Sunday, 26 June 2016

हे प्रिय माधव....



क्या लिखूं तुम्हारे बारे में तुम तो असीम हो. तुम्हारे बारे में लिखने की सामर्थ्य मेरी लेखनी में नहीं है.

मैं तो बस इतना जानती हूँ कि तुम बलवानों का बल हो, सुन्दर स्त्री का सौन्दर्य हो, बुद्धिमानों की बुद्धि हो, शैतानों की शरारत हो, सूर्य का ताप, चन्द्रमा की शीतलता हो, गरीब व्यक्ति का धन हो, भूखे का भोजन हो।

जितनी तृप्ति एक भूखे व्यक्ति को भोजन पा कर होती है वही तृप्ति मुझे तुन्हें पाकर होती है।

साधकों का साध्य भी तुम हो और प्रेमियों का प्रेम भी तुम हो।

माँ की ममता भी तुम हो और पिता का दुलार भी तुम ही हो।

एक महत्वाकांक्षी की आकांक्षा हो और एक लोभी का लोभ हो।

कैसे तुम्हारा धन्यवाद करूँ कि तुमने यह मनुष्य जन्म दिया और साथ में मुझे संत-महात्माओं से मिलवा दिया जिससे कि मैं तुम्हें इस जीवन में समझ पायी, जान पायी, वरना मैं जाने कहाँ भटक रही होती इस बात से अनभिज्ञ कि मनुष्य जीवन किसलिए मिलता है।

अगर संत-महात्माओं से न मिलती तो न ये जान पाती कि जीवन का परम लक्ष्य तुम्हारा प्रेम प्राप्त करना है और न उसके लिए प्रयास ही करती, सारा जीवन बस तुमसे मांगती ही रहती. अब भी मांग ही रही हूँ कि मेरे अंदर तुम्हे प्राप्त करने की लोलुपता पैदा कर दो।

इतनी कृपा जरुर कर दो कि मैं तुम्हारे लिए तड़प सकूँ।

इतनी कृपा जरुर कर दो कि मेरे ये नेत्र तेरे दर्शन के प्यासे हो।

इतनी कृपा जरुर कर दो कि मेरे ये कान तुम्हारी लीलायें सुनने के लिए लालायित रहे।

इतनी कृपा जरुर कर दो कि मेरे ये हाथ आपकी तथा आपके भक्तों की सेवा करते रहे।

इतनी कृपा जरुर कर दो कि मेरी जिह्वा सदा तुम्हारा नाम ही उच्चारती रहे।

इतनी कृपा जरुर कर दो कि मेरी ये बुद्धि सदा तुम्हारी सेवा के बारे में सोचती रहे और यही सब करते-करते मैं अपना शरीर त्याग सकूँ।

हे माधव... मांगने की मेरी यह आदत जन्मो-जन्मों की आदत है, इतनी आसानी से जायेगी नहीं।

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