Saturday, 27 February 2016

मोक्ष संन्यासिनी गोपियां


कुछ लोग प्रतिदिन सकामोपासना कर मनवाञ्छित फल चाहते हैं, दूसरे कुछ लोग यज्ञादि के द्वारा स्वर्ग की तथा (कर्म और ज्ञान) योग आदि के द्वारा मुक्ति के लिए प्रार्थना करते हैं, परंतु हमें तो यदुनंदन श्रीकृष्ण के चरणयुगलों के ध्यान में ही सावधानी के साथ लगे रहने की इच्छा है । हमें उत्तम लोक से, दम से, राजा से, स्वर्ग से और मोक्ष से क्या प्रयोजन है ?
सच्चिदानंदनघन परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण की वृंदावनलीला अति मधुर है, आकर्षण है, अद्भुत है और अनिर्वचनीय है । वहां सभी कुछ विचित्र है, चराचर सभी प्राणी श्रीकृष्ण प्रेम में निमग्न हैं, इनमें भी गोपी प्रेम तो सर्वथा अलौकिक और अचिन्त्य है । वहां वाणी की गति ही नहीं है, मन भी उस प्रेम की कल्पना नहीं कर सकता । करे भी कैसे, उसकी वहां तक पहुंच ही नहीं है । मनुष्य प्रेम की कितनी ही ऊंची से ऊंची कल्पना क्यों न करें, वह उस कल्पनातीत भगवत प्रेम के एक कण के बराबर भी नहीं है । उस गुणातीत अप्राकृत ‘केवल प्रेम की’ कल्पना गुणों से निर्मित प्राकृत मन कर ही कैसे सकता है ? इस अवस्था में सच्चिदानंदघन भगवान श्रीकृष्ण का सच्चिदानंदमयी गोपिका नाम धारिणी अपनी ही छाया - मूर्तियों से जो दिव्य अप्राकृत प्रेम था, उसका वर्णन कौन कर सकता है ? अबतक जितना वर्णन हुआ है, वह प्राय: अपनी अपनी विभिन्न भावनाओं के अनुसार ही हुआ है । इस प्रेम का असली स्वरूप तो यत्किञ्चित उसी के समझमें आ सकता है, जिसको प्रेमघन श्रीकृष्ण समझाना चाहते हैं, पर जो उसे समझ लेता है, वह तत्क्षण गोपी बन जाता है, इसलिए वह फिर उसका वर्णन कर नहीं सकता । वास्तव में वह वर्णन की वस्तु भी नहीं है । श्रीकृष्ण और गोपी दो स्वरूपों में एक ही वस्तु है, वह एक दूसरे का रहस्य समझते हैं और मनमानी लीला करते हैं । गोपियों के प्राण और श्रीकृष्ण में तथा श्रीकृष्ण के प्राम और गोपियों में कोई अंतर नहीं रह जाता - वे परस्पर अपने आप ही अपनी छाया को देखकर विमुग्ध होते हैं और सबको मोहित करते हैं । गोपियां कहती हैं -
कान्ह भये प्रानमय प्रान भये कान्हमय, 
हिय में न जानि परै कान्ह है कि प्रान है ।
और भगवान अपने इस तरह के भक्त के लिए कहते हैं कि वह तो मेरा आत्मा ही है । ‘आत्मैव मे मतम् ।’ आत्मा क्या है, वह उससे भी अधिक प्यारा है - मुझे ब्रह्मा, संकर्षण, लक्ष्मी एवं अपना आत्मा भी उतना प्रिय नहीं हैं, जितना अनन्य भक्त प्रिय है । क्योंकि मेरा ऐसा भक्त मुझमें ही संतुष्ट है । उसे मेरे सिवा कुछ भी नहीं चाहिए ।
‘श्रीभगवान कहते हैं, हे अर्जुन ! गोपियां अपने अंगों की संहाल इसलिए करती हैं कि उनसे मेरी सेवा होती है, उन गोपियों को छोड़कर मेरा निगूढ़ प्रेमपात्र और कोई नहीं है । वे मेरी सहायिका हैं, गुरु हैं, शिष्या हैं, दासी हैं, बंधु हैं, प्रेयसी हैं, कुछ भी कहो सभी हैं, मैं सच कहता हूं कि गोपियां मेरी क्या नहीं हैं । हे पार्थ ! मेरा माहात्म्य, मेरी पूजा, मेरी श्रद्धा और मेरे मनोरथ को तत्त्व से केवल गोपियां ही जानती हैं, और कोई नहीं जानता !’
अमृत चाहे विष का काम कर दे, शीतल जल चाहे जगत को भस्म कर दे परंतु श्रीकृष्ण प्रेमी भक्त से दुष्ट कर्म कदापि नहीं हो सकता । अतएव, गोपियों के कार्यों में पाप देखना हमारे चित्त की पापमयी वृत्ति का ही फल है । थोड़ी दूरपर बातें करते हुए जवान बहन - भाई की निर्दोष हंसी और बातचीत में भी कामी को काम के दर्शन होते हैं । इसी प्रकार हम भी गोपीप्रेम में काम देखते हैं । वास्तव में वहां तो काम था नहीं, गोपीप्रेम के सच्चे अनुयायियों में भी काम - गंध का नाश हो जाता है । श्रीचैतन्य महाप्रभु इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । उनके मन या नेत्रों के सामने दूसरी चीज न तो ठहरती है और न आती ही है ।
गोपी प्रेम विलक्षण है, उसमें ‘श्रृंगार’ है पर ‘राग’ नहीं है; ‘भोग’ है पर ‘अंगसंयोग’ नहीं है; ‘आसक्ति’ है पर ‘अज्ञान’ नहीं है, ‘वियोग’ है पर ‘विछोह’ नहीं है, ‘क्रंदन’ है पर ‘दु:ख’ नहीं है; ‘विरह’ है पर ‘वेदना’ नहीं है; ‘सेवा’ है पर ‘अभिमान’ नहीं है; ‘मान’ है पर ‘धैर्य’ नहीं है; ‘त्याग’ है पर ‘संन्यास’ नहीं है; ‘प्रलाप’ है पर ‘बेहोशी’ नहीं है; ‘ममता’ है पर ‘मोह’ नहीं है; ‘अनुराग’ है पर ‘कामना’ नहीं है, ‘तृप्ति’ है पर ‘अनिच्छा’ नहीं है, ‘सुख’ है पर ‘स्पृहा’ नहीं है; ‘देह’ है पर ‘अहं’ नहीं है; ‘जगत’ है पर ‘माया’ नहीं है; ‘ज्ञान’ है पर ‘ज्ञानी’ नहीं है; ‘ब्रह्म’ है पर ‘निर्गुण’ नहीं है; ‘मुक्ति’ है पर ‘लय’ नहीं है ।
भगवान श्रीकृष्ण और गोपियों की यह परम भाव की रासलीला नित्य है, प्रत्येक युग में है, आज भी होती है, प्रत्येक युग के अधिकारी संतानों इसे देखा है, अब भी अधिकारी देखते हैं, देख सकते हैं । यदि इस प्रकार के प्रेम की तनिक भी झांकी देखकर धन्य होना चाहते हो, यदि इस अचिन्त्य प्रेमार्णवका कोई एक विंदु प्राप्त करना चाहते हो तो भोग और मोक्ष की अभिलाषा को छोड़ दो । श्रीकृष्ण में अपना चित्त जोड़ दो, प्राण खोलकर रोओ, उनके नाम और रूपपर आसक्त हो जाओ । उनकी कृपा होगी और तुम्हें प्रेम मिलेगा, तुम कृतार्थ हो जाओगे । सबको कृतार्थ कर दोगे ! यह निश्चय रखो !
जदपि जसोदा नंद अरु ग्वालबाल सब धन्य ।
पै या जग में प्रेम को गोपी भईं अनन्य ।।

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