Friday, 5 August 2016

महामुनि शुकदेव एवं तत्तवज्ञानी जनक


पुत्र प्राप्ति की कामना से भगवान व्यास ने शंकर की उपासना की, जिसके फलस्वरुप उन्हें शुकदेव जी पुरुष रुप में प्राप्त हुए। व्यास जी ने शुकदेव जी के जातकर्म , यज्ञोपवीत आदि सभी संस्कार सम्पन्न किये। गुरुकुल में रहकर शुकदेव जी ने शीघ्र ही सम्पूर्ण वेदों एवं अखिल धर्मशास्त्रों मे अद्भुत पाण्डित्य प्राप्त कर लिया। गुरु गृह से लौटने के बाद व्यास जी ने पुत्र का प्रसन्नतापूर्वक स्वागत किया। उन्होंने शुकदेव जी से कहा- पुत्र ! तुम बड़े बुद्धिमान हो। तुमने वेद और धर्मशास्त्र पढ़ लिये। अब अपना विवाह कर लो और गृहस्थ बनकर देवताओं तथा पितरों का यजन करो!
शुकदेव जी ने कहा- पिता जी गृहस्थ श्रम कष्ट देने वाला है। महाभाग मैं आपका औरस पुत्र हुँ। आप मुझे इस अन्धाकर पूर्ण संसार में क्यों ढकेल रहें है ? स्त्री , पुत्र , पौत्रादि सभी परिजन दुःखपूर्ति के ही साधन हैं। इनमें सुख की कल्पना करना भ्रममात्र है। जिसके प्रभाव से अविघाजन्य कर्मों का अभाव हो जाए, आप मुझे उसी का ज्ञान का उपदेश करें।
व्यास जी ने कहा- पुत्र! तुम भड़े भाग्यशाली हो। मैंने देवीभागवत की रचना की हैं। तुम इसका अध्ययन करो। सर्वप्रथम आधे श्लोक में इस पुराण का ज्ञान भगवती पराशक्ति ने भगवान विष्णु को देते हुए कहा है-यह सारा जगत मैं ही हूँ, मेरे सिवा दूसरी कोई अविनाशी वस्तु है ही नहीं। भगवान विष्णु से यह ज्ञान ब्रह्मा जी को मिला और ब्रह्मा जी ने इसे नारद जी को बताया तथा नारद जी से यह मुझे प्राप्त हुआ। फिर मैंने इसकी बारह स्कन्धों में व्याख्या की। महाभाग! तुम इस वेदतुल्य देवीभागवत का अध्ययन करो। इससे तुम संसार में रहते हुए माया से अप्रभावित रहोगे।
व्यास जी के उपदेश के बाद भी जब शुकदेव जी को शान्ति नहीं मिली, तब उन्होंने कहा- बेटा! तुम जनक जी के पास मिथिलापुरी में जाओ। वे ब्रह्मज्ञानी हैं। वहाँ तुम्हारा अज्ञान दूर हो जायगा। तदनन्तर तुम यहाँ लौट आना और सुखपूर्वक मेरे आश्रम में निवास करना।
व्यास जी के आदेश से शुकदेव जी मिथिला पहुँचे। वहाँ द्वारपाल ने उन्हें रोक दिया, काठ की भाँति मुनि वहीं खड़े हो गये। उनके ऊपर मान अपमान का कोई असर नहीं पड़ा। कुछ समय बाद राजमन्त्री उन्हें विलासभवन में ले गये। वहाँ शुकदेव जी का विधिवत आतिथ्य सत्कार किया गया, किन्तु शुकदेव जी का मन वहाँ भी विकार शून्य बना रहा। अन्त में उन्हें महाराजा जनक के समक्ष प्रस्तुत किया गया। महाराजा जनक ने उनका आतिथ्य सत्कार करने के बाद पूछा- महाभाग!आप बड़े निःस्पृह महात्मा हैं। किस कार्य से आप यहाँ पधारे हैं, बताने की कृपा करें।
महाराज जनक ने कहा- मनुष्यों को बन्धन में डालने और मुक्त करने में केवल मन ही कारण हैं। विषयी मन बन्धन और निर्विषयी मन मुक्ति का प्रदाता है। अविघा के कारण ही जीव और ब्रह्म में भेद बुद्धि की प्रतीति होती हैं। महाभाग! अविद्या विद्या अर्थात ब्रह्म ज्ञान से शान्त होती है। यह देह मेरी है, यही बन्धन है और यह देह मेरी नहीं है, यही मुक्ति है। बन्धन शरीर और घर में नहीं है, अहंता और ममता में है। जनक जी के उपदेश से शुकदेव जी की सारी शंकाए नष्ट हो गयीं। वे पिता के आश्रम में लौट आये। फिर उन्होंने पितरों की सुन्दरी कन्या पीवरी से विवाह करके गृहस्थाश्रम के नियमों का पालन किया, तदनन्तर संन्यास लेकर मुक्ति प्राप्त किया।

No comments:

Post a Comment