बाह्य जगत की प्रतिकृति ये मानव शरीर भी एक ब्रम्हांड ही है और तदनुसार मानव शरीर में भी उत्तर और दक्षिण दो ध्रुव विराजमान हैं.जिनमे विद्युत चुम्बकत्व की धनात्मक और ऋणात्मक शक्ति प्रवाहित रहती है, मस्तिष्क को उत्तरी ध्रुव और मूलाधार को दक्षिण ध्रुव माना गया है.
इन्ही के मध्य मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध ,आज्ञा और सहस्रार चक्र हैं. अर्थात मूलाधार यदि एक छोर पर स्थित है तो सहस्रार दूसरे छोर पर स्थित है. और उस दिव्य शक्ति का आदान प्रदान मेरुदंड में स्थित सुषुम्ना सूत्र के द्वारा होता है.
सुषुम्ना पथ ही इन शक्तियों को परिष्कृत कर दोनों छोरो पर शक्ति का परस्पर आदान प्रदान करता है. जिन चक्रों की हमने बात की है .वे ७ चक्र वस्तुतः सप्त ऋषियों के प्रतिनिधि हैं.
अर्थात इन चक्रों में इन ऋषियों का ही तव प्रकाशित होता है, बाह्य दृष्टि से जो ऋषि हैं, वास्तव में वो सात शक्तियां और सात तत्व भाव हैं, जो जीवन के विभिन्न क्रिया कलापों को सुचारू रूप से संपन्न करने की क्षमता प्रदान करते हैं.
और ये भाव ,ये तत्व सूर्या से ही प्राण को ग्रहण करते हैं ,तभी उनमे जीवन की उपस्थिति हो पाती है. अब ये साधक के ऊपर निर्भर करता है की वो उपरोक्त सप्त शक्तियों का (जो की सूर्य से ही प्राणों का शोषण करते हैं और तदनुरूप साधक को दैदिप्यता और तेजस प्रदान करते ) कितना तीव्र प्रयोग कर पाता है. सबसे पहले ये समझ लेते हैं की वास्तव में ये सप्तर्षि हैं कौन कौन से और ये किन शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
वशिष्ट – अग्नि तत्व – विवेक शक्ति
विश्वामित्र – आकाश तत्व – इच्छा शक्ति
भारद्वाज – चेतन तत्व – संकल्प शक्ति
गौतम – वायु तत्व – विचार शक्ति
जमदग्नि – तेज तत्व – क्रिया शक्ति
अत्री – जल तत्व – वाणी शक्ति
कश्यप – पृथ्वी तत्व – उत्थान शक्ति
वास्तव में ये सप्तर्षि ही मानव के वे सात शरीर या ब्रम्हांड के वे सात लोक हैं, जिन्हें भू,भुवः, स्वः मन:, जनः,तपः और सत्य लोक कहा गया है .
ये मानव शरीर में उपस्थित वो सात सम्भावनाये हैं की यदि इन्हें कोई चैतन्य कर ले ,फिर उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं रह जाता है. वस्तुतः मानव शरीर में उपस्थित चेतना की ये सात परते ही हैं. जो किसी भी असाध्य को साध्य कर देती हैं.
और एक बात हृदयंगम करने योग्य है की यदि तंत्र का आश्रय लिया जाये तो निश्चित ही ,चेतना के इन सातो स्तर की प्राप्ति सहज हो जाती है. वस्तुतः सूर्य विज्ञानं के जिज्ञासुओं को या साधकों को इस रहस्य को आत्मसात कर सिद्ध हस्त प्राप्त करने के लिए तो पूरा एक साधना क्रम ही संपन्न करना पड़ता है.
परन्तु सामान्य क्रम अपनाकर भी हम कुंडलिनी के चक्रों को ना ही सिर्फ स्पंदित कर सकते हैं, अपितु सप्त ऋषियों की चेतना का ये स्पंदन आप अपने जीवन में उतार कर अपना भाग्य स्वतः ही लिख सकते हैं, और दुर्भाग्य को पूरी तरह मिटाकर एक सौम्यता और तेजोमयता की प्राप्ति कर सकते हैं.
किसी भी रविवार से इस साधना को आप प्रारंभ कर सकते हैं और प्रातः काल स्नान कर सूर्य को जब जल समर्पित करे तो उसके पहले जल पात्र की और दृष्टि रख कर निम्न मंत्र का १०८ बार उच्चारण करे, इसके बाद ही सूर्य को “ॐ तेजस्विताय नमः” कहकर जल अर्पित करे या अर्घ्य चढ़ाये –
मूल मन्त्र-ॐ सूर्य सूर्याय सूर्य सप्तर्षिभ्यो सह चैतन्य प्राप्तुम पूर्ण तेजस्विताय नमः II
वस्तुतः ये मन्त्र इस रूप में गुंथा हुआ है की यदि इसका उपरोक्त विधान से नित्य प्रति प्रयोग किया जाये तो निश्चित ही इसका प्रवाह आपके दुर्भाग्य को पूर्ण रूपेण दूर कर सकता है।
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