Saturday, 19 March 2016

मन्त्र , मन्त्र जाप का प्रभाव तथा इसका विधान :-


मंत्र का अर्थ इस प्रकार है कि-जिसका मनन करने से संसार का यथार्थ स्वरूप विदित हो, भव-बन्धनों से मुक्ति मिले और जो सफलता के मार्ग पर अग्रसर करे उसे ‘मन्त्र’ कहते हैं। इसी प्रकार ‘जप’ का अर्थ है- ‘ज’ का अर्थ है, जन्म का रुक जाना और ‘प’ का अर्थ है, पाप का नाश होना।
इसीलिए पाप को मिटाने वाले और पुनर्जन्म प्रक्रिया रोकने वाले को ‘जप’ कहा जाता है। मन्त्र शक्ति ही देवमाता- कामधेनु है, परावाक् देवी है, विश्व-रूपिणी है, देवताओं की जननी है। देवता मन्त्रात्मक ही हैं। यही विज्ञान है। इस कामधेनु रूपी वाक्-शक्ति से हम जीवित हैं। इसके कारण ही हम बोलते और जानते हैं।
मन्त्र-विद्या के महान सामर्थ्य को यदि ठीक तरह समझा जा सके और उसका समुचित प्रयोग किया जा सके तो यह आध्यात्मिक प्रयास, किसी भी भौतिक उन्नति के प्रयास से कम महत्वपूर्ण और कम लाभदायक सिद्ध नहीं हो सकता। मन्त्र की शक्ति का विकास जप से होता है।
12 राशियों में 9 ग्रहों के विचरने से 108 प्रकार की शुभ अशुभ स्थितियों का निर्माण होता है जो हर मानव को प्रभावित करती है। हर व्यक्ति यह चाहता है की उसके साथ सिर्फ अच्छी परिस्थितियाँ हो , पर बुरी परिस्थितियाँ भी आ जाती है और हर कोई मन मसोस कर कहता है की होनी को कौन टाल सकता है। पर बुरी परिस्थितियों को टाला जा सकता है या उसका प्रभाव इतना कम किया जा सकता है की वे नाम मात्र का नुकसान कर चली जाए।
कलयुग में होने का एक ही फायदा है की हम मन्त्र जप कर बड़े बड़े तप अनुष्ठान का लाभ पा सकते है। मन्त्र अगर गुरु ने दीक्षा दे कर दिया हो तो और प्रभावी होता है।जिन्होंने मंत्र सिद्ध किया हुआ हो, ऐसे महापुरुषों के द्वारा मिला हुआ मंत्र साधक को भी सिद्धावस्था में पहुँचाने में सक्षम होता है |
सदगुरु से मिला हुआ मंत्र ‘सबीज मंत्र’ कहलाता है क्योंकि उसमें परमेश्वर का अनुभव कराने वाली शक्ति निहित होती है |मन्त्र जप से एक तरंग का निर्माण होता है जो मन को उर्ध्व गामी बनाते है।जिस तरह पानी हमेशा नीचे की बहता है उसी तरह मन हमेशा पतन की ओर बढ़ता है अगर उसे मन्त्र जप की तरंग का बल ना मिले।
कई लोग टीका टिप्पणी करते है की क्या हमें किसी से कुछ चाहिए तो क्या उसका नाम बार बार लेते है ? पर वे नासमझ है और मन्त्र की तरंग के विज्ञान से अनजान है।
मंत्र जाप का प्रभाव सूक्ष्म किन्तु गहरा होता है।
जब लक्ष्मणजी ने मंत्र जप कर सीताजी की कुटीर के चारों तरफ भूमि पर एक रेखा खींच दी तो लंकाधिपति रावण तक उस लक्ष्मणरेखा को न लाँघ सका। हालाँकि रावण मायावी विद्याओं का जानकार था, किंतु ज्योंहि वह रेख को लाँघने की इच्छा करता त्योंहि उसके सारे शरीर में जलन होने लगती थी।
मंत्रजप से पुराने संस्कार हटते जाते हैं, जापक में सौम्यता आती जाती है और उसका आत्मिक बल बढ़ता जाता है।
मंत्रजप से चित्त पावन होने लगता है। रक्त के कण पवित्र होने लगते हैं। दुःख, चिंता, भय, शोक, रोग आदि निवृत होने लगते हैं।सुख-समृद्धि और सफलता की प्राप्ति में मदद मिलने लगती है।
जैसे, ध्वनि-तरंगें दूर-दूर जाती हैं, ऐसे ही नाद-जप की तरंगें हमारे अंतर्मन में गहरे उतर जाती हैं तथा पिछले कई जन्मों के पाप मिटा देती हैं। इससे हमारे अंदर शक्ति-सामर्थ्य प्रकट होने लगता है और बुद्धि का विकास होने लगता है। अधिक मंत्र जप से दूरदर्शन, दूरश्रवण आदि सिद्धयाँ आने लगती हैं, किन्तु साधक को चाहिए कि इन सिद्धियों के चक्कर में न पड़े, वरन् अंतिम लक्ष्य परमात्म-प्राप्ति में ही निरंतर संलग्न रहे।
मंत्रजापक को व्यक्तिगत जीवन में सफलता तथा सामाजिक जीवन में सम्मान मिलता है। मंत्रजप मानव के भीतर की सोयी हुई चेतना को जगाकर उसकी महानता को प्रकट कर देता है। यहाँ तक की जप से जीवात्मा ब्रह्म-परमात्मपद में पहुँचने की क्षमता भी विकसित कर लेता है।
विधान-
1 पद्मासन या सुखासन में बैठें।
2 अपने दायें हाथ की तरफ घी का दीपक एवं जल का पात्र (लोटा) रखें।
3 आचमन और संकल्प करें।
4 गुरू मन्त्र का 5 बार जाप करें।
5 श्री संकटनाशन गणेशस्तोत्रम् का 1 बार पाठ करें, या गणेश मंत्र का 5 बार जाप करें ।
6 श्रीबटुक भैरव अष्टोत्तरशतनाम का 1 बार पाठ करें।
7 नवग्रह स्तोत्र का पाठ करें।
8 गायत्री मंत्र का 108 बार जाप करें।
9 अपने इष्ट या गुरु दीक्षा से प्रदत मंत्र का आवश्यकता अनुसार जाप करें।
10 अपने इष्ट देव की आरती करे एवं पुष्पाँजलि करें।
11 क्षमा प्रार्थना स्तुति एवं शान्ति पाठ करें।
पूजा से संबधित विभिन्न मन्त्र
आचमन मंत्र
निम्न मंत्र का जाप करके तीन बार जल पीये एवं हाथ धो ले।
॥शन्नो देवीर अभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शंयोरभि स्त्रवन्तु नः॥
श्रीगणेश मन्त्र ॥
|| ॐ श्री गणेशाय नमः || या
|| ॐ गं गणपतये नमः || या
ॐ गणानाम् त्वा गणपतिम् गंहवामहे प्रियाणाम्त्वा प्रियपतिम् गंहवामहे निधीनाम् त्वा निधिपतिम् गंहवामहे वसोमम्।आहम जानि गर्ब्भधम् त्वम् अजासि गर्ब्भधम्॥
|| श्री संकटनाशन गणेशस्तोत्रम् ॥
प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम्।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यं आयुष्कामार्थ सिद्धये॥१॥
प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम्।
तृतीयं कृष्ण-पिंगलाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम्॥२॥
लम्बोदरं पंचमं च षष्ठं विकटमेव च।
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टमम्॥३॥
नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम्।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम्॥४॥
|| रक्षा मन्त्र ॥
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ खं ब्रह्म नमः॥
या
ॐ ॐ ॐ ॥ श्रीबटुक भैरवाष्टोत्तरशतनाम॥ ॐ ॐ ॐ
ॐ ह्रीं भैरवो भूतनाथ शच भूतात्मा भूतभावन।
क्षेत्रज्ञः क्षेत्रपालश्च क्षेत्रदः क्षत्रियो विराट्॥१॥
श्मशान वासी मांसाशी खर्पराशी स्मरांतकः।
रक्तपः पानपः सिद्धः सिद्धिदः सिद्धिसेवित॥२॥
कंकालः कालशमनः कलाकाष्टातनु कविः।
त्रिनेत्रो बहुनेत्रश्च तथा पिंगल-लोचनः॥३॥
शूलपाणिः खङ्गपाणिः कंकाली धूम्रलोचनः।
अभीरूर भैरवीनाथो भूतपो योगिनीपतिः॥४॥
धनदो अधनहारी च धनवान् प्रतिभानवान्।
नागहारो नागपाशो व्योमकेशः कपालभृत्॥५॥
कालः कपालमाली च कमनीयः कलानिधिः।
त्रिलोचनो ज्वलन्नेत्रः त्रिशिखी च त्रिलोकप: ॥६॥
त्रिनेत्र तनयो डिम्भशान्तः शान्तजनप्रियः।
बटुको बहुवेशश्च खट्वांगो वरधारकः॥७॥
भूताध्यक्षः पशुपतिः भिक्षुकः परिचारकः।
धूर्तो दिगम्बरः शूरो हरिणः पांडुलोचनः॥८॥
प्रशांतः शांतिदः शुद्धः शंकर-प्रियबांधवः।
अष्टमूर्तिः निधीशश्च ज्ञान-चक्षुः तपोमयः॥९॥
अष्टाधारः षडाधारः सर्पयुक्तः शिखिसखः।
भूधरो भुधराधीशो भूपतिर भूधरात्मजः॥१०॥
कंकालधारी मुण्डी च नागयज्ञोपवीतवान्।
जृम्भणो मोहनः स्तम्भी मारणः क्षोभणः तथा॥११॥
शुद्धनीलांजन प्रख्यो दैत्यहा मुण्डभूषितः।
बलिभुग् बलिभुङ्नाथो बालो बालपराक्रमः॥१२॥
सर्वापित्तारणो दुर्गे दुष्टभूत-निषेवितः।
कामी कलानिधि कान्तः कामिनी वशकृद् वशी॥१३॥
जगद् रक्षा करो अनन्तो माया मंत्र औषधीमयः।
सर्वसिद्धिप्रदो वैद्यः प्रभविष्णुः करोतु शम्॥१४॥
अष्टोत्तरशतं नामं श्री भैरवस्य महात्मन् ||
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ नवग्रह मन्त्र ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
ॐ ब्रह्मा मुरारिः त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमि-सुतो बुधश्च।
गुरूश्च शुक्रः शनि राहु केतवेः सर्वे ग्रहाः शान्तिः करा भवन्तु॥
ॐ सुर्यः शौर्यमथेन्दुर उच्च पदवीं सं मंगलः सद् बुद्धिं च बुधो
गुरूश्च गुरूतां शुक्रः सुखं शं शनिः राहुः बाहुबलं करोतु सततं
केतुः कुलस्यः उन्नतिं नित्यं प्रीतिकरा भवन्तु
मम ते सर्वे अनुकूला ग्रहाः॥
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ नवग्रहस्तोत्रम् ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
जपा कुसुम संकाशं काश्यपेयं महद्युतिम्।
तमोऽरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम् ॥१॥
दधि शंख तुषाराभं क्षीरोदार्णव संभवम्।
नमामि शशिनं सोमं शम्भोः मुकुट भूषणम्॥२॥
धरणी गर्भ संभूतं विद्युत्कान्ति समप्रभम्।
कुमारं शक्ति हस्तं च मंगलं प्रणमाम्यहम्॥३॥
प्रियंगु कलि काश्यामं रूपेणा प्रतिमं बुधम्।
सौम्यं सौम्य गुणोपेतं तं बुधं प्रणमाम्यहम्॥४॥
देवानां च ऋषीणां च गुरुं काञ्चन संनिभम्।
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्॥५॥
हिम कुन्द मृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम्।
सर्व शास्त्र प्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम्॥६॥
नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छाया मार्तण्ड संभूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥७॥
अर्ध कायं महावीर्यं चन्द्र आदित्य विमर्दनम्।
सिंहिका गर्भ संभूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्॥८॥
पलाश पुष्प संकाशं तारका ग्रह मस्तकम्।
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥९॥
इति व्यास मुखोद् गीतं यः पठेत् सुसमाहितः।
दिवा वा यदि वा रात्रौ विघ्न शान्तिर भविष्यति॥१०॥
नर नारी नृपाणां च भवेद् दुःस्वप्न नाशनम्।
ऐश्वर्यं अतुलं तेषाम् आरोग्यं पुष्टि वर्धनम्॥११॥
गृह नक्षत्रजाः पीडाः तस्कराग्नि समुद् भवाः।
ताः सर्वाः प्रशमं यान्ति व्यासो ब्रू तेन संशयः॥१२॥
ॐ ॐ ॐ ॥ इति श्रीव्यास विरचितं नवग्रहस्तोत्रं संपूर्णम् ॥ ॐ ॐ ॐ
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ गायत्री मंत्र ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
ॐ भुर्भुवः स्वः तत् सवितुर वरेण्यम्
भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ क्षमा-प्रार्थना ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरम्।
यत् पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे॥
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ शान्तिः पाठ ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
ॐ द्यौः शान्तिः अन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिः आपः शान्तिः ओषधयः शान्तिः।
वनस्पतय: शान्तिः विश्वेदेवाः शान्तिः ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥

यतो यतः समीहसे ततो नो अभयम् कुरू।
शम् नः कुरू प्रजाभ्यो अभयम् नः पशुभ्यः॥
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ ॥ सुशान्तिर्भवतु ॥
॥हरि ॐ तत्सत्॥
मंत्र क्रिया का उददेश्य सात्विक तथा दुष्कामना से दूर हो।
* प्रयोग काल में मन, कर्म व वचन से आप शुद्ध हों।
* ब्रह्मचर्य तथा कुशासन अथवा कंबल का प्रयोग करें।
* लेखन कार्य उसी नाप अथवा मंत्रोच्चार साथ-साथ करें। इस काल में जप के अतिरिक्त कुछ न बोलें।
* प्रयास रखें कि प्रत्येक दिन का प्रयोग एक निश्चित समय तथा समयावधि में ही पूर्ण करें।
* सकाम अनुष्ठान साधक कम से कम उक्त नियम का अवश्य अनुपालन करें। निष्काम जप अथवा लेखन काल में तो किसी भी देश, काल एवं परिस्थिति आदि का बंधन है ही नहीं।
* संयम और अंतःकरण की पवित्रता का सदैव ध्यान रखें।

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