन्हें संसार के समाने रख दिया करता है । यदि एक मनुष्य ने वित्तैषणा में जीवन व्यतीत किया है तो अंत में, महमूद की तरह, उसे धन के लिए ही रोते हुए, संसार से जाना पड़ेगा । इसी प्रकार पुत्रैषणा और लोकैषणावालों का अनुमान कर लें, मंत्र में पहली शिक्षा ओम् का स्मरण कर, यह उपदेशरूप में है अर्थात् मनुष्यों को यत्न करना चाहिए कि जीवन के पहले हिस्से में ओम् (ईश्वर) का स्मरण और जप करें, जिससे अंत समय में भी उनके मुख से ओम् (ईश्वर का नाम) निकल सके । यदि कोई चाहे कि पहला भाग नास्तिकता और ईश्वर से विमुखता के कार्यों में व्यतीत करके अंत में लोगों को दिखाने के लिए ईश्वर का नाम उच्चारण करें तो यह असंभव है । इसी भाव को श्रीतुलसी दास जी ने बड़ी उत्तम रीति से वर्णन किया है ।
कोटि कोटि मुनि यतन कराहीं । अंत राम कहि आवत नहीं ।।
इसलिए मंत्र की दूसरी शिक्षा कि ‘अपने किए हुए का स्मरण कर’ नियमरूप में है और अटल है । अर्थात् अंत में मरते समय मनुष्य के मुंह से वही बातें निकलेंगी, उसकी आकृति से वही भाव प्रकट होंगे, जिनमें उसने जीवन का पहला भाग व्यतीत किया है । इस नियम के समझ लेने के बाद अब सुगमता के साथ शंकर का समाधान हो सकता है जो श्रीकृष्ण महाराज के अन्य शिक्षाओं से अपिपास होने के संबंध में उत्पन्न हुई थी । कृष्ण जी ने समझा कि अंत की बेला में ‘त्वं अक्षितमसि’ इत्यादि वाक्य तभी उच्चारण किये जा सकते हैं जब कि उनका जीवन के पहले भाग में जप और अभ्यास किया हो, अत: स्पष्ट है कि आंगिरस घोर ऋषि की शिक्षा, यद्यपि अंत के समय की एक शिक्षा थी, परंतु था वह वास्तव में सारे जीवन का कार्यक्रम । इसलिए कृष्ण महाराज का अपिपास होना स्वाभाविक था । कृष्ण जी ने अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए इस शिक्षा का भी उपदेश किया है -
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ।।
अर्थात् जो अविनश्वर ओम् ब्रह्म का उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ इस शरीर को छोड़कर संसार से जाता है वह परमगति को प्राप्त होता है । उपनिषद या गीता में कृष्ण महाराज की दी हुई यह शिक्षा उपादेय और आचरितव्य है ।

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