प्रभु मिलेंगे....
एक बार नारद मुनि आकाशमार्ग से वैकुण्ठ की ओर जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने धरती पर तपस्या करते एक मुनिवर को देखा तो सोचा क्युँ ना मिलते चलें, कोई महात्मा मालुम होते हैं, सो कुछ क्षण ठहर कर सत्संग का लाभ लिया जाए।
वह जमीन पर उतर आए; देवर्षि नारद को पहचान कर संत अत्यंत प्रसन्न हुए और यथाशक्ति उनकी आवभगत करने लगे। फिर उनसे उधर से गुजरने का कारण पूछा, देवर्षि ने बताया कि वे श्री नारायण के दर्शन के लिये वैकुण्ठ को जा रहे हैं। यह सुनकर महात्मा कुछ सोचने लगे।
उन्हें चिंतित देखकर देवर्षि नारद ने पूछा- “क्या हुवा..? महात्मन्!! क्या सोचने लगे..? कोई समस्या है तो मुझे बताएँ। शायद मै कुछ समाधान कर सकूँ।“
मुनिवर बोले- “देवर्षि! समस्या तो ऐसी कुछ नहीं। बस सोच रहा था इतने वर्ष हो गए श्री नारायण के दर्शनार्थ तपस्या करते; ना जाने क्या कमी रह गई जो प्रभु ने अब तक दर्शन न दिये। अब तो उम्र भी बीत चली। ना जाने इस तपस्या का क्या परिणाम होगा।“
देवर्षि नारद बोले- “धैर्य रखें। सब उत्तम ही होगा।“
मुनि बोले- “आप आज श्री नारायण के दर्शन करेंगे। अगर अन्यथा ना लें तो क्या मै आपके द्वारा अपना एक संदेश प्रभु तक पहुँचा सकता हूँ? क्या आप मेरा संदेश प्रभु से कह कर उत्तर ला देंगे।“
देवर्षि नारद बोले- “अवश्य, कहिये क्या संदेश है..?”
मुनि बोले- “आप बस इतना पूछियेगा कि क्या प्रभु मुझे कभी दर्शन देंगे?”
देवर्षि नारद बोले- “अच्छी बात है, मै आपका संदेश प्रभु को सुना कर उत्तर लेकर इसी मार्ग से लौटुँगा। आप तब तक धैर्य से प्रतिक्षा करें। अब विदा लेता हूँ।“
इतना कह देवर्षि नारद चले गए और मुनि वहीं उनके लौटने की राह देखने लगे।
देवर्षि नारद वैकुण्ठ पहुँचे और श्री नारायण के दर्शन कर लौटने लगे तो उन्होंने महत्मा का संदेश प्रभु को सुनाया।
प्रभु बोले- “आप उनसे कह दीजियेगा कि वे जिस पेड के नीचे बैठ कर तपस्या करते हैं उसमें जितने पत्ते हैं उतने जन्मों के बाद उन्हें दर्शन मिलेगा।“
देवर्षि नारद उत्तर सुनकर वैकुण्ठ से लौट आए। मुनि के आश्रम आए तो देखा वे प्रतिक्षा में हैं। मुनि के पूछने पर देवर्षि बोले- “प्रभु ने कहा है कि आप जिस वृक्ष के नीचे बैठ कर तपस्या करते हैं उसमे जितने पत्ते हैं। आपके उतने जन्मों के बाद आपको प्रभु का दर्शन मिलेगा।“
उनके इतना कहते ही और उनका आखिरी शब्द ‘दर्शन मिलेगा’ कान में पडते ही मुनि भावविह्वल हो उठे। और प्रसन्नता से गाते हुवे कि ‘मुझे प्रभु मिलेंगे’, ‘मुझे दर्शन मिलेगा’ कह-कहकर नाचने लगे।
अचानक देवर्षि नारद ने देखा श्री नारायण देव प्रकट हो गए हैं। वे हैरत में पड गए।
देवर्षि से रहा न गया तो प्रभु से बोले- “प्रभु! यह क्या आपने तो मुझे झूठा ही ठहरा दिया। आपने मुझसे कहा कि अभी इस पेड के पत्तो जितने जन्मों के बाद आप दर्शन देंगे लेकिन आप तो मेरे पीछे-पीछे ही आ गए। ऐसा कैसे हो गया प्रभु!!”
प्रभु बोले- “देवर्षि! मैंने सत्य कहा था, वास्तव में तब ये मुनि जिस भावावस्था से तपस्या कर रहे थे उससे उन्हें उतने जन्मों के बाद ही दर्शन मिलने वाला था। पर अभी तुम्हारे मुँह से मेरे दर्शन प्राप्ति का समाचार सुन वह एक क्षण में ही ह्दयस्थ भावों के चरम पर पहुँच गए सो उनके सभी जन्मों की बाधा तत्काल ही दूर हो गई और मुझे आना पडा।“
कहते हैं प्रभु मात्र ऊपरी कर्मकाण्ड को देख कर फल नहीं देते हैं वे तो ह्दय के भावानुसार फल देते हैं।
संत कबीरदास जी के शब्दों में...
“माला फेरत जुग भया फिरा न मन का फेर।
करका मनका डारि दे मनका मनका फेर॥“
No comments:
Post a Comment