Saturday, 16 July 2016

लिपि की उत्पत्ति गणपति द्वारा हुयी

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गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणा ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नृतिभिः सीद सादनम्॥१॥
विश्वेभ्यो हित्वा भुवनेभ्यस्परि त्वष्टाजनत् साम्नः कविः।
स ऋणया (-) चिद्-ॠणया (विन्दु चिह्नेन) ब्रह्मणस्पतिर्द्रुहो हन्तमह
ऋत- (Right, writing, सत्य का विस्तार ऋत)स्य धर्तरि।१७॥
(ऋक् २/२३/१,१७)
= ब्रह्मा ने सर्व-प्रथम गणपति को कवियों में श्रेष्ठ कवि के रूप में अधिकृत किया अतः उनको ज्येष्ठराज तथा ब्रह्मणस्पति कहा। उन्होंने श्रव्य वाक् को ऋत (विन्दुरूप सत्य का विस्तार) के रूप में स्थापित किया।
श्रव्य वाक्य लुप्त होता है, लिखा हुआ बना रहता है (सदन = घर, सीद = बैठना, सीद-सादनम् = घर में बैठाना)। पूरे विश्व का निरीक्षण कर (हित्वा) त्वष्टा ने साम (गान, महिमा = वाक् का भाव) के कवि को जन्म दिया।
उन्होंने ऋण चिह्न (-) तथा उसके चिद्-भाग बिन्दु द्वारा पूर्ण वाक् को (जिसे हित्वा = अध्ययन कर साम बना था) ऋत (लेखन ) के रूप में धारण (स्थायी) किया।
आज भी चीन की ई-चिंग लिपि में रेखा तथा बिन्दु द्वारा ही अक्षर लिखे जाते हैं। इनके ३ जोड़ों से ६४ अक्षर (२६ = ६४) बनते हैं जो ब्राह्मी लिपि के वर्णों की संख्या है। टेलीग्राम के मोर्स कोड में भी ऐसे ही चिह्न होते थे।
देवलक्ष्मं वै त्र्यालिखिता तामुत्तर लक्ष्माण देवा उपादधत (तैत्तिरीय संहिता,५/२/८/३)
ब्रह्मा द्वारा इस प्रकार लेखन का आरम्भ हुआ-
नाकरिष्यद् यदि ब्रह्मा लिखितम् चक्षुरुत्तमम्।
तत्रेयमस्य लोकस्य नाभविष्यत् शुभा गतिः॥
(नारद स्मृति)
षण्मासिके तु समये भ्रान्तिः सञ्जायते यतः।
धात्राक्षराणि सृष्टानि पत्रारूढ़ान् यतः परां॥
(बृहस्पति-आह्निक तत्त्व)
ब्रह्मा द्वारा अधिकृत बृहस्पति ने प्रतिपद के लिये अलग चिह्न बनाये थे।
यदेषां श्रेष्ठं यदरि प्रमासीत् तदेषां निहितं गुहाविः॥ (ऋक् १०/७१/१)
पहले सभी वस्तुओं के केवल नाम ही दिये गये। गुहा के भीतर वाक् के जो ३ पद थे, उनको ज्यों का त्यों वैखरी वाक् (उच्चरित और लिखित) में व्यक्त किया।
अव्यक्त वाणी को व्यक्त रूप में यथा-तथ्य उपसर्ग-प्रत्यय, कारक, विराम चिह्नों (पाप-विद्ध) आदि द्वारा वाक्य में प्रकट करने से वह शाश्वत होती है-
स पर्यगात् शुक्रं अकायं अव्रणं अस्नाविरं शुद्धं अपापविद्धं कविः मनीषी परिभूः स्वयम्भूः याथा-तथ्यतो अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥ (ईशावास्योपनिषद्)।
वाल्मीकि ने भी राम कथा के माध्यम से तात्कालिक घटना को सनातन वेदार्थ रूप में प्रकट किया अतः वह शाश्वती समा = आदिकाव्य बना।
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्।
वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे॥
(मनुस्मृति १/२१)
ऋष्यस्तपसा वेदानध्यैषन्त दिवानिशम्। अनादिनिधना विद्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा॥
नाना रूपं च भूतानां कर्मणां च प्रवर्तनम्। वेद शब्देभ्य एवादौ निर्मिमीते स ईश्वरः॥
(महाभारत शान्ति पर्व २३२/२४-२६)
बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत् प्रैरत् नामधेयं दधानाः।
प्रतिशब्द के अध्ययन को शब्द-पारायण कहते थे। पूरे जीवन पढ़ने पर भी से समझना सम्भव नहीं था, अतः शुक्र (उशना) ने इसे मारणान्तक व्याधि कहा।
बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यवर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दपारायणं प्रोवाच।
(पतञ्जलि-व्याकरण महाभाष्य १/१/१)
तथा च बृहस्पत्ः-प्रतिपदं अशक्यत्वात् लक्षणस्यापि अव्यवस्थितत्वात् तत्रापि तत्रापि स्खलित दर्शनात् अनवस्था प्रसंगाच्च मरणान्तो व्याधिः व्याकरणमिति औशनसा इति।
(न्याय मञ्जरी)
इसमें सुधार के लिये इन्द्र ने ध्वनि-विज्ञान के आचार्य मरुत् की सहायता से शब्दों को अक्षरों और वर्णों में बांटा तथा वर्णो को उच्चारण स्थान के आधार पर वर्गीकृत किया।
वाफ़् वै पराची अव्याकृता अवदत्।
ते देवा इन्द्रं अब्रुवन्-इमां नो वाचं व्याकुरुत-इति। …
तां इन्द्रो मध्यत अपक्रम्य व्याकरोत्।
तस्मादिदं व्याकृता वाग् उद्यते इति।
(तैत्तिरीय संहिता ६/४/७)
सायण भाष्य– तामखण्डां वाचं मध्ये विच्छिद्य प्रकृति-प्रत्यय विभागं सर्वत्राकरोत्।
स (इन्द्रो) वाचैव व्यवर्तयद् (मैत्रायणी संहित् ४/५/८)
इसमें क से ह तक ३३ व्यञ्जन सौरमण्डल के ३३ भागों के प्राण रूप ३३ देवों के चिह्न हैं। १६ स्वर मिलाने पर ४९ वर्ण ४९ मरुतों के चिह्न हैं जो पूरी आकाशगंगा के क्षेत्र हैं। चिह्न रूप में देवों का नगर होने के कारण इसे देवनागरी कहा गया।
इन्द्र पूर्व के तथा मरुत उत्तर-पश्चिम के लोकपाल थे। आज भी पूर्वी भारत से पश्चिमोत्तर सीमा तक देवनागरी प्रचलित है (वर्णों के रूपमात्र अलग हैं)।
वर्णों के संकेत से सूत्र महेश्वर ने बनाये जिनसे क्रमशः व्याकरण परम्परा चली-
येनाक्षर समाम्नायं अधिगम्य महेश्वरात्।
कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नम्ः।
(पाणिनीय शिक्षा, अन्तिम श्लोक)
समुद्रवत् व्याकरणे महेश्वरे ततोऽम्बु कुम्भोद्धरणं बृहस्पतौ।
तद् भाग भागाच्च शतं पुरन्दरे कुशाग्र विन्दूत्पतितं हि पाणिनौ।
(सारस्वत भाष्य)
ब्रह्मा बृहस्पतये प्रोवाच, बृहस्पतिरिन्द्राय, इन्द्रो भरद्वाजाय, भरद्वाज ऋषिभ्यः, ऋषयो ब्राह्मणेभ्यः। (ऋक् तन्त्र)
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ऐंकार ह्रींकार रहस्ययुक्त क्लींकार गूढार्थ महा विभूत्या।
ओंकार मर्म प्रतिपादिनीभ्यां नमो नमः श्रीगुरु पादुकाभ्यां॥
ऐं = चण्डीपाठे सरस्वती बीज। त्रयी समाहारः।
ऋग् वेदस्य प्रथमाक्षरः अ-अग्निंईळे पुरोहितं, होतारं रत्नधातमं, यज्ञस्यदेवमृत्विजम्।
यजुर्वेदस्य प्रथमाक्षरः ई-ईषे त्वोर्ज्जे त्वा वायवस्थ…।
सामवेदस्य प्रथमाक्षरः अ-अग्न आयाहि वीतये, गृणानो हव्यदातयः, निहोता सत्सि बर्हिषि। एषां योगः अ+ (अ+ई) = अ+ए = ऐ। अनुस्वार रूपेण अर्द्धमात्रा ब्रह्मरूपी अथर्व वेदः। अतः ऐं = विद्यास्रोता सरस्वती।
प्रणवस्य त्रयो रूपाः-ईं, ॐ, श्रीं। प्रत्येकः त्रिभागात्मकः, तस्मात् नव (९) भागाः, प्र+नव = प्रणव।
ॐ = निराकार निर्विशेष परात्पर।
ईं = तस्य इच्छाशक्ति, काम बीजः-सो अकामयत् (तैत्तिरीय उपनिषद् २/६)।
य ईं चकार सो अस्य वेद, य ईं ददर्श हिरुगिन्नु तस्मात् (ऋक् १/१६४/३२)
तिस्रो मातॄस्त्रीन् पितॄन् बिभ्रदेक ऊर्ध्वतस्थौ नेमवग्लापयन्ति। (ऋक् १/१६४/१०)
नेमवग्लापयन्ति = न ईं अवग्लापयन्ति।
य ईं चिकेत गुहा भवन्तमा यः ससाद धारामृतस्य।
(ऋक् १/६७/४)
श्रीसूक्त-तां पद्मिनीमीं (पद्मिनीं + ईं) शरणमाह्ं प्रपद्ये।
आयातु वरदा देवी अक्षरं ब्रह्मसंमितम्। गायत्री छन्दसां माता य इदं -ब्रह्म ईं) जुषस्व मे।
(तैत्तिरीय आरण्यक १०/३४/१, नारायण उपनिषद् १५/१)
ईङ्काराय स्वाहा। ईङ्कृताय स्वाहा।
(तैत्तिरीय संहिता ७/१/१९/९)
श्रीं = निर्मित विश्व, ब्रह्म विभूति। श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ
(वाज. यजु ३१/२२)
अहेबुध्नियमन्त्रं मे गोपायायमृषयस्त्रयी विदा विदुः। ऋचः सामानि यजूँषि सा हि श्री-रमृता सताम्।
(तैत्तिरीय ब्राह्मण १/२/१/९)
ह्रीं = हृदय। क्रिया रुपः ह्रीं बीजः, प्रतिगुहायां क्रिया, स हृदय गुहा। हृदय = हृ+द+य, हृ = आहरण, द = दान, य = यम (नियमन, यज्ञस्य चक्रवत् गतिः)।
ह्रीं क्रियया अव्यक्तस्य व्यक्तरूपेन सृष्टिः-इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्त हरयः (ह्रीं-बहुवचन) शतादश॥ (ऋक् ६/४७/८)

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