ईश्वर की महत्ता- ईश्वर की महत्ता के लिये तो कहते है कि, बिना ईश्वर की मरज़ी के तो पत्ता भी नहीं हिलता। परन्तु फिर भी मनुष्य हमेशा ही उसकी (ईश्वर की) महत्ता को चुनौती देता रहता है। ईश्वर को ठीक किसी जादूगर सा मान, कई लोग कहते हैं कि अगर ईश्वर तू है तो मेरा फलां-फलां रूका हुआ काम आज ही बन जाये। कुछ उसे किसी घूसखोर की तरह मान कहते हैं कि मेरी इच्छा पूर्ण कर दे अगर ईश्वर तू है तो मैं सवामनी प्रसाद करवाऊँगा आदी-आदी। वह जो सारे ब्रह्ममाण्ड का जनक है हर जीव निर्जीव की उत्पति का कारक है, ईश्वर है, अनादी औ सत्य है उस के प्रति ऐसा भाव होना ही उसकी महत्ता को चुनौती देना है।
जरा सोच कर देखें कैसे वह मात्र मिट्टी,वायु,आकाश,व्योम व जल मिला कर तरह तरह के जीवों की सरंचना करता है,और उन्हें अपना शिशु मान हर सुख दुःख का ख्याल रखता है। पर मनुष्य अपने स्वार्थ में इस कदर लिप्त है कि सब कुछ जानते हुये भी वह बार-बार उसकी महत्ता को नकारता रहता है।
मित्रों हमें ईश्वर को अपना जनक मान उस पर विश्वास करना चाहिये और प्रार्थना में वह शक्ति औ बुद्धि मांगनी चाहिये जिससे यह विश्वास निरंतर दृढ़ होता रहै बस तब हम सरलता पूर्वक जीवन की हर कठिनाई को पार कर जायेगें ठीक उस नन्हें बालक की भांति जो अपने माता-पिता की अँगुली पकड़ निर्भीक हो सड़क पार कर जाता है। वह नन्हा बालक कभी भी यह नहीं कहता कि गर माता-पिता इसके बदले मैं आपको मिठाई खिलाऊँगा आदी।
जय श्री राम जय श्री कृष्ण
परमात्मा की खोज- जब से मनुष्य का असतित्व इस संसार में आया है तब से ही परमात्मा की खोज शुरू है। प्रथम मनु से ले कर अब तक जितने भी महानुभाव, गुरू या महर्षि हुए सभी ने परमात्मा जो सारे संसार का स्वामी है, जो अजन्मा, अनादी औ नित्य है, को खोजने/दर्शन के अनेक मार्ग दिखाये, लेकिन कठिन से कठिन मार्ग पर चल कर भी कोई भी मनुष्य उस परमात्मा का दर्शन न कर सका। कुछों ने इस बात का दावा किया भी तो वह अंह की वजह से अपने आप को ही भगवान् बता पुजवाने लगे।
परमात्मा जो हम सब का जनक है और स्वंय एक अंश के रूप में हम सब में विद्धमान है। उस की प्राप्ति केवल आत्मनियन्त्रण से ही संभव है। जब कोई भी मनुष्य अपनी बुद्धि को द्वैतभाव(तेरा/मेरा), भ्रम,भय, अज्ञानता एवमं अनस्तित्व (भाव/अभाव)को दूर कर आत्मशान्ति प्राप्त करता है तो वह सभी जीवों को स्वतः ही एक ही से उतपन्न हुआ मानता है और यही समता का भाव बिना अंह के उसे परमात्मा के दर्शन करवाता है इसमें कोई संशय नहीं।
अपनी बुद्धि पर नियंत्रण व परमात्मा पर विश्वास कर जो भी मनुष्य संसारिक कार्य करता है वह न केवल स्वंय शांति पाता है बल्कि अन्य को भी भ्रम से मुक्त करता है और परमात्मा की शक्ति को स्वंय में महसूस करता है। यहीं खोज की पूर्णता है, न कि किसी विशेष स्वरूप के दर्शनों के लिये किये गये विभिन्न प्रयास।
जरा सोच कर देखें कैसे वह मात्र मिट्टी,वायु,आकाश,व्योम व जल मिला कर तरह तरह के जीवों की सरंचना करता है,और उन्हें अपना शिशु मान हर सुख दुःख का ख्याल रखता है। पर मनुष्य अपने स्वार्थ में इस कदर लिप्त है कि सब कुछ जानते हुये भी वह बार-बार उसकी महत्ता को नकारता रहता है।
मित्रों हमें ईश्वर को अपना जनक मान उस पर विश्वास करना चाहिये और प्रार्थना में वह शक्ति औ बुद्धि मांगनी चाहिये जिससे यह विश्वास निरंतर दृढ़ होता रहै बस तब हम सरलता पूर्वक जीवन की हर कठिनाई को पार कर जायेगें ठीक उस नन्हें बालक की भांति जो अपने माता-पिता की अँगुली पकड़ निर्भीक हो सड़क पार कर जाता है। वह नन्हा बालक कभी भी यह नहीं कहता कि गर माता-पिता इसके बदले मैं आपको मिठाई खिलाऊँगा आदी।
जय श्री राम जय श्री कृष्ण
परमात्मा की खोज- जब से मनुष्य का असतित्व इस संसार में आया है तब से ही परमात्मा की खोज शुरू है। प्रथम मनु से ले कर अब तक जितने भी महानुभाव, गुरू या महर्षि हुए सभी ने परमात्मा जो सारे संसार का स्वामी है, जो अजन्मा, अनादी औ नित्य है, को खोजने/दर्शन के अनेक मार्ग दिखाये, लेकिन कठिन से कठिन मार्ग पर चल कर भी कोई भी मनुष्य उस परमात्मा का दर्शन न कर सका। कुछों ने इस बात का दावा किया भी तो वह अंह की वजह से अपने आप को ही भगवान् बता पुजवाने लगे।
परमात्मा जो हम सब का जनक है और स्वंय एक अंश के रूप में हम सब में विद्धमान है। उस की प्राप्ति केवल आत्मनियन्त्रण से ही संभव है। जब कोई भी मनुष्य अपनी बुद्धि को द्वैतभाव(तेरा/मेरा), भ्रम,भय, अज्ञानता एवमं अनस्तित्व (भाव/अभाव)को दूर कर आत्मशान्ति प्राप्त करता है तो वह सभी जीवों को स्वतः ही एक ही से उतपन्न हुआ मानता है और यही समता का भाव बिना अंह के उसे परमात्मा के दर्शन करवाता है इसमें कोई संशय नहीं।
अपनी बुद्धि पर नियंत्रण व परमात्मा पर विश्वास कर जो भी मनुष्य संसारिक कार्य करता है वह न केवल स्वंय शांति पाता है बल्कि अन्य को भी भ्रम से मुक्त करता है और परमात्मा की शक्ति को स्वंय में महसूस करता है। यहीं खोज की पूर्णता है, न कि किसी विशेष स्वरूप के दर्शनों के लिये किये गये विभिन्न प्रयास।
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