मानव जलप्लावन के पश्चात् आर्यावर्त में नाम को ही था। उस समय इसका नाम शाकद्वीप था। हमें पता नहीं उस समय दूसरा मानव भी वहाँ था या नहीं। हमें केवल इसी वन्यमानव का पता है, जो आज की समूची मानव प्रजाति का आदि पुरुष था।
एक उजाड़ टीले पर जिसके चारों ओर खुली भूमि थी, कुछ दूर वह गुफा में रहता था। टीले में एक ही गुफा थी और गुफा के दरवाजे पर खूब सघन ऊंचा एक पेड़ था। सुरक्षा की दृष्टि से उस मानव ने यह स्थान चुना था।
वह रक्षा के लिए एक खूब भारी पाषाण भल्ल रखता था। उसकी गुफा में शेर एवं भैंस के कई कच्चे चमड़े पड़े थे। जंगल में फल, कंद एकत्र करते समय इन आक्रमणकारी पशुओं का उसने आखेट किया था। सुपुष्ट माँसपेशियाँ, वृक्षों पर चढ़ने एवं सरकने को पुट्ठे, घुँघराले काले बाल, कुछ अधिक बड़े रोम, मंदे एवं श्मश्रु, उसका साढ़े चार हाथ ऊंचा साँवला शरीर बड़ा भव्य था।
उस दिन वह कन्द लेने गया था। सहसा चौंक पड़ा। हाथ में छोटा सा भल्ल लिए, कुछ छोटा, कुछ दुर्बल यह कौन प्राणी है ? लताओं की ओट में ही रहा वह। निकट से देखने का अवकाश मिला। उसके केश अधिक लम्बे हैं। शरीर पर रोम भी नहीं, न मूँछें ही हैं और न दाढ़ी। वृक्ष पर माँस पिण्ड।
उसने लक्षित कर लिया उसका अपने शरीर से अलगाव। उसका शरीर चिकना और कोमल है। माँसपेशी जैसे है ही नहीं। पता नहीं क्यों उसे दूसरे मानव के प्रति वह आकर्षित हो गया। यह आकर्षण सजातीयता के कारण ही था सम्भवतः।
जलप्लावन में वह शिशु ही था, तभी वह अकेला रह गया था। वह पुरुष स्त्री के भेद से अब तक परिचित ही नहीं था। लताओं की ओट से तनिक दूर हटकर वह उसके दृष्टि पथ में आया। निकट प्रकट होने से यदि आक्रमण कर दे तो ? वह भयभीत नहीं था , किन्तु इस सजातीय प्राणी का वध उसे अभीष्ट नहीं था। यह भी सम्भव था कि वही डरकर भाग जाये। ऐसा होने पर परिचय का पथ ही अवरुद्ध हो जाएगा।
उसने भी इसे देखा। चौंकने के पूरे लक्षण प्रकट हुए। देखता रहा एकटक वह प्राणी इसे देर तक। सम्भवतः सादृश्य एवं वैभिन्नय की तुलना कर रहा था। अचानक किलकारी मारी उसने।
न जाने किन पुरातन संस्कारों अथवा ईश्वरीय प्रेरणा से उसके मन में गूँज उठी, ओह, नारी है।’ पुरुष अपने मन ही मन कह उठा। चपल है, इसीलिए और उसका कण्ठ स्वर भी कितना कोमल है।
उत्तर में उसने किलकारी नहीं दी। जानता था कि इसकी गम्भीर ध्वनि से वह डर जाएगी। केवल वह हंस पड़ा। हाथ के संकेत से उसे समीप बुलाया और उसकी ओर बढ़ा।
सहसा वह भाग खड़ी हुई। लम्बी छलाँगें लीं हिरण की भाँति और एक दूसरे झुरमुट में होती अदृश्य हो गयी। पुरुष ने पीछा तो किया पर व्यर्थ। उसे खेद हुआ। पता नहीं क्यों, मन अवसाद से भर गया। फल और कन्द एकत्र न कर सका। गुफा में लौट आया और अपनी शिला पर चुपचाप पड़ा रहा।
अब पुरुष नित्य उसी ओर जाने लगा, जिधर नारी दिखाई पड़ी थी। क्या वह दूसरी ओर के जंगल से परिचित है ? अथवा वह भी पुरुष को देखना चाहती है ? कौन जाने ? वह तो सदा दूर ही रहती है। हंसती है, किलकती है किन्तु बुलाने पर अपनी ओर मनुष्य को आते देखते ही भाग खड़ी होती है।
एक दिन पुरुष लताकुन्ज में छिपा बैठा रहा। समय से बहुत पहले गया था वह। वह आयी, इधर उधर देखती रही देर तक। क्या वह पुरुष को ढूंढ़ रही थी ? उसने देखकर उसके मुख पर खिन्नता के चिन्ह प्रकट हो गाए। उदास होकर लौट पड़ी। पुरुष ने चुपचाप पीछा किया। वह सीधे अपनी गुफा पर गयी। पुरुष ने निवास स्थान दूर से देखा और लौट आया। ,
तब से न जाने कितनी बार वह उसकी गुफा के द्वार तक गया होगा, पर मिला नहीं शायद वह उसे नाराज नहीं करता चाहता था। नारी के प्रथम दर्शन से ही उसके मन में कोमल भावनाएं अंकुरित हो गयी थी।
जो शायद इतने दिनों में प्यार में बदल गई थीं यह धरती का पहला प्यार था। नारी भी तो उसे देखना चाहती थी, पाना चाहती थी। पर उसे तो उसका निवास भी नहीं मालूम था।
और आज जबकि वह नारी के गुफा के पास पहुँचा, तो वह सो रही थी। न जाने क्या सोचकर वह वहीं पास में बैठ गया। न जाने कितनी देर तक बैठा रहा वह।
उसे पता तो तब चला, जबकि नारी ने पीछे से आकर उसकी आँखें बन्द कर लीं और फिर तो अपरिचय-परिचय में बदल गया। दूरी समीपता में बदल गई। प्यार और प्रगाढ़ हो उठा।
अब तो कितने दिन उन दोनों को साथ रहते भी बीत गए। “मेरा मन अब यहाँ नहीं लगता।”
एक दिन पुरुष ने नारी से कहा। वह गुफा में पुरुष के समीप ही बैठी थी।
“ यहाँ मैं दो बार अस्वस्थ हो चुका।”
“तब चलो।”
नारी ने निश्चिन्त उत्तर दिया।
“हम दोनों मेरी पहली गुफा में रहें या जहाँ आपकी इच्छा हो।”
“मेरी बीमारी, ओह”
पुरुष का स्वर खिन्न था।
“पता नहीं कहाँ कहाँ से तुम अधजले खरगोश ले आती हो।”
“तुम तो यों ही रूठ जाते हो।”
पुरुष के कन्धे पर अपनी दाहिनी भुजा रखते हुए नारी ने कहा,
“यह खूब स्वादिष्ट था, यह तो तुम्हीं कहा करते हो। दावाग्नि तपने दो, मैं ढेरों ला दूँगी।”
बीमारी में नारी पुरुष को छोड़कर फल एकत्र करने भी नहीं जा सकी थी। सौभाग्य से समीप के वन में दावानल धधक उठा। पुरुष को प्रथम बार आग में पका माँस मिला। वह उसका स्वाद भूल नहीं पाता था। कच्चे माँस को भी उसने मुख में डाला, किन्तु खा नहीं सका।
“मैं दावाग्नि को ढूँढूँगा।”
पुरुष निश्चय कर चुका था। दावाग्नि को। नारी चौंकी, ना, ना ! कहीं उसी में फंस गए तो ? वह भय विह्वल हो उठी। इतने दिनों में उसकी प्रीति प्रगाढ़ हो उठी थी। वह पुरुष को खोना नहीं चाहती थी।
“मैं दूर रहकर ही उसे ढूँढूँगा।” पुरुष ने समझाते हुए कहा और सुरक्षित रहूँगा।”
हम खरगोश भूनेंगे। एक क्षण में नारी खिल उठी
“ उसे उसी में भूनेंगे। दावाग्नि काष्ठ हो तो खाता है, हम उसे काष्ठ खिलाते रहेंगे। वह बड़ा और मोटा होकर हमें नहीं खा सकेगा और हम उसे मरने भी नहीं देंगे। हम उसे अपनी गुफा से दूर ही पालेंगे, दूसरी गुफा में।”
नारी ने पूरा आविष्कार कर लिया था, अग्नि रक्षण प्रणाली का। लेकिन उसे भय था कि अपनी गुफा में पालने पर अग्नि रात्रि को सोते समय कहीं उन्हीं दोनों को न खा जाए।
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