Wednesday, 8 June 2016

मीरा चरित ॥ (5)

क्रमशः से आगे .........
 मीरा अभी भी तानपुरा ले गिरधर के सम्मुख श्याम कुन्ज में ही बैठी थी । वह दीर्घ कज़रारे नेत्र , वह मुस्कान , उनके विग्रह की मदमाती सुगन्ध और वह रसमय वाणी सब मीरा के स्मृति पटल पर बार बा�र उजागर हो रही थी ।

मेरे नयना निपट बंक छवि अटके ।
देखत रूप मदनमोहन को 
पियत पीयूख न भटके ।
बारिज भवाँ अलक टेढ़ी मनो अति सुगन्ध रस अटके॥
टेढ़ी कटि टेढ़ी कर मुरली टेढ़ी पाग लर लटके ।
मीरा प्रभु के रूप लुभानी गिरधर नागर नटके ॥
 मीरा को प्रसन्न देखकर मिथुला समीप आई और घुटनों के बल बैठकर धीमे स्वर में बोली - " जीमण पधराऊँ बाईसा ( भोजन लाऊँ )? "
" अहा मिथुला ! अभी थोड़ा ठहर जा "। मीरा के ह्रदय पर वही छवि बार बार उबर आती थी । फिर उसकी उंगलियों के स्पर्श से तानपुरे के तार झंकृत हो उठे.........
नन्दनन्दन दिठ (दिख) पड़िया माई,
साँ.......वरो........ साँ......वरो ।
नन्दनन्दन दिठ पड़िया माई ,
छाड़या सब लोक लाज ,
साँ......वरो ......... साँ......वरो
मोरचन्द्र का किरीट, मुकुट जब सुहाई ।
केसररो तिलक भाल, लोचन सुखदाई ।
साँ......वरो .....साँ....वरो ।
कुण्डल झलकाँ कपोल, अलका लहराई,
मीरा तज सरवर जोऊ,मकर मिलन धाई ।
साँ......वरो ....... साँ......वरो ।
नटवर प्रभु वेश धरिया, रूप जग लुभाई,
गिरधर प्रभु अंग अंग ,मीरा बलि जाई ।
साँ......वरो ....... साँ......वरो ।
 " अरी मिथुला ,थोड़ा ठहर जा ।अभी प्रभु को रिझा लेने दे । कौन जाने ये परम स्वतंत्र हैं .....कब भाग निकले ? आज प्रभु आयें हैं तो यहीं क्यों न रख लें ?"

 मीरा जैसे धन्यातिधन्य हो उठी ।लीला चिन्तन के द्वार खुल गये और अनुभव की अभिव्यक्ति के भी । दिन पर दिन उसके भजन पूजन का चाव बढ़ने लगा । वह नाना भाँति से गिरधर का श्रृगांर करती कभी फूलों से और कभी मोतियों से । सुंदर पोशाकें बना धारण कराती । भाँति भाँति के भोग बना कर ठाकुर को अर्पण करती और पद गा कर नृत्य कर उन्हें रिझाती । शीत काल में उठ उठ कर उन्हें ओढ़ाती और गर्मियों में रात को जागकर पंखा झलती । तीसरे -चौथे दिन ही कोई न कोई उत्सव होता ।

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