पतंजलि ने अष्टांग योग का सिद्धांत दिया है और आयुर्वेद के अध्ययन को भी आठ भागों में विभक्त किया गया है। यह माना जाता है कि प्रत्येक मनुष्य में दोष होते हैं जो शरीर की संरचना और तत्वों तो नियमित करते हैं और उन्हें निर्देश देते हैं। दोष की समझ भारत में आयुर्वेद के अध्ययन को आधार प्रदान करती है। अक्सर एक वैकल्पिक औषधि माने जाने वाले आयुर्वेद को भारत में एक चिकित्सा प्रणाली से कहीं अधिक माना जाता है, यह जीवन का विज्ञान है। यह मस्तिष्क और शरीर के बीच एक सामंजस्य बनाने में मनुष्य की सहायता करता है। आयुर्वेदिक औषधियां जड़ी-बूटियां, खनिज, धातु और 'एनिमल ओरिजन' से प्राप्त अवयवों से बनाई जाती हैं। आयुर्वेद की उपचार विधियां वास्तव में स्फूर्तिदायक अनुभव देती हैं।
कायचिकित्सा- यहां काय शब्द का अर्थ अग्नि है। काय चिकित्सा से तात्पर्य अग्नि चिकित्सा से है। शरीर की एक एक मूलभूत कोशिका से लेकर पूरा शरीर तंत्र हर समय एक सतत जीवनीय प्रक्रिया से गुजर रहा होता है। आयुर्वेद में इसे त्रिदोष तथा आधुनिक आयुर्विज्ञान में इसे एनाबोलिज्म, कैटाबोलिज्म, व मैटाबोलिज्म कहा गया है। आयुर्वेद की कायचिकित्सा नामक शाखा शरीर की इस मूलभूत ऊर्जा जठराग्नि पर ही मुख्यरूप से केद्रित है।
बालरोग चिकित्सा- गर्भावस्था के दौरान गर्भिणी के स्वास्थ्य की रक्षा एवं उसके रोगों तथा प्रसव के पश्चात शिशु की देखरेख इसी चिकित्सा के अन्तर्गत आते हैं।
भूतविद्या- देव, असुर, ग्रह, राक्षस, पिशाच, यक्ष इन सभी नामों की प्रयोग आयुर्वेद में विभिन्न जीवाणु, विषाणु के लिए किया गया है। जो अनेक तरह के रोगो की उत्पत्ति के कारण है। उनके दुष्प्रभावों से बचने के लिए जो चिकित्सा की जाती है, वह भूतचिकित्सा कहलाती है।
शल्यचिकित्सा- चीर-फाड़ या किसी भी यंत्र और शस्त्र द्वारा की गई चिकित्सा शल्यचिकित्सा कहलाती है।
शालाक्य तन्त्र- उर्ध्वजत्रु अर्थात कण्ड व उसके ऊपर सिर और मुख, नाक कान गला आदि अंगो के रोगों की चिकित्सा शालाक्य कहलाती है।
अगद तन्त्र- वह शाखा जिसमें विभिन्न विभिन्न प्रकार के विषों की पहचान और चिकित्सा की जाती है, अगद तन्त्र कहलाती है।
रसायन तन्त्र- शरीर के स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए जिस चिकित्सा का प्रयोग किया जाता है वो रसायन चिकित्सा कहलाती है।
वाजीकरण तन्त्र- जो चिकित्सा शुक्र की गुणवत्ता और मात्रा को बढ़ाने में सहायक है, वह वाजीकरण कहलाती है।
No comments:
Post a Comment