Saturday, 12 March 2016

जीवन में गुरु का महत्त्व


प्रत्येक आत्मा को पूर्णता की प्राप्ति होगी और अंत में सभी प्राणी उस पूर्णवस्था का लाभ करेंगे यह बात निश्चित है । हमारी वर्तमान अवस्था हमारे पिछले कार्यों और विचारों का परिणाम है और हमारी भविष्य अवस्था हमारे वर्तमान कार्यों और विचारों पर अवलंबित रहेगी । ऐसा होते हुए भी हमारे लिये दूसरों से सहायता प्राप्त करने का मार्ग बंद नहीं है । दूसरों से सहायता प्राप्त करने का मार्ग बंद नहीं है । दूसरों की सहायता पाने पर आत्म शक्तियों का विकास सदा अधिक तेजी से हुआ करता है । यहां तक कि संसार में अधिकांश मनुष्यों को दूसरों का सहायता की प्राय: अनिवार्य रूप से आवश्यकता हुआ करती है अर्थात् दूसरों की सहायता के बिना उनकी उन्नति हो ही नहीं सकती । जागृत करने वाला प्रभाव बाहर से आता है और हमारी अंत:स्थित गूढ़ शक्तियों को जागृत करता है । तभी से हमारी उन्नति का श्री गणेश होता है आध्यात्मिक जीवन का आरंभ होता है और अंत में हम पवित्र और पूर्ण बन जाते हैं । यह जगाने वाली शक्ति जो बाहर से आती है वह हमें पुस्तकों से प्राप्त नहीं हो सकती । एक आत्मा दूसरी आत्मा से ही जाती लाभ कर सकती है और किसी अन्य वस्तु से नहीं । हम अपने जन्म भर पुस्तकों का अध्ययन करें और बहुत बड़े बुद्धिशाली भले ही हो जाएं पर अंत में देखेंगे कि हमारी आत्मा की उन्नति कुछ भी नहीं हुई है । यदि मनुष्य का बौद्धिक विकास उच्च श्रेणी की हो यह कोई नियम नहीं है । बल्कि प्राय: प्रति दिन हम यहीं देखते हैं कि आत्मा की शक्ति का व्यय करके ही बुद्धि की इतनी अधिक उन्नति हुई है ।
बुद्धि की उन्नति करने में तो हमें पुस्तकों से बहुत सहायता प्राप्त होती है पर आत्मा की उन्नति करने में पुस्तकों की सहायता प्राय: नहीं के बराबर ही रहती है । ग्रंथों का अध्ययन करते करते कभी कभी भ्रमवश ऐसा सोतने लगते हैं कि हमारी आध्यात्मिक उन्नति में इस अध्ययन से सहायता मिल रही है पर जब हम अपना आत्म निरीक्षण करते हैं तब पता लगता है कि ग्रंथों से सहायता हमारी बुद्धि को मिल रही है, हमारी आत्मा को नहीं यहीं कारण है कि हम लोग आध्यात्मिक विषयों पर आश्चर्यपूर्ण व्याख्यान तो दे सकते हैं पर जब तदनुसार कार्य करने का अवसर आता है तो हम बिलकुल अबोध पाये जाते हैं । जो बाह्य शक्ति हमें आत्मोन्नति के पथ में आगे बढ़ा सकती है वह शक्ति हमें पुस्तकों द्वारा नहीं मिल सकती इसी कारण ऐसा होता है । आत्मा को जागृत करने के लिये ऐसी शक्ति दूसरी आत्मा से ही प्राप्त होनी चाहिये । जिस आत्मा से यह शक्ति मिलती है उसे गुरु या आचार्य कहते हैं और जिस आत्मा को यब शक्ति प्रदान की जाती है वह शिष्य कहलाता है ।
थोड़ा सा बौद्धिक प्रयास करते हुए और कुछ कौतूहल पूर्ण शंकाओं का समाधान करते हुए धर्म के क्षेत्र की बाहरी सीमा पर ही खड़े रहने वाले हुआ करते हैं । उसमें कुछ लाभ तो है । समय पाकर सब कुछ आ पहुंचता है प्रकृति का यह रहस्यपूर्ण नियम है कि खेत तैयार होते ही बीज मिलना ही चाहिये । ज्यों ही आत्मा को धर्म की आकांक्षा होती है त्यों ही धार्मिक शक्ति का देने वाला आना ही चाहिए । ‘खोज करने वाले पतित की खोज करने वाले उद्धारक से भेंट हो ही जाती है ।’ जब ग्रहण करने वाली आत्मा की आकर्षण शक्ति पूर्ण हो जाती है उस समय उस आकर्षण को उपयोग में लाने वाली शक्ति आनी ही चाहिए ।

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