महर्षि शौनक आकाश मार्ग का पाँच प्रकार का विभाजन करते हैं तथा धुण्डीनाथ विभिन्न मार्गों की ऊँचाई विभिन्न मार्गों की ऊँचाई पर विभिन्न आवर्त्त या whirlpools का उल्लेख करते हैं और उस ७ उस ऊँचाई पर सैकड़ों यात्रा पथों का संकेत देते हैं । इसमें पृथ्वी से १०० किलोमीटर ऊपर तक विभिन्न ऊँचाईयों पर निर्धारित पथ तथा वहाँ कार्यरत शक्तियों का विस्तार से वर्णन करते हैं।
आकाश मार्ग तथा उनके आवर्तों का वर्णन निम्नानुसार है -
10 km ( 1 ) रेखा पथ - शक्त्यावृत्त - whirlpool of energy
50 km ( 2 ) - वातावृत्त - wind
60 km ( 3 ) कक्ष पथ - किरणावृत्त - solar rays
80 km ( 4 ) शक्तिपथ - सत्यावृत्त - cold current
वैमानिक का खाद्य -
इसमें किस ऋतु में किस प्रकार का अन्न हो इसका वर्णन है । उस समय के विमान आज से कुछ भिन्न थे । आज ते विमान उतरने की जगह निश्चित है पर उस समय विमान कहीं भी उतर सकते थे । अतः युद्ध के दौरान जंगल में उतरना पड़ा तो जीवन निर्वाह कैसे करना , इसीलिए १०० वनस्पतियों का वर्णन दिया है जिनके सहारे दो तीन माह जीवन चलाया जा सकता है।
एक और महत्वपूर्ण बात वैमानिक शास्त्र में कही गयी है कि वैमानिक को दिन में ५ बार भोजन करना चाहिए । उसे कभी विमान खाली पेट नहीं उड़ाना चाहिए । १९९० में अमेरिकी वायुसेना ने १० वर्ष के निरीक्षण के बाद ऐसा ही निष्कर्ष निकाला है।
विमान के यन्त्र -
विमान शास्त्र में ३१ प्रकार के यंत्र तथा उनका विमान में निश्चित स्थान का वर्णन मिलता है । इन यंत्रों का कार्य क्या है इसका भी वर्णन किया गया है । कुछ यंत्रों की जानकारी निम्नानुसार है -
(१) विश्व क्रिया दर्पण - इस यंत्र के द्वारा विमान के आसपास चलने वाली गति- विधियों का दर्शन वैमानिक को विमान के अंदर होता था, इसे बनाने में अभ्रक तथा पारा आदि का प्रयोग होता था।
(२) परिवेष क्रिया यंत्र - इसमें स्वाचालित यंत्र वैमानिक यंत्र वैमानिक का वर्णन है।
(३) शब्दाकर्षण मंत्र - इस यंत्र के द्वारा २६ किमी. क्षेत्र की आवाज सुनी जा सकती थी तथा पक्षियों की आवाज आदि सुनने से विमान को दुर्घटना से बचाया जा सकता था।
(४) गुह गर्भ यंत्र -इस यंत्र के द्वारा जमीन के अन्दर विस्फोटक खोजने में सफलता मिलती है।
(५) शक्त्याकर्षण यंत्र - विषैली किरणों को आकर्षित कर उन्हें उष्णता में परिवर्तित करना और उष्णता के वातावरण में छोड़ना।
(६) दिशा दर्शी यंत्र - दिशा दिखाने वाला यंत्र
(७) वक्र प्रसारण यंत्र - इस यंत्र के द्वारा शत्रु विमान अचानक सामने आ गया, तो उसी समय पीछे मुड़ना संभव होता था।
(८) अपस्मार यंत्र - युद्ध के समय इस यंत्र से विषैली गैस छोड़ी जाती थी।
(९) तमोगर्भ यंत्र - इस यंत्र के द्वारा शत्रु युद्ध के समय विमान को छिपाना संभव था । तथा इसके निर्माण में तमोगर्भ लौह प्रमुख घटक रहता था।
ऊर्जा स्रोत - विमान को चलाने के लिए चार प्रकार के ऊर्जा स्रोतों का महर्षि भरद्वाज उल्लेख करते हैं।
(१) वनस्पति तेल जो पेट्रोल की भाँति काम करता था।
(२) पारे की भाप - प्राचीन शास्त्रों में इसका शक्ति के रूप में उपयोग किए जाने का वर्णन है । इस के द्वारा अमेरिका में विमान उड़ाने का प्रयोग हुआ , पर वह ऊपर गया, तब विस्फोट हो गया । परन्तु यह तो सिद्ध हुआ कि पारे की भाप का ऊर्जा की तरह प्रयोग हो सकता है । आवश्यकता अधिक निर्दोष प्रयोग करने की है।
(३) सौर ऊर्जा - इसके द्वारा भी विमान चलता था । ग्रहण कर विमान उड़ना जैसे समुद्र में पाल खोलने पर नाव हवा के सहारे तैरता है इसी प्रकार अंतरिक्ष में विमान वातावरण से शक्ति ग्रहण कर चलता रहेगा । अमेरिका में इस दिशा में प्रयत्न चल रहे हैं । यह वर्णन बताता है कि ऊर्जा स्रोत के रूप में प्राचीन भारत में कितना व्यापह प्रचार हुआ था।
विमान के प्रकार -
विमान विद्या के पूर्व आचार्य युग के अनुसार विमानों का वर्णन करते हैं ।
मंत्रिका प्रकार के विमान जिसमें भौतिक एवं मानसिक शक्तियों के सम्मिश्रण की प्रक्रिया रहती थी वह सतयुग और त्रेता युग में सम्भव था ।
इनके ५६ प्रकार बताए गए हैं तथा कलियुग में कृतिका प्रकार के यंत्र चालित विमान थे इनके २५ प्रकार बताए हैं।
इनमें शकुन,रुक्म, हंस, पुष्कर, त्रिपुर आदि प्रमुख थे ।
उपर्युक्त वर्णन पढ़ने पर कुछ समस्याएँ व प्रश्न हमारे सामने आकर खडे होते हैं । समस्या यह है आज के विज्ञान की शब्दावली व नियमावली से हम परिचित हैं, परन्तु प्राचीन विज्ञान , जो संस्कृत में अभिव्यक्त हुआ है , उसकी शब्दावली , उनका अर्थ तथा नियमावली हम नहीं जानते ।
अतः उनमें निहित रहस्य को अनावृत्त करना पड़ेगा । दूसरा , प्राचीन काल में गलत व्यक्ति के हाथ में विद्या न जाए , इस हेतु बात को अप्रत्यक्ष ढंग से , गूढ़ रूप में , अलंकारिक रूप में कहने की पद्धति थी । अतः उसको भी समझने के लिए ऐसे लोगों के इस विषय में आगे प्रयत्न करने की आवश्यकता है , जो संस्कृत भी जानते हों तथा विज्ञान भी जानते हों।
विमान शास्त्र में वर्णित धातुएं - दूसरा प्रश्न उठता है कि क्या विमान शास्त्र ग्रंथ का कोई ऐसा भाग है जिसे प्रारंभिक तौर पर प्रयोग द्वज्ञरा सिद्ध किया जा सके । यदि कोई ऐसा भाग है , तो क्या इस दिशा में कुछ प्रयोग हुए हैं । क्या उनमें कुछ सफलता मिली है।
सौभाग्य से इन प्रश्नों के उत्तर हाँ में दिए जा सकते हैं । हैदराबाद के डॉ. श्रीराम प्रभु ने वैमानिक शास्त्र ग्रंथ के यंत्राधिकरण को देखा , तो उसमें वर्णित ३१ यंत्रों में कुछ यंत्रों की उन्होंने पहचान की तथा इन यंत्रों को बनाने वाली मिश्र धातुओं का निर्माण सम्भव है या नहीं , इस हेतु प्रयोंग करने का विचार उनके मन में आया ।
प्रयोग हेतु डॉ. प्रभु तथा उनके साथियों ने हैदराबाद स्थित बी. एम. बिरला साइंस सेन्टर के सहयोग से प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्णित धातुएं , दर्पण आदि का निर्माण प्रयोगशाला में करने का प्रकल्प किया और उसके परिणाम आशास्पद हैं।
अपने प्रयोंगों के आधार पर प्राचीन ग्रंथ में वर्णित वर्णन के आधार पर दुनिया में अनुपलब्ध कुछ धातुएं बनाने में सफलता उन्हें मिली है।
प्रथम धातु है तमोगर्भ लौह । विमान शास्त्र में वर्णन है कि यह विमान अदृश्य करने के काम आता है । इस पर प्रकाश छोड़ने से ७५ से ८० प्रतिशत प्रकाश को सोख लेतो है । यह धातु रंग में काली तथा शीशे से कठोर तथा कान्सन्ट्रेटेड सल्फ्यूरिक एसिड में भी नहीं गलती।
दूसरी धातु जो बनाई है, उसका नाम है पंच लौह । यह रंग में स्वर्ण जैसा है तथा कठोर व भारी है । ताँबा आधारित इस मिश्र धातु की विशेषता यह है कि इसमें सीसे का प्रमाण ७.९५ प्रतिशत है , जबकि अमेरिकन सोसायटी ऑफ मेटल्स ने कॉपर बेस्ड मिश्र धातु में सीसे का अधिकतम प्रमाण ०.३५ से ३ प्रतिशत संभव है यह माना है । इस प्रकार ७.९५ सीसे के मिश्रण वाली यह धातु अनोखी है।
तीसरी धातु है आरर । यह ताँबा आधारित मिश्र धातु है , जो रंग में पीली और कठोर तथा हल्की है । इस धातु में तमेपेजंदबम जव उवपेजनतम का गुण है । बी. एम. बिरला साइंस सेन्टर के डायरेक्टर डॉ. बी. जी. सिद्धार्थ ने उन धातुओं को बनाने में सफलता की जानकारी एक पत्रकार परिषद में देते हुए बताया कि इन धातुओं को बनाने में खनिजों के साथ विभिन्न औषधियाँ , पत्ते , गोंद , पेड़ की छाल , आदि का भी उपयोग होता है ।
इस कारण जहाँ इनकी लागत कम आती है , वहीं कुछ विशेष गुण भी उत्पन्न होते हैं । उन्होनें कहा कि ग्रंथ में वर्णित अन्य धातुओं का निर्माण और उस हेतु आवश्यक साधनों की दिशा में देश के नीति निर्धारक सोचेंगे , तो यह देश के भविष्य की दृष्टि से अच्छा होगा।
इसी प्रकार मुंबई के रसायन शास्त्र विभाग के डॉ. माहेश्वर शेरोन ने भी इस ग्रंथ में वर्णित तीन पदार्थों को बनाने का प्रयत्न किया है । ये थे चुम्बकमणि जो गुहगर्भ यंत्र में काम आती है और उसमें परावर्तन ( रिफ्लेक्शन ) को अधिगृहीत ( कैप्चर ) करने का गुण है । पराग्रंधिक द्रव - यह एक प्रकार का एसिड है , जो चुम्बकमणि के साथ गुहगर्भ यंत्र में काम आता है।
इसी प्रकार विमान शास्त्र में एक और अधिकरण है दर्पणाधिकरण , जिसमें विभिन्न प्रकार के काँच और उनके अलग अलग गुणों का वर्णन है । इन पर वाराणसी के हरिश्चन्द्र पी. जी. कॉलेज के रीडर डॉ. एन. जी. डोंगरे ने ।
" The study of various materials described in Amsubodhini of Maharshi Bharadwaja "
इस प्रकल्प के तहत उन्होंने महर्षि भरद्वाज वर्णित दर्पण बनाने का प्रयत्न नेशनल मेटलर्जीकल लेबोरेटरी जमशेदपुर में किया तथा वहाँ के निदेशक पी. रामचन्द्र राव जो पूर्व मे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति थे, के साथ प्रयोग कर एक विशेष प्रकार का कांच बनाने में सफलता प्राप्त की , जिसका नाम प्रकाश स्तभंन भिद् लौह है ।
इसकी विशेषता है कि यह दर्शनीय प्रकाश को सोखता है तथा इन्फ्रारैड प्रकाश को जाने देता है । इसका निर्माण कचर लौह – Silic भूचक्र सुरमित्रादिक्षर - Lime अयस्कान्त - Lodestone इनके द्वारा अंशुबोधिनी में वर्णित विधि से किया गया है । प्रकाश स्तंभन भिद् लौह की यह विशेषता है कि यह पूरी तरह से नॉन हाईग्रोस्कोपिक है , हाईग्रोस्कोपिक इन्फ्रारेड वाले काँचों में पानी की भाप या वातावरण की नमी से उनका पॉलिश हट जाता है और वे बेकार हो जाते हैं ।
आजकल ब्थ् २ यह बहुत अधिक हाईग्रोस्कोपिक है । अतः इनके यंत्रों के प्रयोग में बहुत अधिक सावधानी रखनी पड+ती है जबकि प्रकाश स्तंभन भिद् लौह के अध्ययन से यह सिद्ध हुआ है कि इन्फ्रारैड सिग्नल्स में यह आदर्श काम करता है तथा इसका प्रयोग वातावरण में मौजूद नमी के खतरे के बिना किया जा सकता है।
इस प्रकार हम कह सकते है कि महर्षि भारद्वाज प्रणीत ग्रंथ के विभिन्न अध्यायों में से एक अध्याय पर कुछ प्रयोंगों की सत्यता यह विश्वास दिलाती है कि यदि एक ग्रंथ का एक अध्याय सही है तो अन्य अध्याय भी सही होंगे और प्राचीन काल में विमान विद्या कपोल कल्पना न होकर एक यथार्थ था इस का विश्वास दिलाती है । यह विश्वास सार्थक करने हेतु इस पुस्तक के अन्य अध्याय अपनी सत्यता की सिद्धी हेतु साहसी संशोधकों की राह देख रहे हैं।
जन सामान्य में हमारे प्राचीन ऋषियों-मुनियों के बारे में ऐसी धारणा जड़ जमाकर बैठी हुई है कि वे जंगलों में रहते थे, जटाजूटधारी थे, भगवा वस्त्र पहनते थे, झोपड़ियों में रहते हुए दिन-रात ब्रह्म-चिन्तन में निमग्न रहते थे, सांसारिकता से उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं रहता था।
इसी पंगु अवधारणा का एक बहुत बड़ा अनर्थकारी पहलू यह है कि हम अपने महान पूर्वजों के जीवन के उस पक्ष को एकदम भुला बैठे, जो उनके महान् वैज्ञानिक होने को न केवल उजागर करता है वरन् सप्रमाण पुष्ट भी करता है। महर्षि भरद्वाज हमारे उन प्राचीन विज्ञानवेत्ताओं में से ही एक ऐसे महान् वैज्ञानिक थे जिनका जीवन तो अति साधारण था लेकिन उनके पास लोकोपकारक विज्ञान की महान दृष्टि थी।
क्रमशः____
No comments:
Post a Comment