Wednesday, 17 February 2016

महामृत्युञ्जय - भगवान शिव का अवतार


‘आज आप बहुत दु:खी और उदास दिख रहे हैं ।’ महामुनि मृगश्रृंग के पौत्र श्रीमार्कण्डेय ने अपने पूज्य पिता को चिंतित देखकर अत्यंत विनम्रता से कहा । ‘इसका क्या कारण है ? आपको चिंतित देखकर मेरा हृदय व्याकुल हो रहा है ।’
‘बेटा ! महामहिम मृकण्डु ने दु:खी से श्रीमार्कण्डेय जी के मुख की ओर देखते हुए अतिशय सेनेह से बताया ।’ तुम्हारी माता मरुद्वती को कोई संतान न होने से मैंने उसके साथ तपस्या और नियमों का पालन करते हुए पिनाकधारी शिव को प्रसन्न किया । आशुतोष ने प्रकट होकर मुझे पुत्र प्राप्ति का वर दिया, किंतु तुम्हारी आयु मात्र सोलह वर्ष की दी । शशांक शेखर अंतर्धान हो गये । कुछ समय के अनन्तर तुम्हारा जन्म हुआ । भोलेनाथ के वरप्राप्त पुत्र होने से तुममें अद्भुत गुण विद्यमान हैं । तुमसे हम दंपति अत्यंत सुख का अनुभव करते हैं, अपने को गौरवांवित समझते हैं ।’ कुछ रुककर कातर स्वर में श्रीमृकण्डु मुनि ने पुन: कहा - ‘अब तुम्हारा सोलहवां वर्ष समाप्त हो चला है ।’
‘आप मेरे लिए चिंता न करें ।’ श्रीमार्कण्डेय ने अत्यंत गंभीरता से पिता को आश्वस्त करने के लिए विनम्रता के साथ कहा । ‘भगवान आशुतोष कल्याणस्वरूप एवं अभीष्ट फलदाता हैं । मैं उनके मंगलमय चरणों का आश्रय लेकर और उनकी उपासना करके अमरत्व प्राप्त करने का प्रयत्न करूंगा ।’
श्रीमार्कण्डेय जी माता पिता के चरणों की धूलि मस्तक पर रख भगवान शंकर का स्मरण करते हुए दक्षिण समुद्र के तट पर पहुंचे और वहां उन्होंने अपने ही नाम पर (मार्कण्डेयेश्वर) शिवलिंग की स्थापना की तथा त्रिकालस्नान करके बड़ी ही श्रद्धा - भक्ति से मृत्युञ्जयस्तोत्र के द्वारा भगवान मृत्युञ्जय की उपासना करने लगे । भगवान शंकर तो आशुतोष ठहरे । उक्त स्तोत्र से एक ही दिन में प्रसन्न हो गये । श्रीमार्कण्डेय पार्वतीश्वर पर समर्पित हो गये । मृत्यु के दिन श्रीमार्कण्जेय अपने आराध्य की पूजा करके स्तोत्र पाठ करना ही चाहते थे कि चौंक गये । उनके कोमल कण्ठ में कठोर पाश पड़ गया । उन्होंने दृष्टि उठाकर देखा तो सम्मुख भयानक काल खड़े थे ।
‘महामते काल !’ श्रीमार्कण्डेय ने निवेदन किया । मैं अपने प्राणप्रिय मृत्युञ्जयस्तोत्र का पाठ कर लूं, इतना अवसर आप मुझे दे दें । काल किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, ब्रह्मन ! काल ने बड़े रोष से कहा । तुम्हारे लिए भी समय नहीं है ।
आह ! काल ने नेत्र लालकर श्रीमार्कण्डेय का प्राण हरण करने के लिए पाश खींचना ही चाहा कि वे दूर जा गिरे । पीड़ा से छटपटाने एवं भय से कांपने लगे । उस शिवलिंग से साक्षात् भूतभावन भगवान शंकर ने प्रकट होकर अत्यंत क्रोध से काल के वक्ष में कठोर पदाघात किया था ।
काल की दुर्दशा एवं अपने आराध्य का अनुपम रूप लावण्य देखकर श्रीमार्कण्डेय की प्रसन्नता की सीमा नहीं रही । वे उनकी अवर्णनीय सौंदर्यराशि को देखते हुए स्तुति करने लगे । श्रीमार्कण्डेय जी की इस स्तुति से प्रसन्न होकर देवाधि देव महादेव जी ने उन्हें अमरत्व प्रदान कर दिया ।

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