Wednesday, 27 April 2016

श्रीराम आदि चारों भाइयों का विवाह


राजा दशरथ ने जिस दिन अपने पुत्रों के विवाह के निमित्त उत्तम गोदान किया, उसी दिन भरत के सगे मामा केकयराजकुमार वीर युधाजित् वहां आ पहुंचे। उन्होंने महाराज का दर्शन कर के कुशल-मंगल पूछा।
‘रघुनन्दन! केकयदेश के महाराज ने बड़े स्नेह के साथ आपका कुशल-समाचार पूछा है और आप भी हमारे यहां के जिन-जिन लोगों की कुशलवार्ता जानना चाहते होंगे, वे सब इस समय स्वस्थ और सानन्द हैं। राजेन्द्र! केकयनरेश मेरे भान्जे भरत को देखना चाहते हैं। अतःइन्हें लेने के लिये ही मैं अयोध्या आया था।’
‘परंतु पृथ्वीनाथ!’ अयोध्या में यह सुनकर कि आपके सभी पुत्र विवाह के लिये आपके साथ मिथिला पधारे हैं, मैं तुरंत यहां चला आया, क्योंकि मेरे मन में अपनी बहिन के बेटे को देखने की बड़ी लालसा थी।’
महाराज दशरथ ने अपने प्रिय अतिथि को उपस्थित देख बड़े सत्कार के साथ उनकी आवभगत की, क्योंकि वे सम्मान पाने के ही योग्य थे।
तदनन्तर अपने महामनस्वी पुत्रों के साथ वह रात व्यतीत करके वे तत्त्वज्ञ नरेश प्रातःकाल उठे और नित्यकर्म करके ऋषियों को आगे किये जनक की यज्ञशाला में जा पहुंचे।
तत्पश्चात् विवाह के योग्य विजय नामक मुहूर्त आने पर दूल्हे के अनुरुप समस्त वेश-भूषा से अलंकृत हुए भाइयों के साथ श्रीरामचन्द्र जी भी वहां आये। वे विवाहकालोचित मंगलाचार पूर्ण कर चुके थे तथा वसिष्ठ मुनि एवं अन्यान्य महर्षियों को आगे कर के मण्डप में पधारे थे। उस समय भगवान् वसिष्ठ ने विदेहराज जनक के पास जाकर इस प्रकार कहा—
‘राजन्! नरेशों में श्रेष्ठ महाराज दशरथ अपने पुत्रों का वैवाहिक सूत्र-बन्धनरुप मंगलाचार सम्पन्न कर के उन सबके साथ पधारे हैं और भीतर आने के लिये दाता के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं।’
‘क्योंकि दाता और प्रतिग्रहीता का संयोग होने पर ही समस्त दान-धर्मों का सम्पादन सम्भव होता है, अतः आप विवाह-कालोपयोगी शुभ कर्मों का अनुष्ठान करके उन्हें बुलाइये और कन्यादान रुप स्वधर्म का पालन कीजिये।’
महात्मा वसिष्ठ के ऐसा कहने पर परम उदार, परम धर्मज्ञ और महातेजस्वी राजा जनक ने इस प्रकार उत्तर दिया।
‘मुनिश्रेष्ठ! महाराज के लिये मेरे यहां कौन-सा पहरेदार खड़ा। वे किस के आदेश की प्रतीक्षा करते हैं। अपने घर में आने के लिये कैसा सोच-विचार है? कन्याओं का वैवाहिक सूत्र-बन्धन रुप मंगलकृत्य सम्पन्न हो चुका है। अब वे यज्ञवेदी के पास आकर बैठी हैं और अग्नि की प्रज्वलित शिखाओं के समान प्रकाशित हो रही है।’
‘इस समय तो मैं आपकी ही प्रतीक्षा में वेदी पर बैठा हूं। आप निर्विघ्नतापूर्वक सब कार्य पूर्ण कीजिये। विलम्ब किसलिये करते हैं?’
वसिष्ठ जी के मुख से राजा जनक की कही हुई बात सुनकर महाराज दशरथ उस समय अपने पुत्रों और सम्पूर्ण महर्षियों को महल के भीतर ले आये।
तदनन्तर विदेहराज ने वसिष्ठ जी से इस प्रकार कहा-‘धर्मात्मा महर्षे! प्रभो! आप ऋषियों को साथ लेकर लोकाभिराम श्रीराम के विवाह की सम्पूर्ण क्रिया कराइये।’
तब जनक जी से ‘बहुत अच्छा’ कहकर महातपस्वी भगवान् वसिष्ठ मुनिने विश्वामित्र और धर्मात्मा शतानन्द जी को आगे कर के विवाह-मण्डप के मध्य भाग में विधिपूर्वक वेदी बनायी और गन्ध तथा फूलों के द्वारा उसे चारों ओर से सुन्दर रुप में सजाया। साथ ही बहुत-सी सुवर्ण-पालिकाएं, युवके अंकुरों से युक्त धूपपात्र,शंखपात्र,स्त्रुवा, स्त्रुक्, अघ्र्य आदि पूजनपात्र, लावा से भरे हुए पात्र तथा धोये हुए अक्षत आदि समस्त सामग्रियों को भी यथास्थान रख दिया। तत्पश्चात् महातेजस्वी मुनिवर वसिष्ठ जी ने बराबर-बराबर कुशों को वेदी के चारों ओर बिछाकर मन्त्रोच्चारण करते हुए विधि पूर्वक अग्नि स्थापन किया और विधिको प्रधानता देते हुए मन्त्रपाठपूर्वक प्रज्वलित अग्नि में हवन किया।
तदनन्तर राजा जनक ने सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित सीता को ले आकर अग्नि के समक्ष श्रीरामचन्द्र जी के सामने बिठा दिया और माता कौसल्या का आनन्द बढ़ाने वाले उन श्रीराम से कहा-‘रघुनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। यह मेरी पुत्री सीता तुम्हारी सहधर्मिणी के रुप में उपस्थित है, इसे स्वीकार करो और इसका हाथ अपने हाथ में लो। यह परम पतिव्रता , महान् सौभीग्यवती और छाया की भांति सदा तुम्हारे पीछे चलने वाली होगी।’
यह कहकर राजा ने श्रीराम के हाथ में मन्त्र से पवित्र हुआ संकल्प छोड़ दिया। उस समय देवताओं और ऋषियों के मुख से जनक के लिए साधुवाद सुनायी देने लगा।
देवताओं के नगाड़े बजने लगे और आकाश से फूलों की बड़ी भारी वर्षा हुई। इस प्रकार मन्त्र और संकल्प के जल के साथ अपनी पुत्री सीता का दान कर के हर्षमग्न हुए राजा जनक ने लक्ष्मण से कहा-‘लक्ष्मण! तुम्हारा कल्याण हो। आओ, मैं ऊर्मिला को तुम्हारी सेवा में दे रहा हूं। इसे स्वीकार करो। इसका हाथ अपने हाथ में लो। इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिये।’
‘रघुनन्दन! माण्डवी का हाथ अपने हाथ में लो।’
फिर धर्मात्मा मिथिलेश ने शत्रुघ्न को सम्बोधित कर के कहा—‘महाबाहो! तुम अपने हाथ से श्रुतकीर्ति का पाणिग्रहण करो। तुम चारों भाई शान्तस्वभाव हो। तुम सबने उत्तम व्रत का भलीभांति आचरण किया है। ककुत्स्थकुल के भूषणरुप तुम चारों भाई पत्नी से संयुक्त हो जाओ। इस कार्य में विलम्ब नहीं होना चाहिये।’
राजा जनक का यह वचन सुनकर उन चारों राजकुमारों ने चारों राजकुमारियों के हाथ अपने हाथ में लिये। फिर वसिष्ठजी की सम्मति से उन रघुकुलरत्न महामनस्वी राजकुमारों ने अपनी-अपनी पत्नी के साथ अग्नि , वेदी, राजा दशरथ तथा ऋषि-मुनियों की परिक्रमा की और वेदोक्त विधि के अनुसार वैवाहिक कार्य पूर्ण किया।
उस समय आकाश से फूलों की बड़ी भारी वर्षा हुई, जो सुहावनी लगती थी। दिव्य दुन्दुभियों की गम्भीर ध्वनि, दिव्य गीतों के मनोहर शब्द और दिव्य वाद्यों के मधुर घोष के साथ झुंड-की-झुंड अप्सराएं नृत्य करने लगीं और गन्धर्व मधुर गीत गाने लगे। उन रघुवंश शिरोमणि राजकुमारों के विवाह में वह अद्भुत दृश्य दिखायी दिया।
शहनाई आदि बाजोें के मधुर घोष से गूंजते हुए उस वर्तमान विवाहोत्सव में उन महातेजस्वी राजकुमारों ने अग्नि की तीन बार परिक्रमा कर के पत्नियों को स्वीकार करते हुए विवाहकर्म सम्पन्न किया।
तदनन्तर रघुकुल को आनन्द प्रदान करने वाले वे चारों भाई अपनी पत्नियों के साथ जनवासे में चले गये। राजा दशरथ भी ऋषियों और बन्धु-बान्धवों के साथ पुत्रों और पुत्र-वधुओं को देखते हुए पीछे-पीछे गये।

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