महाभारत के युद्ध के बाद कुछ सालों तक पांडवों ने हस्तिनापुर पर राज किया। लेकिन जब वो राजपाठ छोड़कर हिमालय जाने लगे तो राज का जिम्मा अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को दे दिया गया। परीक्षित ने पांडवों की परंपरा को आगे बढ़ाया। एक दिन राजा परीक्षित शिकार के लिए जंगल गए थे। शिकार खेलते-खेलते वह ऋषि शमिक के आश्रम से होकर गुजरे।
ऋषि उस वक्त ब्रह्म ध्यान में आसन लगा कर बैठे हुए थे। उन्होंने राजा की ओर ध्यान नहीं दिया। इस पर परीक्षित को बहुत तेज गुस्सा आया और उन्होंने ऋषि के गले में एक मरा हुआ सांप डाल दिया। किन्तु उनके पुत्र ऋंगी ऋषि को जब इस बात का पता चला तो उन्हें राजा परीक्षित पर बहुत क्रोध आया। ऋंगी ऋषि ने सोचा कि यदि यह राजा जीवित रहेगा तो इसी प्रकार ब्राह्मणों का अपमान करता रहेगा। इस प्रकार विचार करके उस ऋषि कुमार ने राजा परीक्षित को यह श्राप दे दिया कि जा तुझे आज से सातवें दिन तक्षक सर्प डसेगा।
शमिक ऋषि के समाधि टूटने पर उनके पुत्र ऋंगी ऋषि ने उन्हें राजा परीक्षित के कुकृत्य और अपने श्राप के विषय में बताया। श्राप के बारे में सुन कर शमिक ऋषि को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने कहा यह राजा श्राप देने योग्य नहीं था पर तूने उसे श्राप दे कर घोर अपराध किया है। कहीं ऐसा न हो कि वह राजा स्वयं तुझे श्राप दे दे, किन्तु मैं जानता हूँ कि वे परम ज्ञानी है और ऐसा कदापि नहीं करेंगे।”
ऋषि शमिक को अपने पुत्र के इस अपराध के कारण अत्यंत पश्चाताप होने लगा।
घर पहुँचने पर महाराज परीक्षित को ऋषि कुमार के शाप की बात ज्ञात हुई। ये अपने पुत्र जनमेजय को राज्य देकर गंगातट पर पहुँचे और आगामी सात दिनों तक निर्जल व्रत का निश्चय किया। वहाँ पर वामदेव आदि बहुत-से ऋषि आये। उसी समय घूमते हुए श्रीशुकदेव जी भी वहाँ आ गये। परीक्षित ने उनका विधिवत पूजन किया और उनसे अपनी मुक्ति का उपाय पूछा। शुकदेव जी ने उन्हें सात दिनों तक श्रीमद्भागवत की पावन कथा का श्रवण कराया। श्रीमद्भागवत श्रवण से परीक्षित का मन पूर्णरूप से भगवान में लग गया और सातवें दिन तक्षक के काटने के बाद भी उनकी मुक्ति हो गयी।
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