Tuesday, 5 April 2016

भगवान विष्णु का स्वप्नभ


एक बार भगवान नारायण अपने वैकुंठलोक में सोये हुए थे। स्वप्न में वे क्या देखते हैं कि करोड़ों चंद्रमाओं की कांतिवाले, त्रिशूल-डमरूधारी, स्वर्णाभरण-भूषित, सुरेंद्र वंदित, अणिमादि सिद्धिसेवित त्रिलोचन भगवान शिव प्रेम और आनंदातिरेक से उन्मत्त होकर उनके सामने नृत्य कर रहे हैं। उन्हें देखकर भगवान विष्णु हर्ष-गद्गद हो सहसा शय्या पर उठकर बैठा गए और कुछ देर तक ध्यानस्थ बैठे रहे। उन्हें इस प्रकार बैठे देखकर श्रीलक्ष्मीजी उनसे पूछने लगीं कि ‘भगवन्! आपके इस प्रकार उठ बैठने का क्या कारण है?’ भगवान ने कुछ देर तक उनके इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और आनंद में निमग्न हुए चुपचाप बैठे रहे। अंत में कुछ स्वस्थ होने पर वे गद्गद-कंठ से इस प्रकार बोले - ‘हे देवि! मैंने अभी स्वप्न में भगवान श्रीमहेश्वर का दर्शन किया है, उनकी छबि ऐसी अपूर्व आनंदमय एवं मनोहर थी कि देखते ही बनती थी। मालूम होता है, शंकर ने मुझे स्मरण किया है। अहोभाग्य्! चलो, कैलास में चलकर हम लोग महादेव के दर्शन करें।’
यह कहकर दोनों कैलास की ओर चल दिये। मुश्किल से आधी दूर गये होंगे कि देखते हैं भगरान शंकर स्वयं गिरिजा के साथ उनकी ओर चले आ रहे हैं। अब भगवान के आनंद का क्या ठिकाना? मानो घर बैठे निधि मिल गयी।पास आते ही दोनों परस्पर बड़े प्रेम से मिले। मानो प्रेम और आनंद का समुद्र उमड़ पड़ा। एक दूसरे को देखकर दोनों के नेत्रों से आनंदाश्रु बहने लगे और शरीर पुलकायमान हो गया। दोनों ही एक दूसरे से लिपटे हुए कुछ देर मूकवत् खड़े रहे। प्रश्नोत्तर होने पर मालूम हुआ कि शंकरजी को भी रात्रि में इसी प्रकार का स्वप्न हुआ कि मानो विष्णु भगवान को वे उसी रूप में देख रहे हैं, जिस रूप में वे अब उनके सामने खड़े थे। दोनों के स्वप्न का वृत्तांत अवगत होने पर दोनों ही लगे एक दूसरे से अपने यहां लिवा जाने का आग्रह करने। नारायण कहते वैकुंठ चलो और शंभु कहते कैलास की ओर प्रस्थान कीजिए। दोनों के आग्रह में इतना अलौकिक प्रेम था कि निर्णय करना कठिन हो गया कि कहां चला जाय। इतने में ही क्या देखते हैं कि वीणा बजाते, हरिगुण गाते नारदजी कहीं से आ निकले। बस, फिर क्या था? लगे दोनों ही उनसे निर्णय कराने कि कहां चला जाय? बेचारे नारदजी तो स्वयं परेशान थे उस अलौकिक मिलन को देखार; वे तो स्वयं अपनी सुध-बुध भूल गए और लगे मस्त होकर दोनों का गुणगान करने। अब निर्णय कौन करे? अंत में यह तय हुआ कि भगवती उमा जो कह दें वही ठीक है। भगवती उमा पहले तो कुछ देर चुप रहीं। अंत में वे दोनों को लक्ष्य करके बोलीं - ‘हे नाथ! हे नारायण! आप लोगों के निश्चल, अनन्य एवं अलौकिक प्रेम को देखकर तो यही समझ में आता है कि आपके निवास-स्थान अलग-अलग नहीं हैं, जो कैलास है वही वैकुण्ठ है और जो वैकुण्ठ है वही कैलास है, केवल नाम में ही भेद है। यही नहीं, मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी आत्मा भी एक ही है, केवल शरीर देखने में द्प हैं। और तो और मुझे तो अब यह स्पष्ट दीखने लगा है कि आपकी भार्याएं भी एक ही हैं, दो नहीं। जो मैं हूं वही श्रीलक्ष्मी हैं और जो श्रीलक्ष्मी हैं वही मैं हूं। केवल इतना ही नहीं, मेरी तो अब यह दृढ़ धारणा हो गई है कि आप लोगों में से एक के प्रति जो द्वेष करता है, वह मानो दूसरे के प्रति ही करता है, एक की जो पूजा करता है, वह स्वभाविक ही दूसरे की भी करता है और जो एक को अपूज्य मानता है, वह दूसरे की भी पूजा नहीं करता। मैं तो यह समझती हूं कि आप दोनों में जो भेद मानता है, उसका चिरकाल तक घोर पतन होता है। मैं देखती हीं कि आप मुझे इस प्रसंग में अपना मध्यस्थ बनाकर मानो मेरी प्रवंचना कर रहे हैं, मुझे चक्कर में डाल रहे हैं, मुझे भुला रहे हैं। अब मेरी यह प्रार्थना है कि आप लोग दोनों ही अपने-अपने लोक को पधारिए। श्रीविष्णु यह समझें कि हम शिवरूप से वैकुण्ठ जा रहे हैं और महेश्वर यह मानें कि हम विष्णुरूप से कैलास गमन कर रहे हैं।’
इस उत्तर को सुनकर दोनों परम प्रसन्न हुए और भगवती उमा की प्रशंसा करते हुए दोनों प्रणामालिंगन के अनंतर हर्षित हो अपने-अपने लोक को चले गए।
लौटकर जब श्रीविष्णु वैकुण्ठ पहुंचे तो श्रीलक्ष्मी जी उनसे पूछने लगीं कि - ‘प्रभो! सबसे अधिक प्रिय आपको कौन हैं?’ इस पर भगवान बोले - ‘प्रिये! मेरे प्रियतम केवल श्रीशंकर हैं। देहधारियों को अपने देह की भांति वे मुझे अकारण ही प्रिय हैं। एक बार मैं और शंकर दोनों ही पृथ्वी पर घूमने निकले। मैं अपने प्रियतम की खोज में इस आशय से निकला कि मेरी ही तरह जो अपने प्रियतम की खोज में देश-देशांतर में भटक रहा होगा, वही मुझे अकारण प्रिय होगा। थोड़ी देर के बाद मेरी श्रीशंकरजी से भेंट जो गयी। ज्यों ही हम लोगों की चार आंखें हुईं कि हम लोग पूर्वजन्मार्जित विज्ञा की भांति एक्-दूसरे के प्रति आकृष्ट हो गए। ‘वास्तव में मैं ही जनार्दन हूं और मैं ही महादेव हूं। अलग-अलग दो घड़ों में रखे हुए जल की भांति मुझमें और उनमें कोई अंतर नहीं है। शंकरजी के अतिरिक्त शिव की अर्चा करने वाला शिवभक्त भी मुझे अत्यंत प्रिय है। इसके विपरीत जो शिव की पूजा नहीं करते, वे मुझे कदापि प्रिय नहीं हो सकते।’

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