( Kundalini Sadhana )
कुण्डलिनी शक्ति क्या है?
योग कुण्डल्युपनिषद् में कुण्डलिनी का वर्णन इस तरह किया गया है-
´कुण्डले अस्या´ स्त: इति: कुण्डलिनी।
दो कुण्डल वाली होने के कारण पिण्डस्थ उस शक्ति प्रवाह को कुण्डलिनी कहते हैं। दो कुण्डल अर्थात इड़ा और पिंगला। बाईं ओर से बहने वाली नाड़ी को ´इड़ा´ और दाहिनी ओर से बहने वाली नाड़ी को ´पिगला´ कहते हैं।
इन दोनों नाडियों के बीच जिसका प्रवाह होता है, उसे सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं। इस सुषुम्ना नाड़ी के साथ और भी नाड़ियां होती है। जिसमें एक चित्रणी नाम की नाड़ी भी होती है। इस चित्रणी नाम की नाड़ी में से होकर कुण्डलिनी शक्ति प्रवाहित होती है, इसलिए सुषुम्ना नाड़ी की दोनों ओर से बहने वाली उपयुक्त 2 नाड़ियां ही कुण्डलिनी शक्ति के 2 कुण्डल हैं।
कुण्डलिनी यज्ञ का विशेष वर्णन करते हुए मुण्डकोपनिषद के २/१/८ संदर्भ में कहा गया है-
''सत्तप्राणी उसी से उत्पन्न हुए । अग्नि की सात ज्वालाएँ उसी से प्रकट हुईं । यही सप्त समिधाएँ हैं, यही सात हवि हैं । इनकी ऊर्जा उन सात लोकों तक जाती जिनका सृजन परमेश्वर ने उच्च प्रयोजनों के लिए किया गया है ।''
उपनिषद् में कुण्डलिनी शक्ति के स्वरूप का वर्णन-
मूलाधारस्य वहवयात्म तेजोमध्ये व्यवस्थिता।
जीवशक्ति: कुण्डलाख्या प्राणाकारण तैजसी।।
अर्थात कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में स्थित आत्माग्नी तेज के मध्य में स्थित है। वह जीवनी शक्ति है। तेज और प्राणाकार है।
कुण्डलिनी शक्ति का ज्ञानार्णव तंत्र में वर्णन इस प्रकार किया गया है-
मूलाधारे मूलविद्दया विद्युत्कोटि समप्रभासम्।
सूर्यकटि प्रतीकाशां चन्द्रकोटि द्रवां प्रिये।।
अर्थात मूलाधार चक्र में विद्युत प्रकाश ही करोड़ों किरणों वाला, करोड़ों सूर्यो और चन्द्रमाओं के प्रकाश के समान, कमल की डण्डी के समान अविच्छिन्न तीन घेरे डाले हुए मूल विद्या रूपिणी कुण्डलिनी स्थित है। वह कुण्डलिनी परम प्रकाशमय है, अविच्छिन्न शक्तिधारा है और तेजोधारा है।
घेरण्ड संहिता के अनुसार-
घेरण्ड संहिता में कुण्डलिनी को ही आत्मशक्ति या दिव्य शक्ति व परम देवता कहा गया है।
मूलाधारे आत्मशक्ति: कुण्डली परदेवता।
शमिता भुजगाकारा, सार्धत्रिबलयान्विता।।
अर्थात मूलाधार में परम देवी आत्माशक्ति कुण्डलिनी तीन बलय वाली सर्पिणी के समान कुण्डल मारकर सो रही है।
महाकुण्डलिनी प्रोक्त: परब्रह्म स्वरूपिणी।
शब्दब्रह्ममयी देवी एकाऽनेकाक्षराकृति:।।
अर्थात कुण्डलिनी शक्ति परम ब्रह्मा स्वरूपिणी, महादेवी, प्राण स्वरूपिणी तथा एक और अनेक अक्षरों के मंत्रों की आकृति में माला के समान जुड़ी हुई बतायी जाती है।
कन्दोर्ध्व कुण्डली शक्ति: सुप्ता मोक्षाय योगिनाम्।
बन्धनाय च मूढ़ानां यस्तां वेति से योगिवित्।।
अर्थात कन्द के ऊपर कुण्डलिनी शक्ति अवस्थित है। यह कुण्डलिनी शक्ति सोई हुई अवस्था में होती है। इस कुण्डलिनी शक्ति के द्वारा ही योगिजनों को मोक्ष प्राप्त होता है। सुख के बन्धन का कारण भी कुण्डलिनी है। जो कुण्डलिनी शक्ति को अनुभव पूर्ण रूप से कर पाता है, वही सच्चा योगी होता है।
सप्त लोकों का देवी भागवत में अन्य प्रकार से उल्लेख हुआ है-
उसमें भूः में धरित्री भुवः में वायु स्वः में तेजस महः में महानता, जनः में जनसमुदाय, तपः में तपश्चर्या एवं सत्य में सिद्धवाण्-वाक सिद्धि रूप सात शक्तियाँ समाहित बतायी गयी हैं ।
इस प्रकार कुण्डलिनी योग के अंतर्गत चक्र समुदाय में वह सभी कुछ आ जाता है, जिसकी कि भौतिक और आत्मिक प्रयोजनों के लिए आवश्यकता पड़ती है ।
मानवी काया को एक प्रकार से भूलोक के समान माना गया है। इसमें अवस्थित मूलाधार चक्र को पृथ्वी की तथा सहस्रार को सूर्य की उपमा दी गई है । दोनों के बीच चलने वाले आदान-प्रदान माध्यम को मेरुदण्ड कहा गया है ।
ब्रह्मरंध्र ब्रह्मण्ड का प्रतीक है । ठीक इसी प्रकार सहस्रार लोक ब्रह्मण्डीय चेतना का अवतरण केन्द्र है और इस महान् भण्डागार में से मूलाधार को जिस कार्य के लिए जितनी मात्रा में जिस स्तर की शक्ति कि आवश्यकता होती है उसकी पूर्ति लगातार होती रहती है
कुण्डलिनी प्रसंग योग वशिष्ठ, योग चूड़ामणि, देवी भवगत्, शारदा तिलक, शान्डिल्योसपनिषद मुक्ति-कोपनिषद, हठयोग संहिता, कुलार्णन तंत्र, योगिनी तंत्र बिन्दूपनिषद, रुद्र यामल तंत्र सौन्दर्य लहरी आदि गंथों में विस्तार पूर्वक दिया गया है ।
यही कारण है कि ऋग्वेद में ऋषि कहते हैं-
हे ''प्राणाग्नि! मेरे जीवन में ऊषा बनकर प्रकटों अज्ञान का अंधकार दूर करों, ऐसा बल प्रदान करो जिससे देव शक्तियाँ खिंची चली आएँ ।''
त्रिशिखिब्रहोपनिषद में शास्त्रकार ने कहा है-
''योग साधना द्वारा जगाई हुई कुण्डलिनी बिजली के समान तडपती और चमकती है । उससे जो है, सोया सा जागता है । जो जागता है, वह दौड़ने लगता है ।''
महामंत्र में वर्णन आता है-
''जाग्रत हुई कुण्डलिनी असीम शक्ति का प्रसव करती है । उससे नाद बिन्दू, कला के तीनों अभ्यास स्वयंमेव सध जाते हैं । परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी चारों वाणियाँ मुखर हो उठती हैं । इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति में उभार आता है । शरीर-वीणा के सभी तार क्रमबद्ध हो जाते हैं और मधुर ध्वनि में बजते हुए अन्तराल को झंकृत करते हैं । शब्दब्रह्म की यह सिद्धि मनुष्य को जीवनमुक्त कर देवात्मा बना देती है । ''
शरीर में कुण्डलिनी की अवस्था-
जन्नेन्द्रिय के मूल में या लिंग उपस्थ में नाड़ियों का एक गुच्छा है। योग शास्त्रों में इसी को “कन्द” कहा जाता है। इसी पर कुण्डलिनी गहरी नींद में जन्म-जन्मान्तर से सो रही होती है।
कुण्डलो कुटिलाकारा सर्पवत् परिकीर्तिता।
सा शक्तिश्चालिता येन, स युक्तों नात्र संशय।।
अर्थात कुण्डलिनी को सर्प के आकार की कुटिल कहा गया है। जिस तरह सांप कुण्डली मारकर सोता है, उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति भी आदिकाल से ही मनुष्य के अन्दर सोई हुई रहती है।
यावत्सा निद्रिता देहे तावज्जीव: पयुयेथा।
ज्ञान न जायते तावत् कोटि योगविधेरपि।।
अर्थात जब तक कुण्डलिनी शक्ति मनुष्य के अन्दर सोई हुई अवस्था में रहती है, तब तक मनुष्य परिस्थिति के अधीन रहता है। ऐसे व्यक्ति का आचरण पशुओं के समान होता है।
ऐसे व्यक्ति दीन-हीन जीवन यापन करते हैं, तथा उनका रहन-सहन, भावों और विचारों, आहार-विहार आदि में आत्म विश्वास, धैर्य, सूझ-बूझ, उमंग, उत्साह, उल्लास, दृढ़ता, स्थिरता, एकाग्रता, कार्य कुशलता, उदारता और हृदय विशालता जैसे गुणों का अभाव होता है। ऐसे व्यक्ति अनेक योग साधना, पूजा-पाठ आदि करके भी अपने ब्रह्माज्ञान विवेक को प्राप्त नहीं कर पाता।
मूलाधारे प्रसुप्त साऽऽमशक्ति उन्न्द्रिता-
विशुद्धे तिष्ठति मुक्तिरूपा पराशक्ति:।
अर्थात वह प्रबल आत्मशक्ति मूलाधार में सो रही है। उसका प्रयोग किसी बड़े या चमत्कारी कार्य में न होने से वह अपमानित व्यक्ति की तरह शिथिल और गतिहीन बनी हुई है। व्यक्ति के अन्दर जागी हुई इच्छाशक्ति के महान उद्देश्यों की पूर्ति में नियोजित वही शक्ति पराशक्ति के रूप में विराजती है।
कुण्डलिनी जागृत करने का कारण-
शरीर के अन्दर कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होने से शरीर के अन्दर मौजूद दूषित कफ, पित्त, वात आदि से उत्पन्न होने वाले विकार नष्ट हो जाते हैं। इसके जागरण से मनुष्य के अन्दर काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे दोष, आदि खत्म हो जाते हैं।
इस शक्ति का जागरण होने से यह अपनी सोई हुई अवस्था को त्याग कर सीधी हो जाती है और विद्युत तरंग के समान कम्पन के साथ इड़ा, पिंगला नाड़ियों को छोड़कर सुषुम्ना से होते हुए मस्तिष्क में पहुंच जाती है।
कुण्डल्येव भवेच्छक्तिस्तां तु सचालयेत बुध:।
स्पश्यनादाभ्रवोर्मध्य, शक्तिचालनमुच्चते।।
अर्थात अपने अन्दर आंतरिक ज्ञान व अत्याधिक शक्ति की प्राप्ति के लिए सभी मनुष्यों को चाहिए कि वह अपने अन्दर सोई हुई कुण्डलिनी (आत्मशक्ति) का जागरण करें, उसे कार्यशील बनाएं!
प्राणायाम के द्वारा जब मूलाधार से स्फूर्ति तरंग की तरह ऊर्जा शक्ति उठकर मस्तिष्क में आती हुई महसूस होने लगे तो समझना चाहिए कि कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो चुकी है।
ज्ञेया शक्तिरियं विश्नोनिर्भया स्वर्णभ: स्वरा।
अर्थात शरीर में उत्पन्न होने वाली इस कुण्डलिनी शक्ति को स्वर्ण के समान सुन्दर विष्णु की निर्भय शक्ति ही समझना चाहिए। यही शक्ति आत्मशक्ति, जीवशक्ति आदि नाम से भी जाना जाता है। यही ईश्वरीय शक्ति भी है, प्राणशक्ति और कुण्डलिनी शक्ति भी है। मनुष्य के शरीर में मौजूद कुण्डलिनी शक्ति और पारलौकिक शक्ति दोनों एक ही शक्ति के अलग-अलग रूप हैं।
पतांजलि द्वारा रचित ´योग दर्शन´ शास्त्र के अनुसार-
पतांजलि द्वारा रचित ´योग दर्शन´ शास्त्र के साधनापद में कुण्डलिनी शक्ति के जागरण के अनेकों उपाय बताए गए है।
मंत्र ग्रन्थों में जितने योगों का वर्णन है, वे सभी कुण्डलिनी जागरण की ही साधना है। महाबन्ध, महावेध, महामुद्रा, खेचरी मुद्रा, विपरीत करणी मद्रा, अश्विनी मुद्रा, योनि मुद्रा, शक्ति चालिनी मुद्रा, आदि कुण्डलिनी जागरण में सहायता करते हैं।
इसमें प्राणायाम के द्वारा कुण्डलिनी को जागरण करना और उसे सुषुम्ना में लाना कुण्डलिनी जागरण का सबसे अच्छा उपाय है। प्राणायाम के द्वारा कुछ समय में ही कुण्डलिनी शक्ति का जागरण कर उसके लाभों को प्राप्त किया जा सकता है।
प्राणायाम से केवल कुण्डलिनी शक्ति ही जागृत ही नहीं होती बल्कि इससे अनेकों लाभ भी प्राप्त होते हैं। ´योग दर्शन´ के अनुसार प्राणायाम के अभ्यास से ज्ञान पर पड़ा हुआ अज्ञान का पर्दा नष्ट हो जाता है।
इससे मनुष्य भ्रम, भय, चिंता, असमंजस्य, मूल धारणाएं और अविद्या व अन्धविश्वास आदि नष्ट होकर ज्ञान, अच्छे संस्कार, प्रतिभा, बुद्धि-विवेक आदि का विकास होने लगता है। इस साधना के द्वारा मनुष्य अपने मन को जहां चाहे वहां लगा सकता है।
प्राणायाम के द्वारा मन नियंत्रण में रहता है। इससे शरीर, प्राण व मन के सभी विकार नष्ट हो जाते हैं। इससे शारीरिक क्षमता व शक्ति का विकास होता है। प्राणायाम के द्वारा प्राण व मन को वश में करने से ही व्यक्ति आश्चर्यजनक कार्य को कर सकने में समर्थ होता है।
प्राणायाम आयु को बढ़ाने वाला, रोगों को दूर करने वाला, वात-पित्त-कफ के विकारों को नष्ट करने वाला होता है। यह मनुष्य के अन्दर ओज-तेज और आकर्षण को बढ़ाता है। यह शरीर में स्फूर्ति, लचक, कोमल, शांति और सुदृढ़ता लाता है। यह रक्त को शुद्ध करने वाला है, चर्म रोग नाशक है। यह जठराग्नि को बढ़ाने वाला, वीर्य दोष को नष्ट करने वाला होता है।
प्राणायाम के द्वारा वीर्य और प्राण के ऊर्ध्वगमन से बुद्धि तंत्र के बन्द कोष खुलते है, साथ ही शरीर की नस-नस में अत्यंत शक्ति, साहस का संचार होने से क्रियाशीलता का विकास भी होता है।
कुंडलिनी जागरण का अर्थ है-
मनुष्य को प्राप्त महानशक्ति को जाग्रत करना। यह शक्ति सभी मनुष्यों में सुप्त पड़ी रहती है। कुण्डली शक्ति उस ऊर्जा का नाम है जो हर मनुष्य में जन्मजात पायी जाती है। इसे जगाने के लिए प्रयास या साधना करनी पड़ती है।
कुंडली जागरण के लिए साधक को शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर साधना या प्रयास करना पड़ता है। जप, तप, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ, योग आदि के माध्यम से साधक अपनी शारीरिक एवं मानसिक, अशुद्धियों, कमियों और बुराइयों को दूर कर सोई पड़ी शक्तियों को जगाता है।
अत: हम कह सकते हैं कि विभिन्न उपायों से अपनी अज्ञात, गुप्त एवं सोई पड़ी शक्तियों का जागरण ही कुंडली जागरण है।
कुण्डलिनी शक्ति क्या है?
योग कुण्डल्युपनिषद् में कुण्डलिनी का वर्णन इस तरह किया गया है-
´कुण्डले अस्या´ स्त: इति: कुण्डलिनी।
दो कुण्डल वाली होने के कारण पिण्डस्थ उस शक्ति प्रवाह को कुण्डलिनी कहते हैं। दो कुण्डल अर्थात इड़ा और पिंगला। बाईं ओर से बहने वाली नाड़ी को ´इड़ा´ और दाहिनी ओर से बहने वाली नाड़ी को ´पिगला´ कहते हैं।
इन दोनों नाडियों के बीच जिसका प्रवाह होता है, उसे सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं। इस सुषुम्ना नाड़ी के साथ और भी नाड़ियां होती है। जिसमें एक चित्रणी नाम की नाड़ी भी होती है। इस चित्रणी नाम की नाड़ी में से होकर कुण्डलिनी शक्ति प्रवाहित होती है, इसलिए सुषुम्ना नाड़ी की दोनों ओर से बहने वाली उपयुक्त 2 नाड़ियां ही कुण्डलिनी शक्ति के 2 कुण्डल हैं।
कुण्डलिनी यज्ञ का विशेष वर्णन करते हुए मुण्डकोपनिषद के २/१/८ संदर्भ में कहा गया है-
''सत्तप्राणी उसी से उत्पन्न हुए । अग्नि की सात ज्वालाएँ उसी से प्रकट हुईं । यही सप्त समिधाएँ हैं, यही सात हवि हैं । इनकी ऊर्जा उन सात लोकों तक जाती जिनका सृजन परमेश्वर ने उच्च प्रयोजनों के लिए किया गया है ।''
उपनिषद् में कुण्डलिनी शक्ति के स्वरूप का वर्णन-
मूलाधारस्य वहवयात्म तेजोमध्ये व्यवस्थिता।
जीवशक्ति: कुण्डलाख्या प्राणाकारण तैजसी।।
अर्थात कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में स्थित आत्माग्नी तेज के मध्य में स्थित है। वह जीवनी शक्ति है। तेज और प्राणाकार है।
कुण्डलिनी शक्ति का ज्ञानार्णव तंत्र में वर्णन इस प्रकार किया गया है-
मूलाधारे मूलविद्दया विद्युत्कोटि समप्रभासम्।
सूर्यकटि प्रतीकाशां चन्द्रकोटि द्रवां प्रिये।।
अर्थात मूलाधार चक्र में विद्युत प्रकाश ही करोड़ों किरणों वाला, करोड़ों सूर्यो और चन्द्रमाओं के प्रकाश के समान, कमल की डण्डी के समान अविच्छिन्न तीन घेरे डाले हुए मूल विद्या रूपिणी कुण्डलिनी स्थित है। वह कुण्डलिनी परम प्रकाशमय है, अविच्छिन्न शक्तिधारा है और तेजोधारा है।
घेरण्ड संहिता के अनुसार-
घेरण्ड संहिता में कुण्डलिनी को ही आत्मशक्ति या दिव्य शक्ति व परम देवता कहा गया है।
मूलाधारे आत्मशक्ति: कुण्डली परदेवता।
शमिता भुजगाकारा, सार्धत्रिबलयान्विता।।
अर्थात मूलाधार में परम देवी आत्माशक्ति कुण्डलिनी तीन बलय वाली सर्पिणी के समान कुण्डल मारकर सो रही है।
महाकुण्डलिनी प्रोक्त: परब्रह्म स्वरूपिणी।
शब्दब्रह्ममयी देवी एकाऽनेकाक्षराकृति:।।
अर्थात कुण्डलिनी शक्ति परम ब्रह्मा स्वरूपिणी, महादेवी, प्राण स्वरूपिणी तथा एक और अनेक अक्षरों के मंत्रों की आकृति में माला के समान जुड़ी हुई बतायी जाती है।
कन्दोर्ध्व कुण्डली शक्ति: सुप्ता मोक्षाय योगिनाम्।
बन्धनाय च मूढ़ानां यस्तां वेति से योगिवित्।।
अर्थात कन्द के ऊपर कुण्डलिनी शक्ति अवस्थित है। यह कुण्डलिनी शक्ति सोई हुई अवस्था में होती है। इस कुण्डलिनी शक्ति के द्वारा ही योगिजनों को मोक्ष प्राप्त होता है। सुख के बन्धन का कारण भी कुण्डलिनी है। जो कुण्डलिनी शक्ति को अनुभव पूर्ण रूप से कर पाता है, वही सच्चा योगी होता है।
सप्त लोकों का देवी भागवत में अन्य प्रकार से उल्लेख हुआ है-
उसमें भूः में धरित्री भुवः में वायु स्वः में तेजस महः में महानता, जनः में जनसमुदाय, तपः में तपश्चर्या एवं सत्य में सिद्धवाण्-वाक सिद्धि रूप सात शक्तियाँ समाहित बतायी गयी हैं ।
इस प्रकार कुण्डलिनी योग के अंतर्गत चक्र समुदाय में वह सभी कुछ आ जाता है, जिसकी कि भौतिक और आत्मिक प्रयोजनों के लिए आवश्यकता पड़ती है ।
मानवी काया को एक प्रकार से भूलोक के समान माना गया है। इसमें अवस्थित मूलाधार चक्र को पृथ्वी की तथा सहस्रार को सूर्य की उपमा दी गई है । दोनों के बीच चलने वाले आदान-प्रदान माध्यम को मेरुदण्ड कहा गया है ।
ब्रह्मरंध्र ब्रह्मण्ड का प्रतीक है । ठीक इसी प्रकार सहस्रार लोक ब्रह्मण्डीय चेतना का अवतरण केन्द्र है और इस महान् भण्डागार में से मूलाधार को जिस कार्य के लिए जितनी मात्रा में जिस स्तर की शक्ति कि आवश्यकता होती है उसकी पूर्ति लगातार होती रहती है
कुण्डलिनी प्रसंग योग वशिष्ठ, योग चूड़ामणि, देवी भवगत्, शारदा तिलक, शान्डिल्योसपनिषद मुक्ति-कोपनिषद, हठयोग संहिता, कुलार्णन तंत्र, योगिनी तंत्र बिन्दूपनिषद, रुद्र यामल तंत्र सौन्दर्य लहरी आदि गंथों में विस्तार पूर्वक दिया गया है ।
यही कारण है कि ऋग्वेद में ऋषि कहते हैं-
हे ''प्राणाग्नि! मेरे जीवन में ऊषा बनकर प्रकटों अज्ञान का अंधकार दूर करों, ऐसा बल प्रदान करो जिससे देव शक्तियाँ खिंची चली आएँ ।''
त्रिशिखिब्रहोपनिषद में शास्त्रकार ने कहा है-
''योग साधना द्वारा जगाई हुई कुण्डलिनी बिजली के समान तडपती और चमकती है । उससे जो है, सोया सा जागता है । जो जागता है, वह दौड़ने लगता है ।''
महामंत्र में वर्णन आता है-
''जाग्रत हुई कुण्डलिनी असीम शक्ति का प्रसव करती है । उससे नाद बिन्दू, कला के तीनों अभ्यास स्वयंमेव सध जाते हैं । परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी चारों वाणियाँ मुखर हो उठती हैं । इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति में उभार आता है । शरीर-वीणा के सभी तार क्रमबद्ध हो जाते हैं और मधुर ध्वनि में बजते हुए अन्तराल को झंकृत करते हैं । शब्दब्रह्म की यह सिद्धि मनुष्य को जीवनमुक्त कर देवात्मा बना देती है । ''
शरीर में कुण्डलिनी की अवस्था-
जन्नेन्द्रिय के मूल में या लिंग उपस्थ में नाड़ियों का एक गुच्छा है। योग शास्त्रों में इसी को “कन्द” कहा जाता है। इसी पर कुण्डलिनी गहरी नींद में जन्म-जन्मान्तर से सो रही होती है।
कुण्डलो कुटिलाकारा सर्पवत् परिकीर्तिता।
सा शक्तिश्चालिता येन, स युक्तों नात्र संशय।।
अर्थात कुण्डलिनी को सर्प के आकार की कुटिल कहा गया है। जिस तरह सांप कुण्डली मारकर सोता है, उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति भी आदिकाल से ही मनुष्य के अन्दर सोई हुई रहती है।
यावत्सा निद्रिता देहे तावज्जीव: पयुयेथा।
ज्ञान न जायते तावत् कोटि योगविधेरपि।।
अर्थात जब तक कुण्डलिनी शक्ति मनुष्य के अन्दर सोई हुई अवस्था में रहती है, तब तक मनुष्य परिस्थिति के अधीन रहता है। ऐसे व्यक्ति का आचरण पशुओं के समान होता है।
ऐसे व्यक्ति दीन-हीन जीवन यापन करते हैं, तथा उनका रहन-सहन, भावों और विचारों, आहार-विहार आदि में आत्म विश्वास, धैर्य, सूझ-बूझ, उमंग, उत्साह, उल्लास, दृढ़ता, स्थिरता, एकाग्रता, कार्य कुशलता, उदारता और हृदय विशालता जैसे गुणों का अभाव होता है। ऐसे व्यक्ति अनेक योग साधना, पूजा-पाठ आदि करके भी अपने ब्रह्माज्ञान विवेक को प्राप्त नहीं कर पाता।
मूलाधारे प्रसुप्त साऽऽमशक्ति उन्न्द्रिता-
विशुद्धे तिष्ठति मुक्तिरूपा पराशक्ति:।
अर्थात वह प्रबल आत्मशक्ति मूलाधार में सो रही है। उसका प्रयोग किसी बड़े या चमत्कारी कार्य में न होने से वह अपमानित व्यक्ति की तरह शिथिल और गतिहीन बनी हुई है। व्यक्ति के अन्दर जागी हुई इच्छाशक्ति के महान उद्देश्यों की पूर्ति में नियोजित वही शक्ति पराशक्ति के रूप में विराजती है।
कुण्डलिनी जागृत करने का कारण-
शरीर के अन्दर कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होने से शरीर के अन्दर मौजूद दूषित कफ, पित्त, वात आदि से उत्पन्न होने वाले विकार नष्ट हो जाते हैं। इसके जागरण से मनुष्य के अन्दर काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे दोष, आदि खत्म हो जाते हैं।
इस शक्ति का जागरण होने से यह अपनी सोई हुई अवस्था को त्याग कर सीधी हो जाती है और विद्युत तरंग के समान कम्पन के साथ इड़ा, पिंगला नाड़ियों को छोड़कर सुषुम्ना से होते हुए मस्तिष्क में पहुंच जाती है।
कुण्डल्येव भवेच्छक्तिस्तां तु सचालयेत बुध:।
स्पश्यनादाभ्रवोर्मध्य, शक्तिचालनमुच्चते।।
अर्थात अपने अन्दर आंतरिक ज्ञान व अत्याधिक शक्ति की प्राप्ति के लिए सभी मनुष्यों को चाहिए कि वह अपने अन्दर सोई हुई कुण्डलिनी (आत्मशक्ति) का जागरण करें, उसे कार्यशील बनाएं!
प्राणायाम के द्वारा जब मूलाधार से स्फूर्ति तरंग की तरह ऊर्जा शक्ति उठकर मस्तिष्क में आती हुई महसूस होने लगे तो समझना चाहिए कि कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो चुकी है।
ज्ञेया शक्तिरियं विश्नोनिर्भया स्वर्णभ: स्वरा।
अर्थात शरीर में उत्पन्न होने वाली इस कुण्डलिनी शक्ति को स्वर्ण के समान सुन्दर विष्णु की निर्भय शक्ति ही समझना चाहिए। यही शक्ति आत्मशक्ति, जीवशक्ति आदि नाम से भी जाना जाता है। यही ईश्वरीय शक्ति भी है, प्राणशक्ति और कुण्डलिनी शक्ति भी है। मनुष्य के शरीर में मौजूद कुण्डलिनी शक्ति और पारलौकिक शक्ति दोनों एक ही शक्ति के अलग-अलग रूप हैं।
पतांजलि द्वारा रचित ´योग दर्शन´ शास्त्र के अनुसार-
पतांजलि द्वारा रचित ´योग दर्शन´ शास्त्र के साधनापद में कुण्डलिनी शक्ति के जागरण के अनेकों उपाय बताए गए है।
मंत्र ग्रन्थों में जितने योगों का वर्णन है, वे सभी कुण्डलिनी जागरण की ही साधना है। महाबन्ध, महावेध, महामुद्रा, खेचरी मुद्रा, विपरीत करणी मद्रा, अश्विनी मुद्रा, योनि मुद्रा, शक्ति चालिनी मुद्रा, आदि कुण्डलिनी जागरण में सहायता करते हैं।
इसमें प्राणायाम के द्वारा कुण्डलिनी को जागरण करना और उसे सुषुम्ना में लाना कुण्डलिनी जागरण का सबसे अच्छा उपाय है। प्राणायाम के द्वारा कुछ समय में ही कुण्डलिनी शक्ति का जागरण कर उसके लाभों को प्राप्त किया जा सकता है।
प्राणायाम से केवल कुण्डलिनी शक्ति ही जागृत ही नहीं होती बल्कि इससे अनेकों लाभ भी प्राप्त होते हैं। ´योग दर्शन´ के अनुसार प्राणायाम के अभ्यास से ज्ञान पर पड़ा हुआ अज्ञान का पर्दा नष्ट हो जाता है।
इससे मनुष्य भ्रम, भय, चिंता, असमंजस्य, मूल धारणाएं और अविद्या व अन्धविश्वास आदि नष्ट होकर ज्ञान, अच्छे संस्कार, प्रतिभा, बुद्धि-विवेक आदि का विकास होने लगता है। इस साधना के द्वारा मनुष्य अपने मन को जहां चाहे वहां लगा सकता है।
प्राणायाम के द्वारा मन नियंत्रण में रहता है। इससे शरीर, प्राण व मन के सभी विकार नष्ट हो जाते हैं। इससे शारीरिक क्षमता व शक्ति का विकास होता है। प्राणायाम के द्वारा प्राण व मन को वश में करने से ही व्यक्ति आश्चर्यजनक कार्य को कर सकने में समर्थ होता है।
प्राणायाम आयु को बढ़ाने वाला, रोगों को दूर करने वाला, वात-पित्त-कफ के विकारों को नष्ट करने वाला होता है। यह मनुष्य के अन्दर ओज-तेज और आकर्षण को बढ़ाता है। यह शरीर में स्फूर्ति, लचक, कोमल, शांति और सुदृढ़ता लाता है। यह रक्त को शुद्ध करने वाला है, चर्म रोग नाशक है। यह जठराग्नि को बढ़ाने वाला, वीर्य दोष को नष्ट करने वाला होता है।
प्राणायाम के द्वारा वीर्य और प्राण के ऊर्ध्वगमन से बुद्धि तंत्र के बन्द कोष खुलते है, साथ ही शरीर की नस-नस में अत्यंत शक्ति, साहस का संचार होने से क्रियाशीलता का विकास भी होता है।
कुंडलिनी जागरण का अर्थ है-
मनुष्य को प्राप्त महानशक्ति को जाग्रत करना। यह शक्ति सभी मनुष्यों में सुप्त पड़ी रहती है। कुण्डली शक्ति उस ऊर्जा का नाम है जो हर मनुष्य में जन्मजात पायी जाती है। इसे जगाने के लिए प्रयास या साधना करनी पड़ती है।
कुंडली जागरण के लिए साधक को शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर साधना या प्रयास करना पड़ता है। जप, तप, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ, योग आदि के माध्यम से साधक अपनी शारीरिक एवं मानसिक, अशुद्धियों, कमियों और बुराइयों को दूर कर सोई पड़ी शक्तियों को जगाता है।
अत: हम कह सकते हैं कि विभिन्न उपायों से अपनी अज्ञात, गुप्त एवं सोई पड़ी शक्तियों का जागरण ही कुंडली जागरण है।
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