Saturday, 23 July 2016

ऋषि


'ॠषि' शब्द की व्युत्पत्ति 'ॠषि' गतौ धातु से मानी जाती है।
ॠषति प्राप्नोति सर्वान् मन्त्रान, ज्ञानेन पश्यति संसार पारं वा।
ॠषु + इगुपधात् कित् इति उणादिसूत्रेण इन् किञ्च्।
इस व्युत्पत्ति का संकेत वायु पुराण, मत्स्य पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण में किया गया है। ब्रह्माण्ड पुराण की व्युत्पत्ति इस प्रकार है-
गत्यर्थादृषतेर्धातोर्नाम निवृत्तिरादित:।
यस्मादेव स्वयंभूतस्तस्माच्चाप्यृषिता स्मृता॥
वायु पुराण में ॠषि शब्द के अनेक अर्थ बताए गए हैं-
ॠषित्येव गतौ धातु: श्रुतौ सत्ये तपस्यथ्।
एतत् संनियतस्तस्मिन् ब्रह्ममणा स ॠषि स्मृत:॥
इस श्लोक के अनुसार 'ॠषि' धातु के चार अर्थ होते हैं-
गति,
श्रुति,
सत्य तथा
तपस्।
ब्रह्माजी द्वारा जिस व्यक्ति में ये चारों वस्तुएँ नियत कर दी जायें, वही 'ॠषि' होता है। वायु पुराण का यही श्लोक मत्स्य पुराण में किंचित पाठभेद से उपलब्ध होता है।
दुर्गाचार्य की निरुक्ति है- ॠषिर्दर्शनात्।इस निरुक्त से ॠषि का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- दर्शन करने वाला, तत्वों की साक्षात अपरोक्ष अनुभूति रखने वाला विशिष्ट पुरुष। 'साक्षात्कृतधर्माण ॠषयो बभूअ:'- यास्क का यह कथन इस निरुक्ति का प्रतिफलितार्थ है। दुर्गाचार्य का कथन है कि किसी मन्त्र विशेष की सहायता से किये जाने पर किसी कर्म से किस प्रकार का फल परिणत होता है, ॠषि को इस तथ्य का पूर्ण ज्ञान होता है।
तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार इस शब्द (ॠषि) की व्याख्या इस प्रकार है- 'सृष्टि के आरम्भ में तपस्या करने वाले अयोनिसंभव व्यक्तियों के पास स्वयंभू ब्रह्म (वेदब्रह्म) स्वयं प्राप्त हो गया। वेद का इस स्वत: प्राप्ति के कारण, स्वयमेव आविर्भाव होने के कारण ही ॠषि का 'ॠषित्व' है।
इस व्याख्या में ॠषि शब्द की निरुक्ति 'तुदादिगण ॠष गतौ' धातु से मानी गयी है। अपौरुषेय वेद ॠषियों के ही माध्यम से विश्व में आविर्भूत हुआ और ॠषियों ने वेद के वर्णमय विग्रह को अपने दिव्य श्रोत्र से श्रवण किया, इसीलिए वेद को श्रुति भी कहा गया है।
आदि ॠषियों की वाणी के पीछे अर्थ दौड़ता-फिरता है। ॠषि अर्थ के पीछे कभी नहीं दौड़ते
'ॠषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति:' (उत्तर रामचरित, प्रथम अंग)।
निष्कर्ष यह है कि तपस्या से पवित्र 'अंतर्ज्योति सम्पन्न मन्त्रद्रष्टा व्यक्तियों की ही संज्ञा ॠषि है।
यह वह व्यक्ति है, जिसने मन्त्र के स्वरूप को यथार्थ रूप में समझा है। 'यथार्थ'- ज्ञान प्राय: चार प्रकार- से होता है
परम्परा के मूल पुरुष होने से,
उस तत्त्व के साक्षात दर्शन से,
श्रद्धापूर्वक प्रयोग तथा साक्षात्कार से और
इच्छित (अभिलषित)-पूर्ण सफलता के साक्षात्कार से। अतएव इन चार कारणों से मन्त्र-सम्बन्धित ऋषियों का निर्देश ग्रन्थों में मिलता है।जैसे-
कल्प के आदि में सर्वप्रथम इस अनादि वैदिक शब्द-राशि का प्रथम उपदेश ब्रह्माजी के हृदय में हुआ और ब्रह्माजी से परम्परागत अध्ययन-अध्यापन होता रहा, जिसका निर्देश 'वंश ब्राह्मण' आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। अत: समस्त वेद की परम्परा के मूल पुरुष ब्रह्मा (ऋषि) हैं। इनका स्मरण परमेष्ठी प्रजापति ऋषि के रूप में किया जाता है।
इसी परमेष्ठी प्रजापति की परम्परा की वैदिक शब्दराशि के किसी अंश के शब्द तत्त्व का जिस ऋषि ने अपनी तपश्चर्या के द्वारा किसी विशेष अवसर पर प्रत्यक्ष दर्शन किया, वह भी उस मन्त्र का ऋषि कहलाया।
उस ऋषि का यह ऋषित्व शब्दतत्त्व के साक्षात्कार का कारण माना गया है। इस प्रकार एक ही मन्त्र का शब्दतत्त्व-साक्षात्कार अनेक ऋषियों को भिन्न-भिन्न रूप से या सामूहिक रूप से हुआ था। अत: वे सभी उस मन्त्र के ऋषि माने गये हैं।
कल्प ग्रन्थों के निर्देशों में ऐसे व्यक्तियों को भी ऋषि कहा गया है, जिन्होंने उस मन्त्र या कर्म का प्रयोग तथा साक्षात्कार अति श्रद्धापूर्वक किया है।
वैदिक ग्रन्थों विशेषतया पुराण-ग्रन्थों के मनन से यह भी पता लगता है कि जिन व्यक्तियों ने किसी मन्त्र का एक विशेष प्रकार के प्रयोग तथा साक्षात्कार से सफलता प्राप्त की है, वे भी उस मन्त्र के ऋषि माने गये हैं।
उक्त निर्देशों को ध्यान में रखने के साथ यह भी समझ लेना चाहिये कि एक ही मन्त्र को उक्त चारों प्रकार से या एक ही प्रकार से देखने वाले भिन्न-भिन्न व्यक्ति ऋषि हुए हैं। फलत: एक मन्त्र के अनेक ऋषि होने में परस्पर कोई विरोध नहीं है, क्योंकि मन्त्र ऋषियों की रचना या अनुभूति से सम्बन्ध नहीं रखता; अपितु ऋषि ही उस मन्त्र से बहिरंग रूप से सम्बद्ध व्यक्ति है।

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