भगवान शंकर के विष ग्रहण करने के बाद देवताओं और दैत्यो ने मंथन आरम्भ किया। समुद्र के चारों ओर बड़े जोर की आवाज उत्पन्न हुई। देव और असुरों ने जब सिर उठाकर देखा तो पता चला कि यह साक्षात सुरभि कामधेनु गाय थी। इस गाय को काले, श्वेत, पीले, हरे तथा लाल रंग की सैकड़ों गौएं घेरे हुई थीं। उस समय ऋषियों ने बड़े हर्ष में भरकर देवताओं और दैत्यों से कामधेनु के लिये याचना की और कहा- आप सब लोग मिलकर भिन्न-भिन्न गोत्र वाले ब्राह्मणों को कामधेनु सहित इन सम्पूर्ण गौओं का दान अवश्य करें। ऋषियों के याचना करने पर देवताओं और दैत्यों ने भगवान् शंकर की प्रसन्नता के लिये वे सब गौएँ दान कर दीं। कामधेनु अग्निहोत्र की सामग्री उत्पन्न करने वाली थी। इसलिए बह्मलोक तक पहुंचाने वाले यज्ञ के लिये उपयोगी पवित्र घी, दूध, आदि प्राप्त करने के लिये बह्मवादी ऋषियों ने उसे ग्रहण किया। तभी से भारत वर्ष में गौपूजन कल्याणकारी माना जाता है। पुराणों में गौरस को अमृत के समान माना गया है। माता कामधेनु को सुख शांति और कल्याण का प्रतीक भी माना जाता है। पुराणों में कामधेनु गाय को नंदा, सुनंदा, सुरभी, सुशीला और सुमन भी कहा गया है।
हिन्दू धर्म में हमेशा से ही "गाय" को एक पवित्र पशु माना गया है, ना केवल एक जीव वरन् हिन्दू मान्यताओं ने गाय को "मां" की उपाधि दी है। गाय को मनुष्य का पालनहार माना गया और इससे मिलने वाले दूध को अमृत के समान माना जाता है और यह मान्यता कुछ महीनों, वर्षों या दशकों की नहीं बल्कि युगों युगों से गाय की महिमा का बखान मिलता है।
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