सीताजी, राम जी और लक्ष्मणजी जंगल में एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। उस वृक्ष की शाखाओं और टहनियों पर एक लता छाई हुई थी। लता के कोमल-कोमल तन्तु फैल रहे थे। उन तन्तुओं में कही पर नयी-नयी कोंपलें निकल रही थीं और कहीं पर ताम्रवर्ण के पत्ते निकल रहे थे। पुष्प और पत्तों से लता छाई हुई थी। उससे वृक्ष की सुन्दर शोभा हो रही थी। वृक्ष बहुत ही सुहावना लग रहा था।
उस वृक्ष की शोभा को देखकर भगवान श्रीराम लक्ष्मण जी से बोलेः "देखो लक्ष्मण ! यह लता अपने सुन्दर-सुन्दर फल, सुगन्धित फूल और हरी-हरी पत्तियों से इस वृक्ष की कैसी शोभा बढ़ रही है ! जंगल के अन्य सब वृक्षों से यह वृक्ष कितना सुन्दर दिख रहा है ! इतना ही नहीं, इस वृक्ष के कारण ही सारे जंगल की शोभा हो रही है। इस लता के कारण ही पशु-पक्षी इस वृक्ष का आश्रय लेते हैं। धन्य है यह लता !"
भगवान श्रीराम के मुख से लता की प्रशंसा सुनकर सीताजी लक्ष्मण से बोलीः
"देखो लक्ष्मण भैया ! तुमने ख्याल किया कि नहीं ? देखो, इस लता का ऊपर चढ़ जाना, फूल पत्तों से छा जाना, तन्तुओं का फैल जाना, ये सब वृक्ष के आश्रित हैं, वृक्ष के कारण ही हैं। इस लता की शोभा भी वृक्ष के ही कारण है। अतः मूल में महिमा तो वृक्ष की ही है। आधार तो वृक्ष ही है। वृक्ष के सहारे बिना लता स्वयं क्या कर सकती है ? कैसे छा सकती है ? अब बोलो लक्ष्मण जी ! तुम्हीं बताओ, महिमा वृक्ष की ही हुई न ? वृक्ष का सहारा पाकर ही लता धन्य हुई न ?"
राम जी ने कहाः "क्यों लक्ष्मण ! यह महिमा तो लता की ही हुई न ? लता को पाकर वृक्ष ही धन्य हुआ न ?"
लक्ष्मण जी बोलेः "हमें तो एक तीसरी ही बात सूझती है।"
सीता जी ने पूछाः "वह क्या है देवर जी ?"
लक्ष्मणजी बोलेः "न वृक्ष धन्य है न लता धन्य है। धन्य तो यह लक्ष्मण है जो दोनों की छाया में रहता है।"
भगवान और उनकी दिव्य आह्लादिनी शक्ति, दोनों ही एक दूसरे की शोभा बढ़ाते हैं। कोई उन दोनों को श्रेष्ठ बताता है, कोई केवल भगवान को श्रेष्ठ बताता है और कोई केवल उनकी आह्लादिनी शक्ति को श्रेष्ठ बताता है। शरणागत भक्त के लिए तो प्रभु और उनकी आह्लादिनी शक्ति दोनों का ही आश्रय श्रेष्ठ है।
जब मनुष्य भगवान की शरण हो जाता है, उनके चरणों का सहारा ले लेता है तो वह सम्पूर्ण प्राणियों से, विघ्न-बाधाओं से निर्भय हो जाता है। उसको कोई भी भयभीत नहीं कर सकता, कोई भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
भगवान के साथ काम, भय, द्वेष, क्रोध, स्नेह आदि से भी सम्बन्ध क्यों न जोड़ा जाय, वह भी जीव का कल्याण करने वाला ही होता है।
केवल एक भगवान की शरण होने का तात्पर्य है – केवल भगवान मेरे हैं, अब वे ऐश्वर्य-सम्पन्न हैं तो बड़ी अच्छी बात है, और कुछ भी ऐश्वर्य नहीं है तो बड़ी अच्छी बात। वे बड़े दयालु हैं तो बड़ी अच्छी बात और इतने निष्ठुर, कठोर हैं कि उनके समान दुनियाँ में कोई कठोर ही नहीं, तो भी बड़ी अच्छी बात। उनका बड़ा भारी प्रभाव है तो बड़ी अच्छी बात, और उनमें कोई प्रभाव नहीं हो तो भी बड़ी अच्छी बात।
शरणागत में इन बातों की कोई परवाह नहीं होती। उसका तो एक ही भाव रहता है कि भगवान जैसे भी हैं, हमारे हैं। भगवान की इन बातों की परवाह न होने से भगवान का ऐश्वर्य, माधुर्य, सौन्दर्य, गुण, प्रभाव आदि चले जायेंगे ऐसी बात नहीं है। पर हम उनकी परवाह नहीं करेंगे तो हमारी असली शरणागति होगी।
शरणागत भक्त को भजन नहीं करना पड़ता, उसके द्वारा स्वतः स्वाभाविक भजन होता है। भगवान का नाम उसे स्वाभाविक ही बड़ा मीठा, प्यारा लगता है। जैसे श्वास अपने आप चलता रहता है, श्वास के बिना हम जी नहीं सकते ऐसे ही शरणागत भक्त भजन के बिना नहीं रह सकता।
जिसको सब कुछ अर्पित कर दिया उसके विस्मरण में परम व्याकुलता, महान् छटपटाहट होने लगती है। 'नारदभक्ति सूत्र' में आया हैः तद्विस्मरणे परम व्याकुलतेति। ऐसे भक्त से अगर कोई कहे कि आधे क्षण के लिए भगवान को भूल जाओ तो तीनों लोकों का राज्य मिलेगा, तो वह इसे ठुकरा देगा। भागवत में आया हैः
'तीनों लोकों के समस्त ऐश्वर्य के लिए भी उन देवदुर्लभ भगवच्चरणकमलों को जो आधे निमेष के लिए भी नहीं त्याग सकते, वे ही श्रेष्ठ भगवदभक्त हैं।'
भगवान कहते हैं- 'स्वयं को मुझे अर्पित करने वाला भक्त मुझे छोड़कर ब्रह्मा का पद, इन्द्र का पद, सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य, पातालादि लोकों का राज्य, योग की समस्त सिद्धियाँ और मोक्ष को भी नहीं चाहता।
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