Sunday, 7 February 2016

परिवर्तन ही जीवन


शरीर कभी एकरूप रहता ही नहीं और सत्ता कभी अनेकरूप होती ही नहीं । शरीर जन्म से पहले भी नहीं था, मरने के बाद भी नहीं रहेगा तथा वर्तमान में भी वह प्रतिक्षण मर रहा है । वास्तव में गर्भ में आते ही शरीर के मरने का क्रम (परिवर्तन) शुरू हो जाता है । बाल्यावस्था मर जाएं तो युवावस्था आ जाती है, युवावस्था मर जाएं तो वृद्धावस्था आ जाती है और वृद्धावस्था मर जाएं तो देहांतर अवस्था अर्थात् दूसरे शरीर की प्राप्ति हो जाती है । ये सब अवस्थाएं शरीर की हैं । बाल, युवा और वृद्ध - ये तीन अवस्थाएं स्थूलशरीर की हैं और देहांतर की प्राप्ति सूक्ष्म शरीर तथा कारण शरीर की है । परंतु स्वरूप की चिन्मय सत्ता इन सभी अवस्थाओं से अतीत है । अवस्थाएं बदलती हैं, स्वरूप वहीं रहता है । इस प्रकार शरीर - विभाग और सत्ता - विभागको अलग - अलग जानने वाला तत्त्वज्ञ पुरुष कभी किसी अवस्था में भी मोहित नहीं होता ।
जीव अपने कर्मों का फल भोगने के लिए अनेक योनियों में जाता है, नरक और स्वर्ग में जाता है - ऐसा कहने मात्र से सिद्ध होता है कि चौरासी लाख योनियां छूट जाती हैं, स्वर्ग और नरक छूट जाते हैं, पर स्वयं (शरीरी) वही रहता है । योनियां (शरीर) बदलती हैं, जीव (शरीरी) नहीं बदलता । जीव एक रहता है, तभी को वह अनेक योनियों में, अनेक लोकों में जाता है । जो अनेक योनियों में जाता है, वह स्वयं किसी के साथ लिप्त नहीं होता, कहीं नहीं फंसता । अगर वह लिप्त हो जाएं, फंस जाएं तो फिर चौरासी लाख योनियों को कौन भोगेगा ? स्वर्ग और नरक में कौन जाएगा । मुक्त कौन होगा ?
जन्मना और मरना हमारा धर्म नहीं है, प्रत्युत शरीर का धर्म है । हमारी आयु अनादि और अनंत है, जिसके अंतर्गत अनेक शरीर उत्पन्न होते और मरते रहते हैं । जैसे हम अनेक वस्त्र बदलते रहते हैं, पर वस्त्र बदलने पर हम नहीं बदलते, प्रत्युत वे - के - वे ही रहते हैं । ऐसे ही अनेक योनियों में जाने पर भी हमारी सत्ता नित्य - निरंतर ज्यों की त्यों रहती है । तात्पर्य है कि हमारी स्वतंत्रता और असंगता स्वत: सिद्ध है । हमारा जीवन किसी एक शरीर के अधीन नहीं है । असंग होने के कारण ही हम अनेक शरीरों में जाने पर भी वहीं रहते हैं,पर शरीर के साथ संग मान लेने के कारण हम अनेक शरीरों को धारण करते रहते हैं । माना हुआ संग तो टिकता नहीं, पर हम नया - नया संग पकड़ते रहते हैं । अगर नया संग न पकड़े तो मुक्ति (असंगता), स्वाधीनता स्वत:सिद्ध है ।
जैसे शरीर कभी एकरूप नहीं रहता, प्रतिक्षण बदलता रहता है, ऐसे ही इंद्रियां - मन - बुद्धि से जिनका ज्ञान होता है, वे सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थ (मात्र प्रकृति और प्रकृति कार्य) भी कभी एकरूप नहीं रहते, उनका संयोग और वियोग होता रहता है । जिन पदार्थों को हम चाहते हैं, उनके संयोग से सुख होता है और वियोग से दु:ख होता है । जिन पदार्थों को हम नहीं चाहते, उनके वियोग से सुख होता है और संयोग से दुख होता है । पदार्थ भी आने - जाने वाले और अनित्य हैं । ऐसे ही जिनसे पदार्थों का ज्ञान होता है, वे इंद्रियों और अंत:करण भी आने - जाने वाले और अनित्य हैं और पदार्थों से होने वाला सुख - दुख भी आने - जानेवाला और अनित्य हैं । परंतु स्वयं सदा ज्यों का त्यों रहने वाला, निर्विकार तथा नित्य है । अत: उनको सह लेना चाहिए । अर्थात् उनके संयोग - वियोग को लेकर सुखी - दुखी नहीं होनी चाहिए, प्रत्युत निर्विकार रहना चाहिए । सुख - दुख दोनों अलग - अलग होते हैं, पर उनको देखने वाला एक ही होता है और उन दोनों से अलग (निर्विकार) होता है । परिवर्तनशाल को देखने से स्वयं (स्वरूप) की अपरिवर्तनशीलता (निर्विकारता) का अनुभव स्वत: होता है ।

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