गायत्री वैदिक संस्कृत का एक छन्द है जिसमें आठ- आठ अक्षरों के तीन चरण- कुल 24 अक्षर होते हैं ।। गायत्री शब्द का अर्थ है- प्राण- रक्षक ।। गय कहते हैं प्राण को, त्रि कहते हैं त्राण- संरक्षण करने वाली को ।। जिस शक्ति का आश्रय लेने पर प्राण का, प्रतिभा का, जीवन का संरक्षण होता है उसे गायत्री कहा जायेगा ।। और भी कितने अर्थ शास्त्रकारों ने किये हैं ।।
जिन्हें चरित्र- निष्ठा एवं समाज- निष्ठा के, व्यक्ति और समाज की प्रगति सुव्यवस्था के, आधारभूत सिद्धान्त कहा जा सकता है ।। इस महामंत्र के शब्दों को नवधा भक्ति के सिद्धान्त- ब्रह्म तत्व रूपी सूर्य के नव ग्रह कहा गया है ।।
रामायण के राम- परशुराम समवाद में ब्राह्मण के परम पुनीत नौ गुणों की चर्चा है ।। यह धर्म के दस लक्षणों से मिलते- जुलते हैं ।। इन सब अर्थों पर विचार करने पर यह कहा जा सकता है कि यह छोटा- सा मंत्र भारतीय संस्कृति, धर्म एवं तत्त्वज्ञान का बीज है ।। इसी के थोड़े से अक्षरों में सन्निहित प्रेरणाओं की व्याख्या स्वरूप चारों वेद बने ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः यह गायत्री का शीर्ष कहलाता है ।। शेष आठ- आठ अक्षरों के तीन चरण हैं ।। जिनके कारण उसे त्रिपदा कहा गया है ।। एक शीर्ष तीन चरण, इस प्रकार उसके चार भाग हो गये, इन चारों का रहस्य एवं अर्थ वेदों में है ।।
कहा जाता है कि ब्रह्माजी ने अपने चार मुखों से गायत्री के इन चारों भागों का व्याख्यान चार वेदों के रूप में दिया ।। इस प्रकार उसका नाम वेदमाता पड़ा ।।
गायत्री में सन्निहित तत्त्वज्ञान की दो प्रकार से व्याख्या होती रही है ।। एक ज्ञान परक दूसरी विज्ञान परक ।। ज्ञान परक को ब्रह्मविद्या और विज्ञान परक को ब्रह्मशक्ति कहते हैं ।। इन दोनों पक्षों को अलंकारिक रूप में ब्रह्मा की दो पत्नियों के रूप में चित्रित किया गया है ।।
एक का नाम गायत्री, दूसरी का सावित्री गायत्री में योगाभ्यास की ध्यान- धारणा है और सावित्री में तपश्चर्या की प्रेरणा ।। एक को दर्शन दूसरे को प्रयोग कह सकते हैं ।। सिद्धान्त और व्यवहार के समन्वय से ही एक बात पूरी होती है ।। गायत्री में अपने ही भीतर दोनों पक्ष हैं ।। उसमें आत्म- कल्याण की गंगा और भौतिक समृद्धि की यमुना दोनों का उद्गम है ।।
उद्गम छोटे होते हैं किन्तु आगे बढ़ते चलने पर उनका विकास होता चलता है ।। गायत्री के बीज मंत्र का अर्थ और रहस्य समूचे आर्ष साहित्य के रूप में विस्तृत होता चला गया है।
गायत्री का सार शब्दार्थ इसी प्रार्थना में समाविष्ट हो जाता है किन्तु ‘हे तेजस्वी परमात्मा हम आपके श्रेष्ठ प्रकाश को अपने में धारण करते हैं ।। हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित कीजिए ।’ शिक्षा की दृष्टि से इन शब्दों का सार बुद्धि को सन्मार्ग पर चलाने के लिए प्रयत्न करना है ।।
सद्बुद्धि ही वह तत्त्व है जिसके आधार पर व्यक्तित्व निखरने- उभरते हैं ।। इसी के अभाव में पतन और पिछड़ापन पल्ले बँधता है ।। हाड़- माँस की दृष्टि से सभी मनुष्य के शरीरों की स्थिति प्रायः एक जैसी ही है मानसिक रोगियों, अविकसितों को छोड़कर मस्तिष्कीय स्तर भी एक जैसा ही होता है ।।
प्रयत्न करने पर शरीरों की बलिष्ठ और मस्तिष्कों को विद्वान बनाया जाता है ।। मूलतः सभी मनुष्यों प्राणियों की स्थिति लगभग एक जैसी ही मानी जा सकती है ।।
इतने पर भी एक ऋषि बनता है ।। दूसरा तस्कर ।। एक श्रेष्ठ -सज्जन का श्रेय- सम्मान पाता है ।। दूसरा दुष्ट- दुर्जन के रूप में धिक्कारा जाता है ।। एक को असीम सहयोग मिलता है और पग- पग पर सफलता की सीढ़ियाँ सामने खड़ी दीखती है ।। दूसरा अविश्वस्त, अप्रामाणिक माना जाता है और असहयोग के कारण हर काम में असफल रहता है ।।
यह अन्तर मात्र बुद्धि के स्तर का है। वह जिधर भी घसीट ले जाती है ।। उधर ही जीवन का प्रवाह बढ़ने लगता है ।। कौन क्या बना? किसे कितनी सफलता मिली? किसने कितना श्रेय- सम्मान पाया? उसका श्रेय समुन्नत लोगों की सद्बुद्धि को ही दिया जा सकता है ।।
जो दुर्गति के दलदल में फँसे हैं उनके दुर्भाग्य का सूत्र- संचालन दुर्बुद्धि ही करती दिखाई देगी ।। स्वर्ग तक ऊँचा उठा ले जाने और नरक के गर्त में गिराने का कार्य मानवीय बुद्धि की स्थिति और दिशाधारा पर ही अवलम्बित रहता है ।।
तत्त्वदर्शी महामनीषियों ने इस तथ्य को समझा और मनुष्य मात्र को शिक्षा दी कि वे बुद्धि का महत्त्व समझें और उसे शालीनता की रीति- नीति अपनाने के लिए प्रशिक्षित अभ्यस्त बनाने का प्रयत्न करें ।। यही है गायत्री मंत्र का मूल विषय ।।
कहने सुनने में बात सरल सी है पर व्यवहार में बडी कठिनाई से उतरती है ।। क्योंकि आस्था, श्रद्धा, निष्ठा, प्रज्ञा की चतुर्विध समन्वय अन्तःकरण कहलाता है ।। यही वह मरुस्थल है जहाँ संदेशा देने वाली प्रेरणाए उठती हैं और उसे कार्यान्वित करने के लिए, बुद्धि एवं चित्त का मस्तिष्कीय संस्थान क्रियाशील होता है ।।
अन्तःकरण को प्रभावित, परिवर्तन एवं परिष्कृत करने की क्षमता जिन विशिष्ट उपचारों में है उन्हीं को अध्यात्म साधना कहते हैं ।। गायत्री मंत्र के अक्षरों में ज्ञान की उच्चस्तरीय भूमिका विद्यमान है ।। उस विचार प्रक्रिया को अन्तरात्मा की गहरी परत में प्रतिष्ठापित करने के लिए गायत्री मन्त्र की उपासना की जाती है ।।
इस कथन का सार इतना ही है कि मन्त्रार्थ को उत्कृष्ट चिन्तन के रूप में ग्रहण करना मस्तिष्क का काम है और उसकी दिव्य प्रेरणाओं को चेतना के मर्मस्थल में प्रतिष्ठित करना अन्तःकरण का ।।
मस्तिष्क और अन्तःकरणों में जो सद्भावना सुस्थिर होती और प्रखर बनती है उसी का परम पावनी सद्बुद्धि ऋतम्भरा प्रज्ञा एवं गायत्री माता कहा गया है ।। जो इतना प्रयोजन पूरा कर सके वही इस महामंत्र का वास्तविक तात्त्विक एवं रहस्यमय गूढ़ार्थ है ।।
शब्दों की दृष्टि से इस महामंत्र का भावार्थ सरल है- ॐ परमात्मा का स्वयंभू स्वोच्चारित नाम ।। प्रकृति के गहन अन्तराल से एक दिव्य ध्वनि झंकार घरघराहट के रूप में गूँजती है ।। ब्रह्म और प्रकृति का बार- बार संयोग आघात होने से ही तीन गुण, पाँच प्राण और प्राणियों की संरचना होती है ।।
शब्द ब्रह्म को सृष्टि का आदि का कारण माना गया है ।। इसी की प्रकृति और पुरुष को मिलन प्रक्रिया का अनवरत क्रम कहा गया है ।। यहीं से अनहद- नाद उत्पन्न होता है ।। यही ॐकार है ।। घड़ियाल पर हथौड़े की चोट पड़ते रहने से जिस प्रकार झंकार थरथराहट होती है, जिस तरह घड़ी का पेण्डुलम हिलने से आवाज भी होती है और मशीन भी चलती है, ठीक उसी तरह प्रकृति पुरुष के मिलन संयोग से ॐकार उत्पन्न होता है और उस सृष्टि- बीज से स्थूल प्रकृति का आकार बनता जाता है ।।
परा प्रकृति के अपरा बनने की अदृश्य से दृश्य होने की यही प्रक्रिया है ।। इस प्रकार ॐकार ईश्वर का स्वउच्चारित सर्वश्रेष्ठ नाम माना गया है ।। प्रत्येक वेदमंत्र के सम्मानार्थ सर्वप्रथम ॐकार लगाये जाने की परम्परा भी है ।। गायत्री मंत्र में ॐकार का प्रयोग इसी दृष्टि से हुआ है।
भूः भूर्भुवः स्वः यह तीन लोक हैं ।। यों उन्हें पृथ्वी पाताल और स्वर्ग- मध्य, ऊपर, नीचे- के रूप में भी जाना जाता है ।। पर अध्यात्म प्रयोजनों में भूः स्थूल शरीर के लिए- भुवः सूक्ष्म शरीर के लिए और स्वः कारण शरीर के लिए प्रयुक्त होता है ।।
बाह्य जगत और अन्तर्गत के तीनों लोकों में ॐकार अर्थात् परमेश्वर संव्याप्त है ।। व्याहृतियों में इसी तथ्य का प्रतिपादन है ।। इसमें विशाल विश्व को विराट् ब्रह्म के रूप में देखने की वही मान्यता है जिसे भगवान ने अर्जुन को अपना विराट् रूप दिखाते हुए हृदयंगम कराया था ।। ॐ व्याहृतियों का समन्वित शीर्ष भाग इसी अर्थ और इसी प्रकाश को प्रकट करता है ।।
तत् अर्थात् वह ।। अपितु प्रकाश और ऊर्जा से- ज्ञान और वर्चस से ओत- प्रोत परमेश्वर ।। वरेण्यं- श्रेष्ठ, भर्ग- तेजस्वी, विनाशक, देव दिव्य इन चार शब्दों में परब्रह्म परमात्मा के उन गुणों का वर्णन है जिन्हें अपनाने का प्रयत्न करना हर अध्यात्मवादी के लिए, हर आत्मिक प्रगति के आकांक्षी के लिए नितान्त आवश्यक है ।।
सविता- प्रातःकालीन स्वर्णित सूर्य को कहते हैं ।। यह परमेश्वर की स्वनिर्मित प्रतिमा है ।। उससे बाह्य जग में प्रकाश और अन्तर्जगत् में सद्ज्ञान का अभिवर्षण होता है ।। सूर्य से गर्मी- ऊर्जा बाह्य जगत को मिलती है ।। सत्संकल्प, और सत्साहस से भरी हुई आत्मशक्ति का अनुदान अंतर्जगत् को मिलता है ।।
सविता शब्द का गायत्री मंत्र में सर्वप्रथम उल्लेख इसी दृष्टि से हुआ है कि साधक को प्रज्ञावान और शक्तिवान बनने के लिए अथक पुरुषार्थ करना चाहिए ।।
वरेण्यं- श्रेष्ठ चुनने योग्य- स्वीकार करने योग्य- वरिष्ठ ।। इस संसार में उत्कृष्ट- निकृष्ट, भला बुरा सब कुछ विद्यमान है। उसमें से जो श्रेष्ठ है, उसी को स्वीकार करना चाहिए ।। हंस जिस प्रकार नीर- क्षीर का विवेक करता है- मोती ही चुनता है, उसी प्रकार हमारा चयन मात्र उत्कृष्टता का ही होना चाहिए ।। निकृष्टता का तिरस्कार बहिष्कार करना ही उचित है ।।
आकर्षक और हितकर में से किसका चयन करें- इसी प्रश्न पर प्रायः भयंकर भूल होती रहती है ।। तात्कालिक लाभ के लिए दूरगामी हित साधन की उपेक्षा की जाती है ।। यह भूल न होने देने की ओर गायत्री मंत्र में संकेत है ।।
भर्ग शब्द तेजस्विता का बोधक है ।। इसमें प्रतिभा, साहसिकता, तत्परता, तन्मयता जैसे तत्वों का समावेश है ।। क्रिया में ओजस- विचारणा में तेजस और भावनाओं में वर्चस का आभास जिस, दिव्य तत्व के आधार पर मिलता है उसे भर्ग कहते हैं ।। भर्ग में एक भाव-भुनाने नष्ट करने का भी है ।।
अवांछनीयता, अनैतिकता, मूढ़- मान्यता जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ छाई रहें तो मनुष्य माया और पतन के दल- दल में फँसा ही रहेगा इनसे छुटकारा पाने के लिए ऐसी प्रखरता का उद्भव होना चाहिए जो अन्तर के कषायों और भीतर के कल्मषों से लोहा लेने में शौर्य पराक्रम का परिचय देती रहे ।।
परमेश्वर के अनन्त नाम हैं और इच्छानुसार नये रखे जा सकते हैं ।। किन्तु आत्मिक प्रगति के लिए जिन चार विशिष्टताओं की नितान्त आवश्यकता है, उनके बोध शब्दों का समावेश गायत्री मंत्र में हुआ है ।। सविता, वरेण्य, भर्ग के उपरान्त चौथी विभूति मत्ता का नाम है ” देव’ ।। देवताओं की गरिमा महिमा के संबंध में मोटी मान्यता और कल्पना प्रायः सभी को जाती है ।।
वे सुन्दर होते हैं, सदा युवक रहते हैं, उन्हें किसी बात की कमी नहीं पड़ती, प्रसन्न रहते हैं ।। वे दिव्य गुण, कर्म, स्वभाव के होते हैं ।। ईश्वर की ‘देव’ शब्द से सम्बोधन करने में यह आत्म- शिक्षण है कि हम परमात्मदेव के भक्त बनें और देवत्व की विशेषता में उनका अनुकरण अनुगमन करें ।।
देव और दैत्यों की यों अलंकारिक रूप से आकृतियाँ भी बनी हैं ।। देव सुन्दर और दैत्य कुरूप हैं ।। वस्तुतः उस चित्रण में आन्तरिक प्रकृति का ही संकेत समझा जाना चाहिए ।। देवत्व श्रेष्ठता की प्रकृति, आस्था, परम्परा एवं रीति- नीति है जिसे अपनाकर मनुष्य महामानवों की श्रेणी में जा पहुँचता है ।।
काय- कलेवर तो सामान्य ही रहता है पर दृष्टि, योजना एवं क्रिया मे उत्कृष्टता ही कूट- कूटकर भरी होती है ।। देवात्मा ही महात्मा कहलाते हैं। स्तर और ऊँचा उठने पर वे ही परमात्मा के देवदूत अथवा अवतारों के रूप में प्रकट होते और सृष्टि का सन्तुलन संभालते हैं ।। गायत्री मंत्र से जन- जन को इसी देवत्व की दिशा में बढ़ चलने की प्रेरणा देने के लिए ईश्वर को ‘देव’ शब्द से सम्बोधित किया गया है ।।
उपयुक्त चारों विशेषताओं की आवश्यकता एवं उपयोगिता समझ लेने पर ही काम नहीं चलता ।। उनके प्रति अन्तःकरण से गहन निष्ठा जमनी चाहिए और आचरण में इन्हीं का अभ्यास व्यवहार परिलक्षित रहना चाहिए ।। इसी को धारणा कहते हैं ।। धीमहि शब्द का अर्थ है- धारण करना ।। आदर्शों को व्यवहार में उतारना ही उनकी धारणा है ।।
कल्पनायें करते रहने- कहने सुनने मात्र में उलझे रहने से कुछ बनने वाला नहीं है ।। परिणाम ही क्रिया उत्पन्न करता है ।। क्रियावान ही सच्चा ज्ञानवान माना जाता है ।। उसी को सद्ज्ञान का सत्परिणाम उपलब्ध होता है जो चिन्तन को क्रिया में परिणित करने का साहस दिखाता है ।।
शीर्ष भाग में ईश्वर के सर्वव्यापी होने की आस्था को विकसित करके पदार्थों के प्रति सदुपयोग की और प्राणियों के प्रति सद्व्यवहार की नीति अपनाने का निर्देश है ।। प्रथम चरण में सविता और वरेण्य की तथा द्वितीय चरण में भर्ग और देव की अवधारणा का प्रशिक्षण है ।।
गायत्री के अन्तिम तृतीय चरण धियो यो नः प्रचोदयात् के अन्तर्गत परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना की गई है कि वह साधक अकेले नहीं वरन् समस्त जन समुदाय में प्राणिमात्र में धी तत्व की- सद्बुद्धि की प्रेरणा करें ।। नः हम सबको और धियः बुद्धियों को कहते हैं ।
यहाँ एक व्यक्ति की बुद्धि सुधर जाने को अपर्याप्त माना गया है ।। यह सुधार व्यापक रूप से हो तभी काम चलेगा ।। बहुमत दुर्बुद्धिग्रस्त का बना रहा तो एकाकी सज्जनता मात्र से कोई बड़ा प्रयोजन पूरा न हो सकेगा ।।
भगवान से प्रार्थना की गई है कि अपना अनुग्रह व्यक्ति विशेष पर वर्षा कर हाथ रोक न लें वरन् सद्भाव के प्रकाश को उदीयमान सूर्य की तरह सर्वत्र बिखरे ।। वैदिक शिक्षण की पद्धति यह है कि किसी विभूति एवं सम्पत्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने के रूप में आत्म- शिक्षण की व्यवस्था है ।।
प्रार्थना एक शैली है जिसके आधार पर अपने लिए, सबके लिए प्रबल पुरुषार्थ करने का भी निर्देश संकेत है ।। माँगने भर से ही सब कुछ मिल नहीं जाता ।। याचना में तो आकांक्षा की आवश्यकता का प्रकटीकरण मात्र है ।। किसी से कुछ पाना हो तो उसके लिए पात्रता की शर्त आवश्यक है कुपात्रों को कौन कुछ देता है ।।
किसी से कुछ पाना हो तो उसके लिए पात्रता की शर्त आवश्यक है ।। कुपात्रों को कौन कुछ देता है ।। किसी प्रकार मिल भी जाय तो उसका सदुपयोग कुपात्रता के रहते हो नहीं सकता ।।
उपलब्ध साधनों का दुरुपयोग होने से वे उलटे विघातक सिद्ध होते हैं, दुष्टता के रहते तो अभावग्रस्तता भी श्रेयस्कर होती है ।।
परमेश्वर से याचना करने का तात्पर्य यह नहीं है जो कुछ माँगा जा रहा है ।। वह अन्धाधुन्ध बरसा दिया जाय वरन् अन्तःकरण में विराजमान आत्मदेव से यह अनुरोध करना है कि वे अपनी पात्रता और प्रौढ़ता विकसित करें ताकि सहज ही उपलब्ध होती रहने वाली ईश्वरीय अनुकम्पा का अभीष्ट लाभ उपलब्ध हो सके ।।
प्रचोदयात् शब्द में प्रेरणा का अनुरोध है वस्तुतः यही ईश्वरीय अनुग्रह करने का केन्द्र भी है ।। प्रेरणा का तात्पर्य है अन्तःकरण में प्रबल आकांक्षा की उत्पत्ति ।। यह ही समूचे व्यक्तित्व का सार तत्व है ।। अंतःकरण का अनुसरण मनः सस्थान करता है ।। मन के निर्देश पर शरीर काम करता है ।।
क्रिया का परिणाम और परिस्थिति के रूप में सामने आता है तदनुसार सुख- दुःख के वे स्वरूप सामने आते हैं जिन्हें पाने या हटाने के लिए मनुष्य इच्छा करता है ।। इच्छा की पूर्ति होने न होने में सहायक बाधक और कोई नहीं, अन्तःकरण की प्रेरणा का स्तर ही आधारभूत कारण होता है ।।
गायत्री के चौबीस अक्षरों में 24 ऐसी शिक्षायें सन्निहित हैं, जिन्हें धर्म का सार तत्त्व कह सकते हैं ।। यह किसी देश, जाति, समाज सम्प्रदाय के लिए नहीं वरन् समस्त मानव समाज का नीति शास्त्र है ।। अतीत के स्वर्णिम काल में इन 24 अक्षरों को ही नीति- मर्यादा का अनुशासन माना जाता था ।।
भविष्य में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सूत्र अपनाकर समस्त मानव समाज को एकता के सूत्र में बाँधना पड़ेगा ।। एकता के चार सूत्र हैं ।। (1) विश्व राष्ट्र (2) विश्व भाषा (3) विश्व संस्कृति (4) विश्व मानस ।। इनके लिए आधारभूत एकता, विश्वदर्शन से ही बनेगी ।। इसे विश्व धर्म भी कह सकते हैं ।। इसके लिए आदर्श एवं सिद्धान्त पहले से ही निर्धारित करने होंगे ।। एकता की दिशा में प्रगति का प्रथम आधार यही है ।।
इसके लिए नये सिरे से खोज या निर्धारण करने की आवश्यकता नहीं है ।। तत्त्वदर्शी ऋषियों ने अपने समय के सतयुग में इस दिशा में पहले ही बहुत अन्वेषण, परीक्षण एवं अनुभव सम्पादित कर लिए हैं ।। इन सिद्धांतों को अपनाने के लिए, जन- समाज को सहमत किया था ।। फलतः मनुष्यों में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की अपनी भावी कामना का प्रत्यक्ष स्वरूप उन दिनों सर्वत्र ही दृष्टिगोचर होता रहा था ।।
गायत्री मन्त्र के 24 अक्षरों में उन्हीं 24 सूत्रों का समावेश है जिन्हें चिन्तन एवं व्यवहार में लाने में मनुष्य का व्यक्तित्व देवोपम बन सकता है ।। यह स्थापना नहीं, अनुभूति है अतीत का गौरव भरा इतिहास इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है ।। अगले दिनों नवयुग की संरचना के लिए प्रबल प्रयत्न चलते हैं ।। इसके लिए जीवन क्रम की दिशा- धारा एवं व्यवहार की रीति- नीति का निर्धारण आवश्यक है ।। इसके लिए कोई आयोग बिठाने की आवश्यकता नहीं है ।। भूतकाल के महान प्रयोगों की पुनरावृत्ति करने भर से काम चल जायेगा।।
गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों में जिन 24 सूत्रों का समावेश है, उसमें मनुष्य के आचार- विचार का समग्र निर्धारण मौजूद है ।। इन्हें अपनाने से औपचारिक शालीनता, सामाजिक प्रगति, समृद्धि एवं व्यापक सुख शान्ति की सुव्यवस्था बन सकती है ।। प्राचीन को अपना लिया जाय, अथवा नये सिरे से ढूँढ़ लिया जाय, विश्व शान्ति के लिए उन्हीं सिद्धांतों को अपनाना होगा, जिनमें चिर प्राचीन एवं चिर नवीन का आश्चर्यजनक समन्वय है ।।
गायत्री को मात्र 24 अक्षरों में लिखा हुआ, सबसे छोटा धर्मशास्त्र कह सकते हैं ।। इसे मानवी एकता एवं गरिमा के अनुकूल बना हुआ शाश्वत संविद्यान कह सकते हैं ।। इसमें मानवी एवं दैवी उत्कृष्टता का उच्चस्तरीय समावेश देखा जा सकता है ।। इन सूत्रों में ब्रह्म विद्या का सार तत्व भरा हुआ है ।।
आधुनिक विधि विद्यान की दृष्टि से उनमें नीति शास्त्र, नागरिक शास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति, धर्मशास्त्र आदि के उच्चस्तरीय सभी सिद्धांतों का समावेश किया जा सकता है।
भूतकाल की तरह भविष्य में भी मनुष्य जाति को सुस्थिर सुख- शान्ति के लिए उन्हीं 24 सिद्धान्तों को हृदयंगम करना होगा, जो अनादिकाल में ऋषियों ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से विश्व कल्याण की समस्त सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए निर्धारित किये थे ।। उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता तो सदा एकरस बनी रहेगी ।।
गायत्री उपासना का उद्देश्य है व्यक्ति का ऐसा अनुकूलन जिसमें ईश्वर के अजस्र अनुग्रह को धारण कर सकने की पात्रता हो ।। उपजाऊ भूमि में ही वर्षा के बादलों के अनुग्रह से हरियाली उपजती है ।। कठोर चट्टानों पर तो एक पत्ता भी नहीं उगता ।।
गायत्री उपासक का पूरा ध्यान आत्म- परिष्कार में नियोजित हो यही है संक्षेप में गायत्री मंत्र का अर्थ और तात्पर्य ।। जो उसका पालन कर सकेगा वह उन सभी लाभों से लाभान्वित होगा जो गायत्री उपासना के सन्दर्भ में शास्त्रकारों और ऋषियों ने बताये हैं ।।
(गायत्री महाविद्या का तत्त्वदर्शन पृ. 8.1)
No comments:
Post a Comment