प्राचीन काल की बात है । रैवत - मंवतर में वेदमालि नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण रहते थे, जो वेदों और वेदांगों के पारदर्शी विद्वान थे । उनके मन में संपूर्ण प्राणियों के प्रति दया भरी हुई थी । वे सदा भगवान की पूजा में लगे रहते थे, किंतु आगे चलकर वे स्त्री, पुत्र और मित्रों के लिए धनोपार्जन करने में संलग्न हो गये । जो वस्तु नहीं बेचनी चाहिए, उसे भी वे बेचने लगे । उन्होंने रस का भी विक्रय किया । वे चाण्डाल आदि से भी दान ग्रहण करते थे । उन्होंने पैसे लेकर तपस्या और व्रतों का विक्रय किया और तीर्थयात्रा भी वे दूसरों के लिए ही करते थे । यह सब उन्होंने अपनी स्त्री को संतुष्ट करने के लिए ही किया । इसी तरह कुछ समय बीत जाने पर ब्राह्मण के दो जुड़वे पुत्र हुए, जिनका नाम था यज्ञमाली और सुमाली । वे दोनों बड़े सुंदर थे । तदनंतर पिता उन दोनों बालकों का बड़े स्नेह और वात्यल्य से अनेक प्रकार के साधनों द्वारा पालन पोषण करने लगे । वेदमालिने अनेक उपायों से यत्नपूर्वक धन एकत्र किया ।
एक दिन मेरे पास कितना धन है यह जानने के लिए उन्होंने अपने धन को गिनना प्रारंभ किया । उनका धन संख्या में बहुत ही अधिक था । इस प्रकार धन की स्वयं गणना करके वे हर्ष से फूल उठे । साथ ही उस अर्थ की चिंता से उन्हें बड़ा विस्मय भी हुआ । वे सोचने लगे - ‘मैंने तुच्छ पुरुषों से दान लेकर, न बेचने योग्य वस्तुओं का विक्रय करके तथा तपस्या आदि को भी बेचकर यह प्रचुर धन पैदा किया है, किंतु मेरी अत्यंत दु:सह तृष्णा अब भी शांत नहीं हुई । अहो ! मैं तो समझता हूं, यह तृष्णा बहुत बड़ी कष्टप्रदा है, समस्त क्लेशों का कारण भी यहीं है । इसके कारण मनुष्य यदि समस्त कामनाओं को प्राप्त कर ले तो भी पुन: दूसरी वस्तुओं की अभिलाषा करने लगता है । जरावस्था (बुढ़ापे) में आने पर मनुष्य के केश पक जाते हैं, दांत गल जाते हैं, आंख कान भी जीर्ण हो जाते हैं, किंतु एक तृष्णा ही तरुण सी होती जाती है । मेरी सारी इंद्रियां शिथिल हो रही हैं, बुढ़ापे ने मेरे बल को भी नष्ट कर दिया, किंतु तृष्णा तरुणी मौजूद है, वह विद्वान होने पर भी मूर्ख, परम शांत होने पर भी अत्यंत क्रोधी और बुद्धिमान होने पर भी अत्यंत मूढ़बुद्धि हो जाता है । आशा मनुष्यों के लिए अजेय शभु की भांति भयंकर है, अत: विद्वान पुरुष यदि शाश्वत सुख चाहे तो आशा को त्याग दे । बल हो, तेज हो, विद्या हो, यश हो, सम्मान हो, नित्य वृद्धि हो रही हो और उत्तम कुल में जन्म हुआ हो तो भी यदि मन में आशा एवं तृष्णा बनी हुई है तो वह बड़े वेग से इन सब पर पानी फेर देती है । मैंने बड़े क्लेश से यह धन कमाया है । अब मेरा शरीर भी गल गया । अत: अब मैं उत्साहपूर्वक परलोक सुधारने का यत्न करुंगा ।’ ऐसा निश्चय करके वेदमालि धर्म के मार्ग पर चलने लगे । उन्होंने उसी क्षण सारे धन को चार भागों में बांटा । अपने द्वारा पैदा किये उस धन में से दो भाग तो ब्राह्मण ने स्वयं रख लिए और शेष दो भाग दोनों पुत्रों को दे दिए । तदनंतर अपने किये हुए पापों का नाश करने की इच्छा से उन्होंने जगह जगह पौंसले, पोखरे, बगीचे और बहुत से देवमंदिर बनवाये तथा गंगाजी के तटपर अन्न आदि का दान भी किया ।
इस प्रकार संपूर्ण धन का दान करके भगवान विष्णु के प्रति भक्ति भाव से युक्त हो वे तपस्या के लिए नर नारायण के आश्रम बदरीवन में गये । वहां उन्होंने एक अत्यंत रमणीय आश्रम देखा, जहां बहुत से ऋषि मुनि रहते थे । फल और फूलों से भरे हुए वृक्षसमूह उस आश्रम की शोभा बढ़ा रहे थे । शास्त्र - चिंतन में तत्पर, भगवत्सेवापरायण तथा परब्रह्म परमेश्वर की स्तुति में संलग्न अनेक वृद्ध महर्षि उस आश्रम की श्रीवृद्धि कर रहे थे । वेदमालिने वहां जाकर जानंति नामवाले एक मुनि का दर्शन किया, जो शिष्यों से घिरे बैठे थे और उन्हें परब्रह्म तत्त्व का उपदेश कर रहे थे । वे मुनि महान तेज के पुञ्ज से जान पड़ते थे ।
उनमें शम, दम आदि सभी गुण विराजमान थे और राग आदि दोषों का सर्वथा अभाव था । वे सुखे पत्ते खाकर रहा करते थे । वेदमालिने मुनि को देखकर उन्हें प्रणाम किया । जानंति ने कंद, मील और फल आदि सामग्रियों द्वारा नारायण बुद्धि से अतिथि वेदमालिका पूजन किया । अतिथि सत्कार हो जाने पर वेदमालिने हाथ जोड़ विनय से मस्तक झुकाकर वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षि से कहा - ‘भगवान ! मैं कृतकृत्य हो गया । आज मेरे सब पाप दूर हो गये । महाभाग ! आप विद्वान हैं, अत: ज्ञान देकर मेरा उद्धार कीजिए ।’
वेदमालिके ऐसा कहने पर मुनिश्रेष्ठ जानंति बोले - ‘ब्रह्मन ! तुम प्रतिदिन सर्वश्रेष्ठ भगवान विष्णु का भजन करो । सर्वशक्तिमान श्रीनारायण का चिंतन करते रहो । दूसरों की निंदा और चुगली कभी न करो । महीमते ! सदा परोपकार में लगे रहो । भगवान विष्णु की पूजा में मन लगाओ और मूर्खों से मिलना जुलना छोड़ दो । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य छोड़कर लोक को अपने आत्मा के समान देखो, इससे तुम्हें शांतु मिलेगी । ईर्ष्या, दोषदृष्टि तथा दूसरे की निंदा भूलकर भी न करो । पाखंडपूर्ण आचार, अहंकार और क्रूरता का सर्वथा त्याग करो । सब प्राणियों पर दया तथा साधु पुरुषों की सेवा करते रहो । अपने किये हुए धर्मों को पूछने पर भी दूसरों पर प्रकट न करो । दूसरों को अत्याचार करते देखो, यदि शक्ति हो तो उन्हें रोको, असावधानी न करो । अपने कुटुंब का विरोध न करते हुए सदा अतिथियों का स्वागत सत्कार करो । पत्र, पुष्प, फल, दूर्वा और पल्लवों द्वारा निष्काम भाव से जगदीश्वर भगवान नारायण की पूजा करो । देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का विधिपूर्वक तर्पण करो । विप्रवर ! विधिपूर्वक अग्नि की सेवा भी करते रहो । देवमंदिर में प्रतिदिन झाड़ू लगाया करो और एकाग्रचित्त होकर उसकी लिपाई - पुताई भी किया करो । देवमंदिर की दीवार में जहां कहीं टूट - फूट गया हो, उसकी मरम्मत कराते रहो । मंदिर में प्रवेश का जो मार्ग हो, उसे पताका और पुष्प आदि से सुशोभित करो तथा भगवान विष्णु के गृह में दीपक जलाया करो । प्रतिदिन यथाशक्ति पुराण की कथा सुनो । उसका पाठ करो और वेदांत का स्वाध्याय करते रहो । ऐसा करने पर तुम्हें परम उत्तम ज्ञान प्राप्त होगा । ज्ञान से समस्त पापों का निश्चय ही निवारण एवं मोक्ष हो जाता है ।’
जानंति मुनि के इस प्रकार उपदेश देने पर परम बुद्धिमान वेदमालि उसी प्रकार ज्ञान के साधन में लगे रहे । वे अपने - आप में ही परमात्मा भगवान अच्युत का दर्शन करके बहुत प्रसन्न हुए । ‘मैं ही उपाधिरहित स्वयंप्रकाश निर्मल ब्रह्म हूं’ - ऐसा निश्चय करने पर उन्हें परम शांति प्राप्त हुई ।
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