पुराणों का अर्थ समझने के लिए पहले सृष्टि की दार्शनिक भूमिका समझनी होगी। कहते हैं, प्रारंभ में एक ही मूल तत्व था, जिसे आदि द्रव्य (पदार्थ) कह सकते हैं।
उसमें कुछ हलचल या गति उत्पन्न होने के लिए जो ऊर्जा तत्व आवश्यक है और जिसके कारण सृष्टि संभव हुई, यह ईश्वर तत्व है। इसी को ‘विष्णु’ कहा गया।
बाद में सृजन, पालन और विकास तथा संहार के कालचक्र ने त्रिमूर्ति देवताओं की कल्पना दी। बीज ‘ब्रम्ह’ है।
अंकुर फूटकर वह वृक्ष बनता है। यह सृष्टि की पालनकारिणी तथा विकासपरक शक्ति ‘विष्णु’ है।
अंत में यह वृक्ष नष्ट हो जाता है, यह संहारक शक्ति ‘महेश’ है। इसी से ‘ब्रम्हा, विष्णु, महेश’ की कल्पना का उदय हुआ।
यह स्पष्ट है कि उस शक्ति के रूप में ईश्वर तत्व, जो पालनकर्ता है, जिसके द्वारा सृष्टि में सब विकसित होकर फूलते-फलते हैं, भिन्न युगों में, भिन्न रूपों एवं प्रतीकों में प्रकट हुआ।
सृजन शक्ति ने सृजन कर अपना कार्य किया और संहारक शक्ति ‘रूद्र’ तो संहार करेगी। इसीलिए सभी अवतार ‘विष्णु’ के हैं।
पुराणों में अवतारों की कथायें, जनश्रुतियाँ संकलित हैं। सारी चराचर सृष्टि ईश्वर का स्वरूप है। उसके छोटे-छोटे अंशों से विविध योनियों (species) की सृष्टि हुई, ऐसा पुराणों का कथन है।
पर जब ईश्वर का अधिक अंश लेकर कोई इस पृथ्वी पर पैदा हुआ तो उसे ईश्वर का अवतार कहा। कुल चौबीस अवतार कहे गए हैं, पर प्रमुखतया दस अवतारों की कथा कही जाती है। इन अवतारों में प्रथम चार-अर्थात वाराह, मत्स्य, कच्छप और नृसिंह-मानव नहीं हैं। पाँचवें अवतार वामन अर्थात् बौने हैं।
छठे अवतार परशुराम हैं। बाकी अवतार राम, कृष्ण और बुद्ध ऐतिहासिक व्यक्ति हैं, और कलियुग के अंत में जन्म लेंगे ‘कल्कि’।
इन अवतारों की कहानी में एक विशेष बात दिखाई पड़ती है। इनमें से प्रत्येक के द्वारा मानव समाज का कोई-न-कोई महत् कार्य संपन्न हुआ। इसी से ये ‘अवतार’ कहलाए।
संसार में तो जिन्होंने नया ‘पंथ’ चलाया और शिष्य परंपरा निर्मित की, उन्हें उस पंथ के अनुयायियों ने अवतार कहा।
मुहम्मद को मुसलमानों ने ईश्वर का दूत कहा, ईसा को ईसाइयों ने ईश्वर का पुत्र। ऐसा ही भारत के कुछ पंथों ने भी किया।
पर पुराणों में वर्णित इन अवतारी महापुरूषों ने संपूर्ण मानव समाज के लिए कोई-न-कोई महान कार्य किया।
गौतम बुद्ध को छोड़कर उनमें से किसी ने शिष्य परंपरा नहीं चलाई, न किसी मत के प्रवर्तक बने। यहाँ तक कि जिन लोगों ने राम और कृष्ण को अवतारी पुरूष बनाया ऐसे उनके गुरू-विश्वामित्र और संदीपनि ऋषि-को अवतार नहीं कहा।
चौबीसों अवतारों में प्रत्येक के द्वारा मानव मात्र के लिए कोई-न-कोई वंदनीय कार्य हुआ।
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