Tuesday 12 July 2016

मन, वचन व कर्म से एक होना जरूरी___

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जब हमें कोई महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा जाए, वह तब पूरा होगा जब हमारे पास उसे करने का तरीका निराला होगा। चर्चा चल रही है किष्किंधा कांड के उस प्रसंग की जब वानरों को सीताजी की खोज का बड़ा दायित्व सौंपा गया था। सुग्रीव के मुंह से जो आदेश निकल रहे थे वे आज प्रबंधन के युग में किसी बड़ी जिम्मेदारी को पूरा करने के सबक हैं।

तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी,

‘मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु। रामचंद्र कर काजु संवारेहु।। भानु पीठि सेइअ उर आगी। स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी।।’

मन, वचन तथा कर्म से उसी का (सीताजी का पता लगाने का) उपाय सोचना। श्री रामचंद्र जी का कार्य सम्पन्न करना। सूर्य को पीठ से और अग्नि को हृदय से सेवन करना चाहिए। परंतु स्वामी की सेवा तो छल छोड़कर सर्वभाव से (मन, वचन, कर्म से) करनी चाहिए।

इन पंक्तियों में तुलसीदासजी ने मन, वचन और कर्म से काम करने की हिदायत दी है। होता यह है कि हमारे मन में कुछ और होता है, बोलते कुछ और हैं तथा करते कुछ और। जितना यह भेद है आप उतने ही कमजोर होते जाएंगे।

मन, वचन और कर्म इन तीनों में मन और चंद्रमा एक-दूसरे से संचालित होते हैं। इसलिए राम जी के नाम को उन्होंने रामचंद्र लिखा, तो मन का संबंध चंद्रमा से है।

कर्म का संबंध सूर्य से है और वचन का संबंध अग्नि से। आगे लिखा, ‘स्वामी का कार्य छल-कपट छोड़कर करना चाहिए।’

इसी के उदाहरण में समझाया कि जैसे हम सूर्य को पीठ से और अग्नि को सामने से सेंकते हैं तो इसमें हमारा स्वार्थ होता है, क्योंकि सूर्य पीठ से सेंकने पर ही उपयोगी है और अग्नि सामने से। नहीं तो दोनों नुकसान करेंगे।

जब आपको कोई आदेश दिया जाए। स्वामी मतलब आपका प्रबंधन हो सकता है, वह आपकी व्यवस्था हो सकती है। ऐसे काम में छल-कपट या भेद न करें।

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