Sunday, 6 March 2016

प्रेममय श्रीकृष्ण


श्रीकृष्ण का जीवन प्रेम का जीवन है, श्रीकृष्ण का संगीत प्रेम का संगीत है, श्रीकृष्ण की शिक्षाएं प्रेमतत्त्वों से परिपूर्ण हैं । गोपाल - कृष्ण ने दरिद्र ग्वालबालों से सरल और भोले भाले साथियों से मित्रता की और अपने प्रेमबल से उसने उनके मन और आत्मा को ऐसा मोह लिया कि उनकी आत्मा को ऐसा मोह लिया कि उनकी आत्माएं कृष्ण की आत्मा में मिलकर एक हो गयी थीं । कृष्ण उनका नेता, अधिपति, मित्र एवं आराध्यदेव बना हुआ था । वह उनके लिये केवल उनके प्रेम और श्रद्धा का ही पात्र नहीं बल्कि इससे भी महत्तर व्यक्ति था । श्रीकृष्ण ने अपने राजसी वस्त्रों को उतार दिया और हाथ में लकुटी लेकर वह वृंदावन के पुण्यक्षेत्रों में अपनी सखामण्डली के साथ गौएं चराने के लिये निकल पड़ा । इस सुरम्य वन में धेनु चराते चराते उसने एक कदंबवृक्ष पर चढ़कर अपनी सोने या चांदी की नहीं - बल्कि बांस की वंशी की सुरीली तान छेड़ी, जिसकी माधुरी ने सभी चराचर प्राणियों को वशीभूत कर लिया । इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि यह वंशी उसके प्राथमिक जीवन का प्रधान अंग रही । जिन्होंने सरलता के मूर्तिस्वरूप बालकों के आनंदमय सहवास का वायुमण्डल में विचरे हैं वे ही श्रीकृष्ण के बाल जीवन को समझ सकते हैं ।
इसके अनंतर हम श्रीकृष्ण को वृंदावन की गोपियों के हृदयस्थित प्रेम के झरनों पर अपना अधिकार जमाते पाते हैं । इस संसार में स्त्रियां मानो प्रेम के सरोवर हैं । माता, भगिनी, पत्नी और पुत्री आदि के प्रेम से ही मनुष्य प्रेम का पाठ सीखता है । श्रीकृष्ण इसे जानता और समझता था । अतएव उसने उनके निर्मल प्रेम को अपनाकर उन्हें अपना प्रेम दिया, जिससे कि इस प्रेमानंदरूप अमृत सिंधु में वे दोनों निमग्न हो गये । जिन पाश्चात्य विद्वानों ने श्रीकृष्ण लीला के इस अंश की आलोचना की है, उन्होंने उसके इस प्रेम और परमानंद के यथार्थ तत्त्व को नहीं समझा है । यह श्रीकृष्ण और गोपबालाओं का प्रेम आधुनिक संसार का वह कलुषित काम नहीं है जो समाज को दूषित कर रहा है, वह तो परम निर्मल, सर्वथा उच्च एवं पवित्र प्रेम था जो कि अनायास ही दिव्यघाम का द्वार खोल देता है । जिन लोगों की यह धारणा है कि एक अपरिपक्व अवस्था का अबोध बालक भी कामेच्छा से युवतियों को मोहित कर सकता है वे अगर पागल नहीं तो ज्ञान एवं विवेक से रहित अवश्य हैं । इस अनंत एवं नित्य प्रेम के ऊपर गोपियों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था । भक्तों के लिये यह एक अनुपम शिक्षा है, जिसके अनुसार वे अपना मार्ग निश्चित करते हैं, जिससे कि वे इस प्रभु को प्रेममय ईश्वर को पहचान सकें ।
बहुत से सुधार प्रेमी वस्त्र हरण के सुंदर दृश्य को अपनी नासमझी से अश्लील समझते हैं । परंतु बात ऐसी नहीं है । गोपियों के हृदय में इस बात का अभिमान था कि पारस्परिक प्रेम के कारण हमने श्रीकृष्ण को अपने वश में कर लिया है । किंतु उनका होने के लिये तो श्रीकृष्ण और भी अधिक त्याग चाहता था । जबतक उन गोप बालाओं में सांसारिकता का लेशमात्र भी रहा तबतक वह उनके अधीन नहीं हुआ । किंतु जब वे संपूर्ण लोकाचार भूल गयीं और अपने हाथों को ऊपर उठाकर श्रीकृष्ण का आवाहन करने लगीं तो उसने उनपर प्रसन्न होकर और उनके पूर्ण त्याग से संतुष्ट होकर उनके वस्त्रों को अर्थात् सांसारिक आवरण को लौटा दिया ।
इसके पश्चात राजा दुर्योधन के दरबार में भी एक ऐसा ही दृश्य देखा जाता है । जब पाण्डवों की महिषी द्रौपदी का चीर खींचा जाने लगा तब उसने श्रीकृष्ण का आवाहन किया, किंतु जबतक वह कपड़े को थामे रही तब तक उसे कोई ईश्वरीय सहायता प्राप्त न हुई । परंतु ज्यों ही उसने अपने को भुलाकर दोनों हाथों को ऊंचा उठाकर अखण्ड विश्वास और भरोसे के साथ ईश्वर का स्मरण किया त्यों ही उसे ईश्वरीय सहायता मिल गयी । सच्चे ईश्वर भक्त के लिये ये कैसे सुंदर दृष्टांत हैं ? यदि तुम्हें ईश्वरीय सहायता की आवश्यकता है तो तुम्हें संसार को और अपने को भूल जाना चाहिये और तन मन वचन से उसकी याद करनी चाहिये, तभी तुम्हारी स्तुति सुनी जाएंगी । जिन लोगों ने ईश्वर को पाया है, इसी रीति से पाया है ।
दरिद्रों में श्रीकृष्ण का प्रेम प्रत्यक्ष है । दरिद्र ग्वालबाल और बालिकाओं ने, दरिद्र विदुर ने, दरिद्र सुदामा ने और दरिद्र पाण्डवों ने उनके मंगलमय प्रेम का औरों की अपेक्षा अधिक रसास्वादन किया था । पवित्र प्रेम की प्रवृत्ति दरिद्र से ही होती है । दरिद्र की सेवा ईश्वर की सेवा है । श्रीकृष्ण के जीवन से इस तथ्य पर अच्छी तरह से प्रकाश पड़ता है । अत: यदि तुम श्रीकृष्ण के जीवन की समझना चाहते हो तो तुम दरिद्रों के लिये अपने जीवन को उत्सर्ग कर दो । दलित एवं पीड़ित भी दरिद्र ही हैं । बौद्धों के भिक्षा - पात्र और वैष्णवों की कण्ठी और झोली का भी यहीं मर्म है । जब तक कोई पुरुष अपने - आपकी दरिद्र की अवस्था में परिवर्तित नहीं कर देता तब तक वह दरिद्र को समझ नहीं सकता । दरिद्र, विनम्र और पीड़ित के हृदय में भक्त अपने सजीव प्रम मय प्रभु को उनकी संपूर्ण महिमा के साथ देख सकता है । श्रीकृष्ण के जीवन से यदि मैंने कोई शिक्षा ग्रहण की है तो यहीं है ।

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