भगवत धर्म अर्थात् भगवत सेवा (श्रीराम भक्ति) ही श्रीभरत जी की भी इष्ट - चर्या थी । यथा -
साधन सिद्धि राम पग नेहू । मोहि लखि परत भरत मत एहू ।।
साधन सिद्धि राम पग नेहू । मोहि लखि परत भरत मत एहू ।।
परंतु इतना अंतर था कि श्रीलखनलाल की सेवा संयोगवस्था संबंधी अर्थात् भजनरूप की थी । उनको स्वामी की सन्निधि में - हुजूरी में सेवा वियोगावस्थासंबंधी अर्थात् स्मरणरूप की थी जो उनकी इच्छा की दबा करके स्वीकार करायी गयी थी । अतएव परतंत्र सेवा का आदर्श बनने से श्रीभरत जी की निष्ठा ‘विशेषतर’ धर्म की मानी गयी है । स्वामी की आज्ञा पर ही श्रीभरत जी निर्भर हो गए थे -
अग्या सम न सुसाहिब सेवा । सो प्रसादु जन पावै देवा ।।
सो भी इस शर्त के साथ कि ‘सकुच स्वामी मन जासु न पावा ।’ श्रीभरत जी का यहीं निश्चय था कि -
जो सेवकु साहिबहि संकोची । निज हित चहइ तासु मति पोची ।।
यहीं सिद्धांत था कि -
सहज सनेहं स्वामी सेवकाई । स्वारथ छल फल चारि बिहाई ।।
इसलिए स्वामी की निस्संकोच आज्ञा ही उनका परम ध्येय था, चाहे वह लौकिक रुचि को कौन कहे, पारमार्थिक रुचि के भी प्रतिकूल क्यों न हो ! श्रीभरत जी की सेवा में इतनी विशेषता का योग अवश्य था कि उनका सेवाधर्म - ‘हित हमार सियपति सेवकाईं’ - जो श्रीलखनलाल जी की ही तरह था और जिसको उन्होंने भी अपना मुख्य धर्म माना था श्रीलखनलाल जी के सेवाधर्म के समान स्वीकार न हो सका । उन्हें वियोग की ही आज्ञा प्रदान की गयी - ‘सेवहु अवध अवधि भर जाई’ । इस आज्ञा को उन्होंने शिरोधार्य किया और नाना प्रकार के असह्य शारीरिक और मानसिक कष्टों को सहते हुए भी उसका यथावत् पालन कर दिखाया । यद्यपि भरत जी की भी ऐसी स्थिति नहीं थी कि वे श्रीराम जी का वियोग सहकर प्राण - रक्षा कर सकते -
गूढ़ सनेह भरत मन माहीं । रहें नीक मोहि लागत नाहीं ।
गूढ़ सनेह भरत मन माहीं । रहें नीक मोहि लागत नाहीं ।
तथापि स्वामी की आज्ञा के अवलंबन से प्राणों की भी रक्षा करते हुए उसका पालन किया एवं इष्टदेव की आज्ञा में बरजोरी का तनिक भी ख्याल नहीं किया, बल्कि अपने को ही अपराधी, हतभागी, कपटी और कुटिल निश्चित किया -
कपटी कुटिल मोही प्रभु चीन्हा । ताते नाथ संग नहिं लीन्हा ।।
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी । नहिं निस्तार कलप सत कोरी ।।
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी । नहिं निस्तार कलप सत कोरी ।।
यह और भी विशेषता थी । अतएव विशेषतर धर्म के अभिलाषी जनों को, जिनको कि भगवत - सान्निध्य का संयोग न होने के कारण परिचर्यादि भक्ति का सुअवसर नहीं है, श्रीभरत जी से शिक्षा लेनी चाहिए और भगवान का ध्यान करके उनकी स्मरणरूप सेवा का अनुसरण करना चाहिए । यथा -
पुलक गात हियं सिय रघुबीरू । जीह नामु जप लोचन नीरू ।।
No comments:
Post a Comment