Tuesday, 22 March 2016

मंत्र शक्ति का उद्गम स्त्रोत :-


यज्ञ प्रक्रिया में ज्ञान एवं विज्ञान के सभी स्त्रोत विद्यमान हैं। ज्ञानपक्ष के द्वारा यज्ञीय दर्शन एवं प्रेरणाओं को हृदयंगम करने एवं उदात्त-जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है। जबकि विज्ञानपक्ष द्वारा शक्ति सामर्थ्य अर्जित की जाती है। वातावरण संशोधन, रोगनिवारक, स्वास्थ्य संरक्षण एवं संवर्धन, पर्यावरण संतुलन इसी के अंतर्गत आते हैं। यज्ञों के उस वैज्ञानिक, उपयोगी प्रारूप को देने में मूलभूत शक्ति कौन-सी काम करती है, यह कम ही जानते हैं।
सर्वविदित है कि बिना शब्द शक्ति की ऊर्जा के यज्ञ का प्रयोजन अधूरा ही रहता है। मात्र वनौषधि यजन से यदि यह लक्ष्य पूरा होता तो इसे किसी याँत्रिक संयंत्र द्वारा पूरा कर लिया जाता। यज्ञ में सन्निहित शक्ति एवं परिणति का आधार है मंत्र एवं यज्ञ दोनों मिलकर यजन प्रक्रिया को सफल बनाते हैं। मंत्रों के सही गायन एवं सुपात्र याज्ञिक के अभाव में वह कृत्य मात्र कौतूहल भर बन कर रह जाता है।
मंत्रों में चार प्रकार की शक्तियां पाई गई हैं- (1) प्रामाण्य शक्ति (2) फलप्रदायक शक्ति (3) बहुलीकरण शक्ति (4) अध्यात्म शक्ति। इन चारों ही शक्तियों के समन्वय एवं योगदान से यज्ञायोजन का समग्र लाभ मिलता तथा चमत्कारी प्रभाव पड़ते देखा गया है।
महर्षि जैमिनी रचित पूर्ण मीमाँसा के अनुसार मंत्रों में जो अर्थ, शिक्षा, संबोधन एवं प्रेरणा सन्निहित है जिसके द्वारा मनुष्य को अपने कर्तव्यों का ज्ञान मिलता है तथा सद् मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है वह उसकी प्रामाण्य शक्ति है। परोक्ष में यही वह देव शक्ति है जो यजन कर्ता को सूक्ष्म रूप से सदाचरण एवं परमार्थ पथ पर चलने की प्रेरणा देती है।
विज्ञान द्वारा सिद्ध है कि विचारों का कभी अन्त नहीं होता। आह्वान जिन भी विचारों का किया जाता है, वे ही चिन्तन के आधार बनते और उसके अनुरूप ही गतिविधियाँ चलती हैं। सत् चिन्तन एवं अनैतिक चिन्तन का यही आधार है। यज्ञीय वातावरण में मंत्र के माध्यम से श्रेष्ठ विचारों का स्फोट किया जाता है जो यज्ञ ऊर्जा के सान्निध्य में पहुँचकर और भी सूक्ष्म हो जाते हैं तथा अंतरिक्ष में फैल जाते हैं।
अपने अनुरूप ही विचारों को अंतरिक्ष से संकलित करके पुनः यजन कर्ता के निकट पहुँचते हैं। अपने उद्गम स्त्रोत में पहुँचकर वे और भी अधिक सशक्त एवं समर्थ बन चुके होते हैं। यज्ञीय ऊर्जा में मंत्र शक्ति से निकले शक्तिशाली विचार यजन कर्ता के चारों ओर छाये रहते हैं। फलतः वह तो लाभान्वित होता ही है निकटवर्ती अन्य व्यक्ति भी प्रभावित होते हैं।
यह अनुभूति सत्य है कि जहाँ कहीं भी यज्ञायोजन होते हैं, वहाँ का वातावरण दिव्य बना रहता है। देव तत्वों की वहाँ बहुलता होती है। जिसके कारण एक नास्तिक भी यदि वहाँ पहुँचे तो वह भी अपने अन्तःकरण में एक विचित्र आह्लाद एवं आनन्द का अनुभव करता है। वह अपनी संकीर्णता भूल जाता है। सहयोग, सेवा एवं उदारता की उमंगें उसके अन्तः में भी उभरने लगती हैं। यह मंत्र में सन्निहित प्रामाण्य शक्ति का ही प्रभाव है जिसके कारण इस प्रकार की वैचारिक दिव्य प्रेरणाऐं हर किसी के हृदय में उठने लगती हैं।
यज्ञीय ऊर्जा में यह शक्ति और भी अधिक बढ़ जाती तथा चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करती है। वातावरण संशोधन, अनुकूलन, रोग निवारण, स्वास्थ्य संवर्धन का यह वह पक्ष है जो परोक्ष में मनुष्य आचार नियमों के पालन करने, संयम में आबद्ध होने की शक्ति देता है मंत्र शक्ति का यह सूक्ष्म और वैचारिक पक्ष है पर अन्य स्थूल पक्षों की तुलना में अधिक सशक्त और वैज्ञानिक है।
मंत्र की दूसरी शक्ति है फल प्रदान करने वाली। जिसके द्वारा हवन में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं को संस्कारित किया जाता है तथा प्राणवान बनाया जाता है। कुशा, हवि, चरु आज्य, कुण्ड, समिधा, यज्ञ पात्र आदि मंत्र की सूक्ष्म प्राण शक्ति से अभिमंत्रित होते हैं। वे किस प्रयोजन के लिए प्रयुक्त हो रहे हैं, इस आधार पर ही मंत्रों द्वारा उन्हें अभिमंत्रित किया जाता है।
उनमें अभीष्ट लक्ष्य की पूर्ति के योग्य ही संस्कार दिए जाते हैं। लक्ष्य परिशोधन का भी है। वस्तुओं एवं पदार्थों पर भी अपने उद्गम स्त्रोत के संस्कार पड़े रहते हैं। उन्हें परिशोधित एवं पवित्र करने की आवश्यकता पड़ती है। विभिन्न प्रकार के मंत्रों का प्रयोग इसलिए किया जाता है कि स्थान आदि से जुड़ी अपवित्रता को दूर करना। अभीष्ट प्रयोजन के लिए मंत्रोच्चार द्वारा पवित्र एवं संस्कारित करके योग्य बनाना, तभी यज्ञ के निर्धारित प्रयोजन की आपूर्ति सम्भव हो पाती है।
उत्तराखण्ड के एक प्राचीन नगर में सुबोध नाम के राजा राज्य करते थे। महाराज का नियम था- राजकीय कार्य प्रारम्भ होने से पूर्व वे आये हुए याचकों को दान दिया करते थे। इस नियम में उन्होंने कभी भूल नहीं की।
एक दिन जब सब लोग दान पा चुके तो एक विचित्र स्थिति आ खड़ी हुई। एक व्यक्ति ऐसा आया जो दान के लिए हाथ तो फैलाये था पर मुँह से कुछ न कहता था। सब हैरान हुए इसे क्या दिया जाये? बुद्धिमान व्यक्ति यों की सलाह ली गई। किसी ने कहा वस्त्र देना चाहिए, किसी ने अन्न की सिफारिश की। कोई स्वर्ण देने को कहता कोई आभूषण। पर समस्या का यथार्थ हल न निकला।
सुबोध की कन्या उपवर्गा भी वहाँ उपस्थित थी उसने कहा- राजन् जो व्यक्ति न बोल सकता है न व्यक्त कर सकता है उसके लिए द्रव्याभूषण सब व्यर्थ हैं। ऐसे लोगों के लिए सर्वश्रेष्ठ दान तो ज्ञान-दान ही है। ज्ञान से मनुष्य अपनी सम्पूर्ण इच्छायें, आकाँक्षायें आप पूर्ण कर सकता है और दूसरों को सहारा भी दे सकता है। इसलिए इन्हें ज्ञान-दान दीजिए।
उपवर्गा की बात सब ने पसन्द की। उस व्यक्ति के लिए शिक्षा की व्यवस्था की गई। राजा ने उस दिन अपने दान की सार्थकता समझी। यही व्यक्ति आगे चल कर उसी नगरी का विद्वान मन्त्री नियुक्त हुआ।
मंत्र की तीसरी शक्ति बहुलीकरण शक्ति है। यह सूक्ष्मीकरण के सिद्धान्त पर आधारित है। देव पूजन में थोड़ी मात्रा में चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य आदि चढ़ाया जाता है। देवताओं का आकार एवं विस्तार अधिक है। ऐसी स्थिति में उनकी तुष्टि एवं तृप्ति इन थोड़ी वस्तुओं से किस प्रकार होती है, यह सन्देह अधिकाँश के मन में उठता है। स्पष्ट है कि देवता व्यक्ति नहीं शक्ति होते हैं।
उनके स्वाप भी स्थूल न होकर सूक्ष्म होते हैं। उन्हें सूक्ष्म आहार ही अभीष्ट होता है। देवशक्तियाँ सूक्ष्म ब्रह्मांड में फैली हैं। उन्हें पोषण देने आकर्षित करने के लिए वस्तुओं की सूक्ष्म विशेषताओं के साथ मंत्रों की विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा स्फोट कराया जाता है। फलतः थोड़ी मात्रा में चढ़ायी हुई वस्तु भी सूक्ष्म होकर अधिक सामर्थ्यवान बन जाती है। देवत्व परिपोषित एवं परिपुष्ट होकर अपने अनुदानों की वर्षा करता है।
यही बात हवन में प्रयुक्त होने वाली वनौषधियों के सम्बन्ध में लागू होती हैं। होमियोपैथी के ज्ञाता जानते हैं कि वस्तुएं सूक्ष्मीकृत होकर अधिक शक्तिशाली बन जाती हैं। अधिक पोटेन्सी वाली होमियोपैथिक औषधियाँ अधिक सूक्ष्मीकरण के सिद्धान्त द्वारा ही विनिर्मित होती हैं। प्रयोग कर्ता के ऊपर इनका शीघ्र तथा चमत्कारी प्रभाव पड़ता है।
यज्ञ अग्नि में वनौषधियों सूक्ष्मीकृत होकर शीघ्र तथा अधिक प्रभावकारी सिद्ध होती हैं। इनकी प्रतिक्रिया भी व्यापक स्तर पर होती है। मंत्र की बहुलीकरण शक्ति द्वारा यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं पर स्फोट किया जाता है। यह प्रक्रिया वैसी ही है जिस प्रकार पारमाण्विक ऊर्जा प्राप्त करने के लिए परमाणु को तोड़ने की।
इस प्रक्रिया द्वारा होमीकृत वस्तुओं की सामर्थ्य तो बढ़ती ही है, प्रभाव भी व्यापक क्षेत्र में पड़ता है। जीव, जन्तु, वृक्ष, वनस्पति सभी लाभान्वित होते हैं। वातावरण संशोधन एवं अनुकूलन का प्रयोजन पूरा होता है।
मंत्र की चौथी अयातयाम अथवा अध्यात्म शक्ति वह है जो किसी विशेष व्यक्ति द्वारा विशेष स्थान पर विशेष उपकरणों से पैदा होती है। विश्वामित्र ऋषि ने गायत्री तत्व की साधना को पूरी तन्मयता एवं विधि-विधान के साथ लम्बे समय तक किया फलस्वरूप गायत्री के मंत्र दृष्टा बने।
विशिष्ट साधना निश्चित समय निश्चित स्थान एवं एक निर्धारित विधि द्वारा किए जाने पर चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करती है। साधना में प्रयोग किए जाने वाले पात्र एवं स्थान भी तप की ऊर्जा से असाधारण रूप से प्रभावित होते हैं। ऐसे ही स्थान तीर्थ, सिद्धपीठ, शक्ति पीठ बनते हैं। साधना में प्रयुक्त होने वाले पूजा पात्र माला आदि भी मंत्र शक्ति से अभिपूरित होते हैं तथा अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति में सहायक सिद्ध होते हैं।
प्राचीन काल में इस आध्यात्मिक अयातयाम शक्ति का असाधारण महत्व था और इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता था कि विशिष्ट साधना में प्रयुक्त होने वाले पात्रों का उपयोग अन्य किसी कार्य के लिए न किया जाय। इससे उनकी पवित्रता एवं शक्ति बनी रहती है।
यह विधान भी है कि उपासना, साधना अथवा यज्ञ में काम आने वाले विभिन्न पात्रों का प्रयोग मात्र उसी प्रयोजन तक सीमित रखा जाय। कल्प सूत्रों की मर्यादा है कि निर्धारित कर्मकाण्ड समाप्त हो जाने पर उसका बचा हुआ द्रव्य, यातयाम, निर्वीय हो जाता है। कारण यह है कि उन पदार्थों को जिस उद्देश्य से अभिमंत्रित किया गया था वे उस उद्देश्य से भिन्न प्रयोजन के उपयुक्त नहीं है। यही कारण है कि विभिन्न कर्मकाण्डों के उपरान्त बचे द्रव्य आदि को नदी आदि में प्रवाहित कर देने का विधान है।
वस्तुएं ही नहीं व्यक्ति भी मंत्र की अयातयामता शक्ति से अभिपूरित होते हैं। ताँत्रिक, अघोरी, अपनी क्रियाओं में दक्ष होते हैं पर वे अन्य कोई कर्मकाण्ड नहीं करा सकते इसी प्रकार यज्ञ आदि कराने वाले आचार्य भी पात्रता को उसके अनुरूप विकसित कर लेते हैं। तभी यज्ञायोजन का अभीष्ट लाभ पूरा हो पाता है।
विभिन्न कर्मकाण्ड अथवा यज्ञायोजन के लिए अभीष्ट पात्रता का अभाव हो तो भी उसकी उतना लाभ नहीं मिल पाता यही कारण है कि शास्त्र निर्देश देते हैं कि सुपात्र, योग्य आचार्यों से ही यज्ञायोजन आदि का कृत्य कराना चाहिए।
सर्वविदित है कि गुरु वशिष्ठ ब्रह्मज्ञानी थे। योग्यता भी कम नहीं थी। पर राजा दशरथ को पुत्रेष्टि यज्ञ कराना हुआ तो शृंगी ऋषि को बुलाना पड़ा। ऋषि वशिष्ठ पुत्रेष्टि यज्ञ को करा सकने में अक्षम थे। शृंगी ऋषि द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ कराये जाने पर ही अभीष्ट लक्ष्य की पूर्ति हुई।
मंत्रों में सन्निहित चारों शक्ति या मंत्र को समग्र एवं अभीष्ट प्रयोजनों की पूर्ति के लिए समर्थ बनाती हैं। यज्ञायोजन की सफलता मंत्र शक्ति के ऊपर ही निर्भर करती है। किस शक्ति का किस प्रकार लाभ उठाया जाय, इसके लिए यज्ञ के विभिन्न मर्यादाओं का पालन करना होता है। विविध कर्मकाण्ड दिखते भर सामान्य हैं। उनमें प्रत्येक अपने में विशेषताओं को समेटे हुए है।
प्रत्येक के वैज्ञानिक आधार एवं एक निश्चित लक्ष्य है। मर्यादाओं का भली-भाँति पालन किया जा सके मंत्र में सन्निहित चारों शक्तियों का बोध हो सके तो शब्दशक्ति के माध्यम से यज्ञ प्रक्रिया का ठीक प्रकार से लाभ उठाया जा सकता है। आवश्यकता यज्ञ प्रक्रिया में प्रयुक्त होने वाले एक-एक मंत्र की सूक्ष्म वैज्ञानिक विशेषताओं को समझने भली-भाँति हृदयंगम करने की है इस कार्य पर वैज्ञानिक शोध तो अनिवार्य है ही, श्रद्धा पूर्वक मंत्रों का सुनियोजन कर यदि यजन संभव हो सके तो वे सभी लाभ उठाए जा सकते हैं, जिनका शास्त्रों में वर्णन है।

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