Thursday, 4 February 2016

गंगावतार - भगवान शिव के अवतार Ganga Sagar


पूर्वकाल में अयोध्या में सागर नामक एक परम प्रतापी राजा राज्य करते थे । उनके एक रानी से एक तथा दूसरी से साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए । कुछ काल के बाद महाराज सगर के मन में अश्वमेध - यज्ञ करने की इच्छा हुई । राजा सगरने यज्ञीय अश्व की रक्षा का बार अपने पौत्र अंशुमान को सौंपकर यज्ञ प्रारंभ कर दिया । परंतु पर्व के दिन राजा सगर के यज्ञीय घोड़े को राक्षस का रूप धारण करके इंद्र ने चुरा लिया और उसे भगवान कपिल मुनि के आश्रम के पास छोड़ दिया । राजा सगर के साठ हजार पुत्र पृथ्वी को खोदते हुए तथा घोड़े का पता लगाते हुए कपिल मुनि के आश्रम पर पहुंचे । महाराज सगर का यज्ञीय अश्व भी वहीं चर रहा था । भगवान कपिल को ही चोर समझकर सगर पुत्रों को अत्यंत क्रोध हुआ । वे कपिल मुनि को दुर्वचन कहते हुए उन्हें मारने के लिए दौड़े । भगवान कपिल ने एक ही हुंकार से उन्हें जलाकर भस्म कर दिया । तदनंतर अपने चाचाओं का पता लगाते हुए राजकुमार अंशुमान कपिल मुनि के आश्रम पर पहुंचे, जहां सगर के साठ हजार पुत्र कपिल मुनि की क्रोधाग्नि में जलकर राख के ढेर हुए पड़े थे ।
महातेजस्वी अंशुमान ने उनको जलाञ्जलि देने के लिए जल की इच्छा की, किंतु वहां कहीं भी कोई जलाशय नहीं दिखायी दिया । उसी समय उन्हें पक्षिराज गरुड़ दिखायी दिए । उन्होंने अंशुमान से कहा - ‘नरश्रेष्ठ ! सामान्य जलाञ्जली से तुम्हारे चाचाओं का उद्धार नहीं होगा । हिमवान की ज्येष्ठ पुत्री गंगा जी को इस पृथ्वी पर लाने का प्रयत्न करो और उन्हीं के पवित्र जल से अपने चाचाओं का तर्पण करो । जिस समय लोकपावनी गंगा राख के ढेर बने हुए साठ हजार राजकुमारों को अपने जल से तृप्त करेंगी, उसी समय वे उन सबको स्वर्ग पहुंचा देंगी ।’
अंशुमान घोड़ा लेकर लौट आएं । बहुत प्रयत्न करने के बाद भी वे गंगा जी को पृथ्वी पर न ला सके । आगे चलकर उनके वंश में भगीरथ उत्पन्न हुए । वे राज्य का भार अपने मंत्रियों को सौंप कर गंगा जी को पृथ्वी पर लाने के लिए गोकर्ण - तीर्थ में बड़ी भारी तपस्या करने लगे ।
भगीरथ की हजारों वर्ष की कठोर तपस्या के बाद लोकपितामह ब्रह्मा ने वहां आकर कहा - ‘महाराज भगीरथ ! तुम्हारी तपस्या से मैं परम प्रसन्न हूं । तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो । मैं तुम्हें गंगा जी को दे सकता हूं, परंतु हिमवान की ज्येष्ठ पुत्री गंगा जी को धारण करने की शक्ति भगवान शंकर के अतिरिक्त और किसी के भी पास नहीं है ।तुम्हें गंगा के इस महान वेग को रोकने के लिए भगवान रुद्र की तपस्या करनी चाहिए ।’ ऐसा कहकर ब्रह्मा जी अंतर्धान हो गये ।
ब्रह्मा जी के चले जाने पर राजा भगीरथ पृथ्वी पर अंगूठे के अग्नभाग को टिकाकर लगातार एक वर्ष तक भगवान शंकर की कठोर तपस्या करते रहे । वर्ष भर बाद सर्वलोकवंदित उमावल्लभ भगवान पशुपति प्रकट हुए । उन्होंने भगीरथ से कहा ‘नरश्रेष्ठ ! मैं तुम पर परम प्रसन्न हूं । मैं तुम्हारा प्रिय कार्य अवश्य करूंगा । मैं गिरिराज कुमारी गंगा को अपने मस्तक पर धारण करके तुम्हारे पूर्वजों के साथ साथ संपूर्ण प्राणियों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करूंगा ।’
भगवान शंकर की स्वीकृति मिल जाने के बाद हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगा जी बड़े ही प्रबल वेग से आकाश से भगवान शंकर के मस्तक पर गिरीं । उस समय गंगा जी के मन में भगवान शंकर को विजित करने की प्रबल इच्छा थी । भगवान शंकर का विवाह पार्वती जी से होने के कारण रिश्ते में वे भगवान शंकर की बड़ी साली हैं । इन्होंने ही देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शंकर के वीर्य को धारण करके कार्तिकेय को जन्म दिया था । गंगा जी का विचार था कि मैं अपने प्रबल वेग से भगवान शंकर को लिए दिए पाताल में घुस जाऊंगी ।
गंगा जी के इस अहंकार को भांपकर त्रिनेत्र धारी शिव जी कुपित हो उठे और उन्होंने गंगा जी को अदृश्य करने का विचार किया । वैसे भी गंगा जी भक्ति की प्रतीक हैं और भक्ति में अहंकार सबसे बड़ा बाधक तत्त्व है । भगवान शिव अपने भक्तों के अहंकार को नष्ट करने के लिए कभी - कभी उन पर क्रोध भी करते हैं और उनका क्रोध भी कृपा करने के लिए ही होता है ।
पुण्यशीला गंगा जब भगवान रुद्र के मस्तक पर गिरीं, तब वे उनकी जटाओं के जाल में बुरी तरह उलझीं गयीं । लाख प्रयत्न करने पर भी वे बाहर न निकल सकीं । भगवान शिव के जटा - जाल में उलझकर बहुत वर्षों तक उसी में चक्कर लगाती रहीं ।
जब भगीरथ ने देका कि गंगा भगवान शिव के जटामंडल में अदृश्य हो गयीं, तब उन्होंने पुन: भोलेनाथ की प्रसन्नता के लिए तप करना प्रारंभ कर दिया । उनके तप से संतुष्ट होकर भगवान शिव ने गंगा जी को ले जाकर बिंदु सरोवर में छोड़ा । वहां गंगा जी सात धाराएं पूर्व दिशा की ओर तथा सुचक्षु , सीता और महनदी सिंधु - ये तीन धाराएं पश्चिम की ओर चली गयीं । सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे - पीछे चली । इस प्रकार आकाश से भगवान संकर के मस्तक पर और वहां से पृथ्वी पर आयी गंगा जी की वह जलराशि अद्भुत शोभा पा रही थी । सभी देवता आकाश में खड़े होकर गंगावतरण के इस अद्भुत एवं उत्तम दृश्य को देख रहे थे । गंगा का जल कभी नीचे कभी ऊंचे मार्ग पर उठता हुआ भूमि पर गिरता था । आकाश से भगवान शंकर के मस्तक तथा वहां से पृथ्वी पर गिरा हुआ वह निर्मल जल उस समय बड़ा ही शोभा पा रहा था । जो लोग शापभ्रष्ट होकर आकाश से पृथ्वी पर आये थे, वे गंगा जल में स्नान करके पुन: निष्पाप हो गये । इस प्रकार भगवान शंकर की कृपा से गंगा का धरती अवतरण हुआ और भगीरथ के पितरों के उद्धार के साथ पतितपावनी गंगा संसारवासियों को प्राप्त हुईं ।

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