Wednesday, 21 September 2016

जब लिंकन ने सिखाया बड़प्पन का पाठ


प्रतिदिन भ्रमण पर जाना अब्राहम लिंकन का नियम था और इस दौरान प्रत्येक मिलने वाले से वे अत्यंत स्नेह से वार्तालाप करते। एक दिन वे अपनी घोड़ाबग्घी पर बैठकर भ्रमण पर निकल ही रहे थे कि उनके एक मित्र आ गए। लिंकन ने पहले उनका उचित सत्कार किया। फिर उनसे आग्रह किया ‘मैं नित्य ही भ्रमण पर जाता हूं। आज आप आ गए हैं तो कृपा कर आप भी इसमें शरीक हो। हम दोनों की बातचीत भी हो जाएगी और भ्रमण भी हो जाएगा’। मित्र ने लिंकन की बात मान ली। दोनों घोड़ाबग्घी पर सवार होकर निकले। थोड़ी दूर जाने पर मार्ग के एक ओर एक श्रमिक खड़ा दिखाई दिया। उसने लिंकन को देखते ही उन्हें झुककर नमस्कार किया। प्रत्युत्तर में लिंकन ने उससे भी अधिक झुककर उसे नमस्कार किया। लिंकन को ऐसा करते देखकर उनके मित्र को बड़ा अजीब लगा। उन्होंने मन में सोचा कि कहां लिंकन, जो इतने बड़े देश के राष्ट्रपति हैं और कहां ‘ये श्रमिक?’ आखिर उनसे रहा नहीं गया, सो उन्होंने लिंकन से पूछ ही लिया ‘आपने उस श्रमिक को इतना अधिक झुककर नमस्कार क्यों किया?’ तब लिंकन बोले ‘मैं अपने से अधिक नम्र अन्य किसी को देखना नहीं चाहता’। यह सुनकर लिंकन का मित्र उनकी महानता के समक्ष नतमस्तक हो गया।
शिक्षा- वस्तुत: बड़ा वही होता है जो ‘खास’ होते हुए भी स्वयं को ‘आम’ ही समझे और अन्यों के साथ तदनुरूप ही आचरण करे। बड़प्पन बड़ा बनकर रहने में नहीं वरन् बड़ा होकर भी छोटा बनकर रहने में निहित है।

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