ऋग्वेद के निम्नलिखित मन्त्रों में स्वर्ग का वर्णन पाया जाता है-
” ये नद्यौं रुग्रा पृथिवी च दृढ़ा ये नस्व: स्तंभित: येन नाक:।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमान : कस्मै देवाय हविषा वि धेम। ”
ऋग्वेद – 10 । 21 1-10
जिसने अन्तरिक्ष, दृढ़ पृथिवी, स्वर्लोक, आदित्य, तथा अन्तरिक्षस्थ महान जल राशि का निर्माण किया आओ उसी को भजें।
अथर्ववेद में भी उसका वर्णन है-
” ईजानश्र्चित मारुक्षदिग्नं नाकस्य पृष्टाद् दिविमुत्पतिष्यन्।
तस्मै प्रभात नभसो ज्योतिमान् स्वर्ग : पन्था : सुकृते देवयान : । ”
अथर्व . 18 । 4 । 14
जो मनुष्य सुख भोग के लोक से प्रकाशमय ‘द्यौ’ लोक के प्रति ऊपर उठना चाहता हुआ, और इस प्रयोजन से वास्तविक यजन करता हुआ चित् स्वरूप अग्नि का आश्रय ग्रहण करता है, उस ही शोभन कर्म वाले मनुष्य के लिए ज्योतिर्मय स्वर्ग, आत्म सुख को प्राप्त कराने वाला देव यान मार्ग, इस प्रकाश रहित संसार आकाश के बीच में प्रकाशित हो जाता है-
” सह्स्त्रहण्यम् विपतौ अस्ययक्षौं हरेर्हं सस्य पतत : स्वर्गम्।
सदेवान्त्सर्वानुरस्यपदद्य संपश्यन् यातिभुववनानि वि श्र्वा । ”
अथर्व . 18-8
स्वर्ग को जाते हुए इस ह्रियमाण या हरणशील जीवात्मा हंस के पंख सह्स्त्रो दिनों से खुले हुए हैं, वह हंस सब देवों को अपने हृदय में लिए हुए सब भुवनों को देखता हुआ जा रहा है।
मनु संहिता अध्याय 11 के श्लोक 238 और 241 में स्वर्ग का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
” औषधन्य गदो विद्धाद बीच विविधास्थिति:।
तपसैवप्रसिधयन्ति तपस्तेषां हि साधनम्। ”
”औषध नीरोगता और विद्या बल तथा अनेक प्रकार से स्वर्ग में स्थिति तपस्या से ही प्राप्त होती है”-
” कीटाश्र्चाहि पतंगाश्र्चपश्वश्र्च वयांसि च।
स्थावराणि च भूतानि दिवं यान्ति तपो बलात्। ”
”कीट सर्प पतंग पशु पक्षी और स्थावर आदि तपो बल से ही स्वर्ग में जाते हैं।”
बौद्ध ग्रन्थों में भी स्वर्ग का निरूपण पाया जाता है-‘धम्मपद’ के निम्नलिखित श्लोक इसका प्रमाण है-
‘‘ गब्भ मेके उपज्जन्तिनिरियं पाय कम्मिनो।
सगां सुगतिनोयन्ति परि निब्बन्ति अनासवा।। ”
”कोई-कोई मनुष्य मृत्यु लोक में जन्म लेते हैं, पापात्मा लोग नरक में उत्पन्न होते हैं। पुण्यात्मा स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। आशातीत महात्मा गण निर्वाण में जातेहैं-
” अन्धिभूतो अयं लोको तनु कैत्थ विपस्सति।
सकुन्तो जाल मुत्तोव अप्पो सग्गाय गच्छति।। ”
”यह लोक बिल्कुल अंधकार मय है, इसमें बिरले ही कोई ज्ञानी होते हैं। जाल से मुक्त पक्षी के सामन थोड़े ही मनुष्य स्वर्ग में जाते हैं।”
हमारे पुराण ग्रन्थों में स्वर्ग का जैसा विस्तृत वर्णन है, वह अविदित नहीं है। सर्व साधारण भी उससे अभिज्ञ हैं, पुराणों का स्वर्ग वर्णन विलक्षण तो है ही, लोकोत्तर भी है।
जो विशेषताएँ उसमें पाई जाती हैं, और उसकी जैसी विभूतियाँ हैं, वे सर्वथा उसकी महत्ता के अनुकूल हैं। किसी धर्म के स्वर्ग में उतना विशद, विमुग्धकर, उदात्ता, और अलौकिक महत्व नहीं पाया जाता, जितना पौराणिक स्वर्ग में।
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