Monday, 1 February 2016

सुनीथा की कथा (अभिभावक उपेक्षा न करें)


अभिभावकों को चाहिए कि वे अपनी संतान की संभाल में तनिक भी उपेक्षा न आने दें । इनके द्वारा की गयी थोड़ी भी उपेक्षा संतान के लिए घातक बन जाती है ।
सुनीथा मृत्यु देवता की कन्या थी । बचपन से ही वह देखती आ रही थी कि उसके पिता धार्मिकों को सम्मान देते हैं और पापियों को दण्ड । सहेलियों के साथ खेलने में प्राय: वह इन्हीं बातों अनुकरण किया करती थी । एक बार वह सहेलियों के साथ खेलती हुई दूर निकल गयी । वहाम एक सुंदर गंधर्व कुमार सरस्वती की आराधना में लीन था । उस पर दृष्टि पड़ते ही सुनीथा उस पर कोड़े बरसाने लगी । भोलेपन से इसे वह खेल ही समझती रही । वह प्रतिदिन आती और निरपराध गंधर्व कुमार को सताती । एक दिन गंधर्व कुमार को क्रोध हो गया, वह बोला - ‘भले लोग मारने वाले को मारते नहीं और गाली देने वाले को गली नहीं देते । यहीं धर्म की मर्यादा है ।’
सुनीथा में सत्यवादिता आदि सभी गुण कूट - कूटकर भरे थे । उसने अपने पिता से सारी घटना ज्यों की त्यों सुना दी । भोली होने से वह गंधर्व कुमार की बातें समझ न पाती थी, उन्हें समझाने के लिए उसने पिता जी से आग्रह किया । मृत्यु ने अपनी पुत्री की जिज्ञासा पर चुप्पी साध ली, जो अच्छी न थी । पुराण ने इसे ‘दोष’ माना है, क्योंकि मारनेवाले को मारना नहीं चाहिए और गाली देने वाले को गाली नहीं देनी चाहिए - इन वाक्यों का अर्थ जो बच्ची नहीं समझ पाती और अभिभावक से समझना चाहती है, उसे न समझना अवश्य अनर्थकारक हो सकता है । हुआ भी ऐसा ही पिता के चुप्पी साध लेने से सुनीथा का वह पापचार रुका नहीं । सखियों के साथ गंधर्व कुमार के पास जाना और कोड़ों से उसे पीटना उसका प्रतिदिन का कार्य हो गया । कोई कब तक सहेगा ! एक दिन गंधर्वकुमार ने शाप देते हुए कहा - ‘विवाह हो जाने पर तुम्हारे गर्भ से ऐसा पुत्र उत्पन्न होगा जो देवताओं एवं ब्राह्मणों की निंदा किया करेगा और घोर पापाचार में लग जाएंगा ।’
इस बार भी सुनीथा ने सच - सच बातें पिता को सुना दी । शाप की बात सुनकर पिता को बहुत दु:ख हुआ । उन्होंने इस बार समझाया - ‘निर्दोश तपस्वी को पीटना अच्छा काम नहीं है । ऐसा तुमने क्यों किया ? तुमसे भारी पाप हो गया है । तुम्हें शाप भी लग गया है । अत: अब तुम पुम्य - कर्मों का अनुष्ठान करो, सत्संगति करो और विष्णु के ध्यान में लग जाओ ।’
वयस्क होने पर पिता को सुनीथा के विवाह की चिंता हुईं ।वे अपनी कन्या को साथ लेकर देवताओं और मुनियों के पास गए । सबका एक ही उत्तर था - ‘इससे जो संतान होगी, वह भयानक पापी होगी । अत: हम इसे स्वीकार न करेंगे ।’ इस तरह शाप के कारण सुनीथा का विवाह ही रुक गया । अब तपस्या के अतिरिक्त सुनीथा के पासऔर कोई उपाय न था । वह पिता की आज्ञा से वन में जाकर तपस्या करने लगी, किंतु चिंता उसका पिण्ड छोड़ना नहीं चाहती थी ।
रम्भा आदि अप्सराएं सुनीथा की सखियां थीं । वे उसकी सहायता के लिए आ पहुंची । उन्होंने सुनीथा को ढाढ़स बंधाया । रंभा ने उसे पुरुषों को मोहित करने वाली विद्या दी । सुनीथा ने उसका अच्छा अभ्यास कर लिया । जब वह विद्या सिद्ध हो गयी तब सखियां सुनीथा को लेकर वर की खोज में निकल पड़ीं । ढूंढ़ते ढूंढ़ते वे गंगा के तट पर पहुंची । वहां सुनीथा की दृष्टिअंग नामक रूपवान, तेजस्वी अत्रिमुनि के पुत्र पर पड़ी जो वहां तपस्या कर रहे थे, उन्हें देखते ही सुनीथा मोहित हो गयी । रंभा तो यहीं चाहती थी । रंभा उस तपस्वी के इतिहास से सुपरिचित थी, जानती थी कि अत्रि - पुत्र अंग इंद्र के समान वैभवशाली और विष्णु के समान पुत्र के पाने का वरदान पा चुका है । हो सकता था कि इस वरदान के प्रभाव से सुनीथा को मिला शाप प्रभावहीन हो जाएं । अत: सुनीथा का उस पर मोहित होना उसे बहुत अच्छा लगा । अब रहा उस ब्राह्मणकुमार का सुनीथा पर आसक्त होना, वह तो सुनीथा के लिए बाएं हाथ का खेल था, क्योंकि यह विद्या उसे सिद्ध थी ।
रंभा ने माया का भी प्रयोग किया । सुनीथा तो अत्यंत रूपवती थी ही, रंभा की माया ने उसमें और चार चांद लगा दिए । अब उसकी तुलना संसार में नहीं रह गयी थी । उसका यौवन भी अद्वितीय हो गया । उसके गीतों में सौ - सौ आकर्षण भर उठे । सुनीथा झूले पर बैठकर संगीत गाने लगी । सुनते ही अंग का ध्यान टूट गया । वे खिंचे हुए से स्वर के उद् गम की ओर बढ़ते चले गए । सुनीथा पर जब उनकी दृष्टि पड़ी तो उनके हाथ - पैर शिथिल हो आएं । वे तन मन से उसे चाहने लगे और अपने को संभाल कर बोले - ‘सुंदरी ! तुम कौन हो ?’ सुनीथा चुप रही । रंभा आगे आकर बोली - महोदय ! यह मृत्यु की कन्या है । इसमें सब शुभ लक्षम मिलते हैं । यह पति की खोज में निकली है । हम लोग इसकी सखियां हैं । रंभा के अनुकूल वचन सुनकर अत्रिकुमार ्ंग को बहुत संतोष हुआ । उनकी अकुलाहट कुछ कम हो गयी । उन्होंने अपने पवित्र कुल की प्रशंसा की और बतलाया कि मैंने विष्णुभगवान से यह वरदान प्राप्त कर लिया है कि मुझे ‘इंद्र सा ऐश्वर्यशाली और विष्णु के समान विश्व का पालन करने वाला पुत्र प्राप्त हो, किंतु योग्य कन्या न मिलने से अब तक मैंने विवाह नहीं किया है । यह कुलीन कन्या यदि मुझे ही वरण कर ले तो इसे अदेय वस्तु भी दे सकता हूं ।’
रंभा तो यहीं चाहती थी, अत: बोली - ‘हमलोग भी योग्य वर की ही खोज में हैं । यदि आप चाहते हैं तो सुनीथा आपकी धर्मभार्या बन रही है, किंतु याद रखें, आप इससे सदा प्यार करते रहें, इसके दोष - गुणों पर कभी ध्यान न दें । आप इस बाल का प्रत्यक्ष विश्वास दिलाइये । इस बात की प्रतीति के लिए अपना हाथ सुनीथा के हाथ में दीजिये ।’ अंग को रंभा की ये बातें भगवान के वरदान की तरह प्रिय लग रही थीं । उन्होंने अपना हाथ सुनीथा के हाथ पर रख दिया । इस तरह दोनों को गांधर्व विवाह के द्वारा जोड़कर रंभा बहुत संतुष्ट हुई और विदा मांग कर अपनी सखियों के साथ घर वापस आ गयी ।
वरदान के प्रभाव से सुनीथा का पुत्र सभी लक्षणों से सम्पन्न हुआ । पुत्र का नाम वेन रखा गया । अत्रि के वंश के अनुरूप इस बच्चे ने वेद, दर्शन आदि सारी विद्याओं में निपुणता प्राप्त कर ली । धनुर्वेद में भी यह निष्णात हो गया । शील - सौजन्य ने इसकी सुंदरता में निखार ला दिया था । वेन में अद्भुत तेज था । आचार - विचार में कोई उसकी समता नहीं कर पाता था ।
उस समय वैवस्वत मन्वंतर था । राजा के बिना प्रजा को कष्ट होने लगा था । विश्वभर में वेन का प्रभाव उद्दीप्त था । वेन के समकक्ष और कोई तरुण न था । सबने मिलकर उसे प्रजापति के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया । वेन के राज्य में चतुर्दिक सुख - शांति प्रतिष्ठित हो गयी । सभी संतुष्ट और सुखी थे । धर्म की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही थी ।
बहुत दिनों से गंधर्व रुमार का शाप वेन पर अपना प्रभाव प्रकट करना चाह रहा था, किंतु अनुकूल परिस्थिति न पाकर दबा हुआ था । संयोग से वेन की एक घोर नास्तिक से भेंट हो गयी । इस संसर्ग से शाप को पनपने का अवसर मिल गया । नास्तिकता का प्रभाव उस पर उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया । थोड़े ही दिनों में वेन घोर नास्तिक बन बैठा । वेद, पुराण, स्मृति आदि शास्त्र उसे जाल ग्रंथ दिखने और ब्राह्मण बहुत बड़े वञ्चक । माता - पिता के सामने सिर झुकाना भी उसे बुरा लगने लगा । वेन समर्थ तो था ही , उसने संपूर्ण वैदिक क्रिया कलापों पर रोक लगा दी । राज्य में धर्म का लोप हो गया । पाप जोरों से बढ़ने लगा ।
पिता अंग अपने पुत्र का यह घोर अत्याचार देखकर बहुत दु:खी हो गये । उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि भगवान विष्णु का वह वरदान विफल कैसे हो रहा है ! वे शाप की बात नहीं जानते थे । सुनीथा सब बातें समझ तो रही थी, किंतु उसे खोलना नहीं चाहती थी । अत्रिकुमार अंग ने पुत्र को समझा - बुझाकर रास्ते पर लाना चाहा, पर उन्हें सफलता नहीं मिली ।
इसी बीच सप्तर्ष आये । अब वरदान को चेतने का अवसर आ गया था । सप्तर्षियों ने बहुत प्यार से वेन को समझाते हुए कहा - ‘वेन ! दु:साहस छोड़ दो । अपने पुराने रास्ते पर आ जाओ । सारी जनता तुम पर अवलंबित है । धर्म के पथ पर लौट आओ और प्रजा पर अत्याचार करना बंद कर दो ।’
किंतु अहंकार की मूर्ति वेन ने सप्तर्षियों को फटकारते हुए कहा - ‘मैं ज्ञानियों का ज्ञानी हूं ।विश्व का ज्ञान मेरा ही ज्ञान है । जो मेरी आज्ञा के विरुद्ध चलता है, उसे मैं कठोर दण्ड देता हूं । आप लोग भी मेरा भजन करें ।’
ऋषियों ने जब वेन के इस रोग को असाध्य समझा और उसके पाप को बलपूर्वक निकालना चाहा, तब झट उन्होंने वेन को पकड़ लिया और उसके बायें हाथ को भलीभांति मथा । फलस्वरूप इस हाथ से एक काला - कलूटा और नाटा पुरुष उत्पन्न हुआ । उस पुरुष के रूप में वेन का सब पाप निकल गया । यह देख ऋषि बहुत प्रसन्न हुए । अब उन्होंने वेन के दाहिने हाथ को मथा । इससे अपने वरदान को फलीभूत करने के लिए भगवान विष्णु ही पृथु के रूप में प्रकट हुए ।
पाप के निकलते ही वेन की नास्तिकता भी पूरी तरह निकल गयी थी । सप्तर्षियों की कृपा से वेन ने अपनी पहली अवस्था प्राप्त कर ली थी । वे नर्मदा के तट पर चले गये । तृणविंदु के आश्रम में रहकर उन्होंने घोर तपस्या की । भगवान ने उन्हें दर्शन दिया और उन्हें आश्वस्त करने के लिए कहा - ‘वत्स ! तुम्हारी मां को जो शाप मिला थया, उससे तुम्हारा उद्धार करने के लिए ही मैंने तुम्हारे पिता को सुयोग्य पुत्र प्राप्त होने का वहदान दिया था । अब तुम घर लौट जाओ । पृथु की सहायता से अश्वमेध आदि यज्ञ और विविध दान - उपदान कर मेरे लोक में आना ।’

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