वेद आदि सतशास्त्रों में मनुष्यों के नि:श्रेयस के लिये उनके अंत:करण की योग्यता का विचार करके प्रवृत्तिधर्म और निवृत्तिधर्म का उपदेश किया गया है । कर्मयोग को निष्काम - कर्मयोग भी कहते हैं । कर्तापन के अभिमान को और कर्मफल की इच्छा को त्यागकर कर्तव्यबुद्धि से अपने वर्णाश्रम के धर्मों का श्रद्धा और प्रीतिसहित सावधानी के साथ पालन करना निष्काम कर्मयोग या कर्मयोग कहलाता है । कर्मयोग के आदरपूर्वक अनुष्ठान करने से मनुष्य के अंत:करण की शुद्धि होती है । शुद्ध हुआ अंत:करण क्रम से स्थिर और सूक्ष्म होकर परमात्मा का ब्रह्म का साक्षात्कार करने में समर्थ होता है । ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’ ब्रह्म का अनुभव करने वाला पुरुष ब्रह्मस्वरूप ही होता है और ‘तरति शोकमात्मवित्’ आत्मस्वरूप का अनुभवी मानसपरितापरूप शोक के उस पार परमानंद को प्राप्त करता है, इत्यादि श्रुतियों में ब्रह्म के साक्षात्कार से होने वाले महालाभों का वर्णन किया है । ब्रह्म का दृढ़ साक्षात्कार मनुष्य को चित्त शुद्धि के बिना प्राप्त नहीं होता । और वह चित्त शुद्धि कर्मयोग का यथाविधि अनुष्ठान किये बिना नहीं हो सकती । अतएव जिनका ज्ञानयोग में (सांख्य) में अधिकार नहीं है उनके लिये कर्मयोग का सेवन करना आवश्यक है । श्रीअर्जुन के अंत:करण की योग्यता का विचार कर उनके भविष्य - हित के लिये भगवद्गीता में श्रीकृष्ण भगवान मे उन्हें प्रधानत: कर्मयोग का ही उपदेश दिया है । कर्मयोग का अनुष्ठान किये बिना मनुष्य मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता । ऐसा श्रीकृष्ण भगवान ने निम्न वचनों में कहा है -
‘निष्काम कर्म का अनुष्ठान किये बिना मनुष्य नित्यसिद्ध मोक्ष को प्राप्त नहीं होता, और केवल कर्म के त्याग से ही मनुष्य मोक्षरूप सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता ।’
चित्त को आत्मविचार में संलग्न रख, समस्त कर्मों को परमात्मा के अर्पण कर, कर्म के फल की इच्छा, ममता और चिंता का त्याग करके तुम्हें यह स्वधर्म युद्धरूप कर्म करना चाहिये । जो श्रद्धालु और असूयाहीन मनुष्य मेरे अभिप्राय के अनुसार चलते हैं वे भी कर्मबंधन से छूट जाते हैं । वेदादि शास्त्रों में उपदिष्ट वर्णाश्रम के धर्मों का पालन करना अनावश्यक समझकर अविवेक से उन कर्मों का परित्याग कर देना तामस - त्याग है । कर्मों के करने में शरीर, इंद्रिय और अंत:करण को परिश्रम से बचने के लिये कर्म का त्याग करना राजस त्याग है । इन दजोनों प्रकार के कर्मत्याग से त्याग करने वाले के कर्मों में कर्तापन के अभिमान को तथा फल की इच्छा को त्यागकर कर्तव्यबुद्धि से परमादर के साथ कर्म करना ही कर्मों का सात्त्विक त्याग या कर्मयोग है । इसी से चित्त शुद्धि रूप फल की उत्पत्ति होती है । अतएव मुमुक्षु पुरुषों को श्रीकृष्ण भगवान के द्वारा उपदिष्ट कर्मयोग का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये ।
No comments:
Post a Comment