Sunday, 31 January 2016

वास्तविक सुख


श्री राधे--
एक non -medical के छात्र को अपनी पढाई का बहूत अहंकार था ,-- एक दिन उसने एक नदी किनारे नाव चलाने वाले लडके से पुछा की क्या तु ये जानता है की ईलैक्ट्रोन,प्रोटोन,ओर न्युट्रोन क्या होते है??
नाव चलाने वाला बोला की-- मै कुछ नही जानता- मैने पढाई नही की-- मै बस नाव चलाना जानता हूं--ओर प्रभु का नाम गाता रहता हूं--
ये सुनने के बाद वो छात्र उस नाव चलाने वाले लडके पर हंसने लगा --- उसके बाद उसने कहा की चलो हमे ईस नदी के दुसरे पडाव पर ले चलो --
जब उस नाव मे बैठकर वो नोन मैडिकल का छात्र जाने लगा तो अचानक नाव मे कुछ खराबी आ गयी --- वो नोन मैडिकल का छात्र घबरा गया ओर तुरंत वो नाव चलाने वाला बोला की क्या तुम तैरना जानते हो??
वो छात्र बोला की-- नही नही मैने तो जीवन मे कभी तैरना सीखा ही नही--
उसके बाद उस नाव चलाने वाले ने ही उस छात्र को डुबने से बचा लिया ओर उस छात्र का सारा अहंकार चला गया,,उसके मन मे भक्ति भाव जागृत हो गया--
ईस उदाहरण से सबको एक बहूत सुंदर शिक्षा मिलती है की संसार मे हमने क्या पाया ओर क्या नही पाया ये महत्वपुर्ण नही है बल्कि जीवन मे हमने कितना प्रभु के लिए समय दिया ये महत्वपुर्ण है--
मनुष्य अपने जीवन के मोल को ओर जीवन के वास्तविक लक्ष्य को भुल बैठा ईसलिए मनुष्य हमेशा अशांत रहता है--
मनुष्य हर काम को करने से पहले सोचता है लेकिन जीवन को कैसे जीना है ईस बारे मे मनुष्य नही सोचता---
मनुष्य ईन भोगो मे ईतना डुबा रहता है की अपने जीवन के कल्याण के बारे मे विचार नही कर पाता---
ये जीवन भगवद्प्राप्ति के लिए मिला है-
भगवान राम कहते है की-- *★***एहि तन कर फल बिषय न भाई।
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
हे भाईयों ! विषय भोग इस शरीर के प्राप्त होने का फल नहीं है (अर्थात इस जगत् के भोगों की तो बात ही क्या) स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अंत में दुःख देने वाला है। अतः जो लोग यह मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगाते हैं, वे मूर्खों के सदृश अमृत को बदलकर विष ले लेते हैं-------
★**** संसार मे आकर अगर सब कुछ पा लिया ओर अगर भगवान को नही पाया तो सब कुछ पाकर भी एक दिन सब खोना पडेगा --
कबीर दास ने कहा है की--*कबीरा यह जग निर्धना,,धनवंता नहि कोई--
धनवंता तेहूं जानिये,,जाको रामनाम धन होई---
कबीर जी कहते है की संसार मे धनवान वो नही जिसके पास पैसा हो बल्कि असली धनवान तो वो है जिसके जीवन मे प्रभु का नाम हो--
वास्तविक सुख यानि आनंद तो सिर्फ प्रभु के भजन मे ओर उनकी कथाऐं श्रवण करने ओर उनके नाम का संकीर्तन् करने मे है--- श्री राधे

राम जी और शंकर जी का युद्ध


बात उन दिनों कि है जब श्रीराम का अश्वमेघ यज्ञ चल रहा था. श्रीराम के अनुज शत्रुघ्न के नेतृत्व में असंख्य वीरों की सेना सारे प्रदेश को विजित करती जा रही थी. यज्ञ का अश्व प्रदेश प्रदेश जा रहा था. इस क्रम में कई राजाओं के द्वारा यज्ञ का घोड़ा पकड़ा गया लेकिन अयोध्या की सेना के आगे उन्हें झुकना पड़ा. शत्रुघ्न के अलावा सेना में हनुमान, सुग्रीव और भरत पुत्र पुष्कल सहित कई महारथी उपस्थित थे जिन्हें जीतना देवताओं के लिए भी संभव नहीं था. कई जगह भ्रमण करने के बाद यज्ञ का घोडा देवपुर पहुंचा जहाँ राजा वीरमणि का राज्य था. राजा वीरमणि अति धर्मनिष्ठ तथा श्रीराम एवं महादेव के अनन्य भक्त थे. उनके दो पुत्र रुक्मांगद और शुभंगद वीरों में श्रेष्ठ थे. राजा वीरमणि के भाई वीरसिंह भी एक महारथी थे. राजा वीरमणि ने भगवान शंकर की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया था और महादेव ने उन्हें उनकी और उनके पूरे राज्य की रक्षा का वरदान दिया था. महादेव के द्वारा रक्षित होने के कारण कोई भी उनके राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं करता था.
जब अश्व उनके राज्य में पहुंचा तो राजा वीरमणि के पुत्र रुक्मांगद ने उसे बंदी बना लिया और अयोध्या के सैनिकों से कहा कि यज्ञ का घोडा उनके पास है इसलिए वे जाकर शत्रुघ्न से कहें कि विधिवत युद्ध कर वो अपना अश्व छुड़ा लें. जब रुक्मांगद ने ये सूचना अपने पिता को दी तो वो बड़े चिंतित हुए और अपने पुत्र से कहा की अनजाने में तुमने श्रीराम के यज्ञ का घोडा पकड़ लिया है. श्रीराम हमारे मित्र हैं और उनसे शत्रुता करने का कोई औचित्य नहीं है इसलिए तुम यज्ञ का घोडा वापस लौटा आओ. इसपर रुक्मांगद ने कहा कि हे पिताश्री, मैंने तो उन्हें युद्ध की चुनौती भी दे दी है अतः अब उन्हें बिना युद्ध के अश्व लौटना हमारा और उनका दोनों का अपमान होगा. अब तो जो हो गया है उसे बदला नहीं जा सकता इसलिए आप मुझे युद्ध की आज्ञा दें. पुत्र की बात सुनकर वीरमणि ने उसे सेना सुसज्जित करने की आज्ञा दे दी. राजा वीरमणि अपने भाई वीरसिंह और अपने दोनों पुत्र रुक्मांगद और शुभांगद के साथ विशाल सेना ले कर युद्ध क्षेत्र में आ गए.
इधर जब शत्रुघ्न को सूचना मिली कि उनके यज्ञ का घोडा बंदी बना लिया गया है तो वो बहुत क्रोधित हुए एवं अपनी पूरी सेना के साथ युद्ध के लिए युद्ध क्षेत्र में आ गए. उन्होंने पूछा की उनकी सेना से कौन अश्व को छुड़ाएगा तो भरत पुत्र पुष्कल ने कहा कि तातश्री, आप चिंता न करें. आपके आशीर्वाद और श्रीराम के प्रताप से मैं आज ही इन सभी योद्धाओं को मार कर अश्व को मुक्त करता हूँ. वे दोनों इस प्रकार बात कर रहे थे कि पवनसुत हनुमान ने कहा कि राजा वीरमणि के राज्य पर आक्रमण करना स्वयं परमपिता ब्रम्हा के लिए भी कठिन है क्योंकि ये नगरी महाकाल द्वारा रक्षित है. अतः उचित यही होगा कि पहले हमें बातचीत द्वारा राजा वीरमणि को समझाना चाहिए और अगर हम न समझा पाए तो हमें श्रीराम को सूचित करना चाहिए. राजा वीरमणि श्रीराम का बहुत आदर करते हैं इसलिये वे उनकी बात नहीं टाल पाएंगे. हनुमान की बात सुन कर श्री शत्रुघ्न बोले की हमारे रहते अगर श्रीराम को युद्ध भूमि में आना पड़े, ये हमारे लिए अत्यंत लज्जा की बात है. अब जो भी हो हमें युद्ध तो करना ही पड़ेगा. ये कहकर वे सेना सहित युद्धभूमि में पहुच गए.
भयानक युद्ध छिड़ गया. भरत पुत्र पुष्कल सीधा जाकर राजा वीरमणि से भिड गया. दोनों अतुलनीय वीर थे. वे दोनों तरह तरह के शस्त्रों का प्रयोग करते हुए युद्ध करने लगे. हनुमान राजा वीरमणि के भाई महापराक्रमी वीरसिंह से युद्ध करने लगे. रुक्मांगद और शुभांगद ने शत्रुघ्न पर धावा बोल दिया. पुष्कल और वीरमणि में बड़ा घमासान युद्ध हुआ. अंत में पुष्कल ने वीरमणि पर आठ नाराच बाणों से वार किया. इस वार को राजा वीरमणि सह नहीं पाए और मुर्छित होकर अपने रथ पर गिर पड़े. वीरसिंह ने हनुमान पर कई अस्त्रों का प्रयोग किया पर उन्हें कोई हानि न पहुंचा सके. हनुमान ने एक विकट पेड़ से वीरसिंह पर वार किया इससे वीरसिंह रक्तवमन करते हुए मूर्छित हो गए. उधर श्रीशत्रुघ्न और राजा वीरमणि के पुत्रों में असाधारण युद्ध चल रहा था. अंत में कोई चारा न देख कर शत्रुघ्न ने दोनों भाइयों को नागपाश में बाँध लिया. अपनी विजय देख कर शत्रुघ्न की सेना के सभी वीर सिंहनाद करने लगे. उधर राजा वीरमणि की मूर्छा दूर हुई तो उन्होंने देखा कि उनकी सेना हार के कगार पर है. ये देख कर उन्होंने भगवान रूद्र का स्मरण किया.
महादेव ने अपने भक्त को मुसीबत में जान कर वीरभद्र के नेतृत्व में नंदी, भृंगी सहित सारे गणों को युद्ध क्षेत्र में भेज दिया. महाकाल के सारे अनुचर उनकी जयजयकार करते हुए अयोध्या की सेना पर टूट पड़े. शत्रुघ्न, हनुमान और सारे लोगों को लगा कि जैसे प्रलय आ गया हो. जब उन्होंने भयानक मुख वाले रुद्रावतार वीरभद्र, नंदी, भृंगी सहित महादेव की सेना देखी तो सारे सैनिक भय से कांप उठे. शत्रुघ्न ने हनुमान से कहा कि जिस वीरभद्र ने बात ही बात में दक्ष प्रजापति का मस्तक काट डाला था और जो तेज और समता में स्वयं महाकाल के समान है उसे युद्ध में कैसे हराया जा सकता है. ये सुनकर पुष्कल ने कहा की हे तातश्री, आप दुखी मत हों. अब तो जो भी हो, हमें युद्ध तो करना हीं पड़ेगा. ये कहता हुए पुष्कल वीरभद्र से, हनुमान नंदी से और शत्रुघ्न भृंगी से जा भिड़े. पुष्कल ने अपने सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग वीरभद्र पर कर दिया लेकिन वीरभद्र ने बात ही बात में उसे काट दिया. उन्होंने पुष्कल से कहा की हे बालक, अभी तुम्हारी आयु मृत्यु को प्राप्त होने की नहीं हुई है इसलिए युद्ध क्षेत्र से हट जाओ. उसी समय पुष्कल ने वीरभद्र पर शक्ति से प्रहार किया जो सीधे उनके मर्मस्थान पर जाकर लगा. इसके बाद वीरभद्र ने क्रोध से थर्राते हुए एक त्रिशूल से पुष्कल का मस्तक काट लिया और भयानक सिंहनाद किया. उधर भृंगी आदि गणों ने शत्रुघ्न पर भयानक आक्रमण कर दिया. अंत में भृंगी ने महादेव के दिए पाश में शत्रुघ्न को बाँध दिया. हनुमान अपनी पूरी शक्ति से नंदी से युद्ध कर रहे थे. उन दोनों ने ऐसा युद्ध किया जैसा पहले किसी ने नहीं किया था. दोनों श्रीराम के भक्त थे और महादेव के तेज से उत्पन्न हुए थे. काफी देर लड़ने के बाद कोई और उपाय न देख कर नंदी ने शिवास्त्र का प्रयोग कर हनुमान को पराभूत कर दिया. अयोध्या के सेना की हार देख कर राजा वीरमणि की सेना में जबरदस्त उत्साह आ गया और वे बाक़ी बचे सैनिकों पर टूट पड़े. ये देख कर हनुमान ने शत्रुघ्न से कहा कि मैंने आपसे पहले ही कहा था कि ये नगरी महाकाल द्वारा रक्षित है लेकिन आपने मेरी बात नहीं मानी. अब इस संकट से बचाव का एक ही उपाय है कि हम सब श्रीराम को याद करें. ऐसा सुनते ही सारे सैनिक शत्रुघ्न, पुष्कल एवं हनुमान सहित श्रीराम को याद करने लगे.
अपने भक्तों की पुकार सुन कर श्रीराम तत्काल ही लक्ष्मण और भरत के साथ वहां आ गए. अपने प्रभु को आया देख सभी हर्षित हो गए एवं सबको ये विश्वास हो गया कि अब हमारी विजय निश्चित है. श्रीराम के आने पर जैसे पूरी सेना में प्राण का संचार हो गया. श्रीराम ने सबसे पहले शत्रुघ्न को मुक्त कराया और उधर लक्ष्मण ने हनुमान को मुक्त करा दिया. जब श्रीराम, लक्ष्मण और भरत ने देखा कि पुष्कल मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ. भरत तो शोक में मूर्छित हो गए. श्रीराम ने क्रोध में आकर वीरभद्र से कहा कि तुमने जिस प्रकार पुष्कल का वध किया है उसी प्रकार अब अपने जीवन का भी अंत समझो. ऐसा कहते हुए श्रीराम ने सारी सेना के साथ शिवगणों पर धावा बोल दिया. जल्द ही उन्हें ये पता चल गया कि शिवगणों पर साधारण अस्त्र बेकार है इसलिए उन्होंने महर्षि विश्वामित्र द्वारा प्रदान किये दिव्यास्त्रों से वीरभद्र और नंदी सहित सारी सेना को विदीर्ण कर दिया. श्रीराम के प्रताप से पार न पाते हुए सारे गणों ने एक स्वर में महादेव का आव्हान करना शुरू कर दिया. जब महादेव ने देखा कि उनकी सेना बड़े कष्ट में है तो वे स्वयं युद्ध क्षेत्र में प्रकट हुए.
इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए परमपिता ब्रम्हा सहित सारे देवता आकाश में स्थित हो गए. जब महाकाल ने युद्ध क्षेत्र में प्रवेश किया तो उनके तेज से श्रीराम की सारी सेना मूर्छित हो गयी. जब श्रीराम ने देखा कि स्वयं महादेव रणक्षेत्र में आये हैं तो उन्होंने शस्त्र का त्याग कर भगवान रूद्र को दंडवत प्रणाम किया एवं उनकी स्तुति की. उन्होंने महाकाल की स्तुति करते हुए कहा कि हे सारे बृह्मांड के स्वामी !आपके ही प्रताप से मैंने महापराक्रमी रावण का वध किया, आप स्वयं ज्योतिर्लिंग में रामेश्वरम में पधारे. हमारा जो भी बल है वो भी आपके आशीर्वाद के फलस्वरूप हीं है. ये जो अश्वमेघ यज्ञ मैंने किया है वो भी आपकी ही इच्छा से ही हो रहा है इसलिए हमपर कृपा करें और इस युद्ध का अंत करें. ये सुन कर भगवान रूद्र बोले की हे राम, आप स्वयं विष्णु के दुसरे रूप है मेरी आपसे युद्ध करने की कोई इच्छा नहीं है फिर भी चूँकि मैंने अपने भक्त वीरमणि को उसकी रक्षा का वरदान दिया है इसलिए मैं इस युद्ध से पीछे नहीं हट सकता अतः संकोच छोड़ कर आप युद्ध करें. श्रीराम ने इसे महाकाल की आज्ञा मान कर युद्ध करना शुरू किया. दोनों में महान युद्ध छिड़ गया जिसे देखने देवता लोग आकाश में स्थित हो गए. श्रीराम ने अपने सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग महाकाल पर कर दिया पर उन्हें संतुष्ट नहीं कर सके. अंत में उन्होंने पाशुपतास्त्र का संधान किया और भगवान शिव से बोले की हे प्रभु, आपने ही मुझे ये वरदान दिया है कि आपके द्वारा प्रदत्त इस अस्त्र से त्रिलोक में कोई पराजित हुए बिना नहीं रह सकता, इसलिए हे महादेव आपकी ही आज्ञा और इच्छा से मैं इसका प्रयोग आपपर हीं करता हूँ. ये कहते हुए श्रीराम ने वो महान दिव्यास्त्र भगवान शिव पर चला दिया. वो अस्त्र सीधा महादेव के हृदयस्थल में समां गया और भगवान रूद्र इससे संतुष्ट हो गए. उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम से कहा कि आपने युद्ध में मुझे संतुष्ट किया है इसलिए जो इच्छा हो वर मांग लें. इसपर श्रीराम ने कहा कि हे भगवान ! यहाँ इस युद्ध क्षेत्र में भ्राता भरत के पुत्र पुष्कल के साथ असंख्य योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गए है, उन्हें कृपया जीवन दान दीजिये. महादेव ने मुस्कुराते हुए तथास्तु कहा और पुष्कल समेत दोनों ओर के सारे योद्धाओं को जीवित कर दिया. इसके बाद उनकी आज्ञा से राजा वीरमणि ने यज्ञ का घोडा श्रीराम को लौटा दिया और अपना राज्य रुक्मांगद को सौंप कर वे भी शत्रुघ्न के साथ आगे चल दिए.

प्रेम के प्रति जिज्ञासा

पार्वती शिव की केवल अर्धांगिनी ही नहीं अपितु शिष्या भी बनी, वे नित्य ही अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए शिव से अनेकों प्रश्न पूछती और उनपर चर्चा करती ! एक दिन उन्होंने शिव से कहा -
पार्वती:- प्रेम क्या है बताइए महादेव, कृप्या बताइए की प्रेम का रहस्य क्या है, क्या है इसका वास्तविक स्वरुप, क्या है इसका भविष्य ! आप तो हमारे गुरु की भी भूमिका निभा रहे हैं इस प्रेम ज्ञान से अवगत कराना भी तो आपका ही दायित्व है ! बताइए महादेव !
शिव:- प्रेम क्या है ! यह तुम पूछ रही हो पार्वती? प्रेम का रहस्य क्या है? प्रेम का स्वरुप क्या है? तुमने ही प्रेम के अनेको रूप उजागर किये हैं पार्वती ! तुमसे ही प्रेम की अनेक अनुभूतियाँ हुयी ! तुम्हारे प्रश्न में ही तुम्हारा उत्तर निहित है !
पार्वती:- क्या इन विभिन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति संभव है?
शिव:- सती के रूप में जब तुम अपने प्राण त्याग जब तुम दूर चली गयी, मेरा जीवन, मेरा संसार, मेरा दायित्व, सब निरर्थक और निराधार हो गया ! मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धाराएँ बहने लगी ! अपने से दूर कर तुमने मुझे मुझ से भी दूर कर दिया था पार्वती ! येही तो प्रेम है पार्वती !तुम्हारे अभाव में मेरे अधूरेपन की अति से इस सृष्ठी का अपूर्ण हो जाना येही प्रेम है ! तुम्हारे और मेरे पुनह मिलन कराने हेतु इस समस्त ब्रह्माण्ड का हर संभव प्रयास करना हर संभव षड्यंत्र रचना, इसका कारण हमारा असीम प्रेम ही तो है ! तुम्हारा पार्वती के रूप में पुनह जनम लेकर मेरे एकांकीपन और मुझे मेरे वैराग्य से बहार नकलने पर विवश करना, और मेरा विवश हो जाना यह प्रेम ही तो है !
जब जब अन्नपूर्णा के रूप में तुम मेरी क्षुधा को बिना प्रतिबन्धन के शांत करती हो या कामख्या के रूप में मेरी कामना करती हो तो वह प्रेम की अनुभूति ही है !
तुम्हारे सौम्य और सहज गौरी रूप में हर प्रकार के अधिकार जब मैं तुम पर व्यक्त करता हूँ और तुम उन अधिकारों को मान्यता देती हो और मुझे विशवास दिलाती रहती हो की सिवाए मेरे इस संसार में तुम्हे किसी का वर्चस्व स्वीकार नहीं तो वह प्रेम की अनुभूति ही होती है !
जब तुम मनोरंजन हेतु मुझे चौसर में पराजित करती हो तो भी विजय मेरी ही होती है, क्योंकि उस समय तुम्हारे मुख पर आई प्रसन्नता मुझे मेरे दायित्व की पूर्णता का आभास कराती है ! तुम्हे सुखी देख कर मुझे सुख का जो आभास होता है यही तो प्रेम है पार्वती !
जब तुमने अपने अस्त्र वहन कर शक्तिशाली दुर्गा रूप में अपने संरक्षण में मुझे शसस्त बनाया तो वह अनुभूति प्रेम की ही थी !
जब तुमने काली के रूप में संहार कर नृत्य करते हुए मेरे शरीर पर पाँव रखा तो तुम्हे अपनी भूल का आभास हुआ, और तुम्हारी जिह्वया बहार निकली, वही प्रेम था पार्वती !
जब तुम अपना सौंदर्यपूर्ण ललिता रूप जोकि अति भयंकर भैरवी रूप भी है, का दर्शन देती हो, और जब मैं तुम्हारे अति-भाग्यशाली मंगला रूप जोकि उग्र चंडिका रूप भी है, का अनुभव करता हूँ, जब मैं तुम्हे पूर्णतया देखता हूँ बिना किसी प्रयत्न के, तो मैं अनुभव करता हूँ की मैं सत्य देखने में सक्षम हूँ ! जब तुम मुझे अपने सम्पूर्ण रूपों के दर्शन देती हो और मुझे आभास कराती हो की मैं तुम्हारा विश्वासपात्र हूँ ! इस तरह तुम मेरे लिए एक दर्पण बन जाती हो जिसमें झांक कर में स्वयं को देख पाता हूँ की मैं कौन हूँ ! तुम अपने दर्शन से साक्षात् कराती हो और मैं आनंदविभोर हो नाच उठता हूँ और नटराज कहलाता हूँ ! यही तो प्रेम है !
जब तुम बारम्बार स्वयं को मेरे प्रति समर्पित कर मुझे आभास कराती हो की मैं तुम्हारे योग्य हूँ, जब तुमने मेरी वास्तविकता को प्रतिबिम्भित कर मेरे दर्पण के रूप को धारण कर लिया वही तो प्रेम था पार्वती !
प्रेम के प्रति तुम्हारी उत्सुकता और जिज्ञासा अब शांत हुई की नहीं?

शरीरं दृश्यः- शिव सूत्र


“शरीरं दृश्यः” यह जगत दृश्य है, हम द्रष्टा हैं, हमारा शरीर भी दृश्य है, मन भी दृश्य है, विचार, भाव सभी दृश्य हैं, जिन्हें देखने वाला “मैं” हूँ, प्रथम तो हमें यह जानना है कई आँख द्रष्टा नहीं है, आंख से देखते हुए भी यदि मन कहीं और है तो हम देख नहीं पाते, इसी तरह मन जुड़ा होने पर भी, नींद में तो आंख खुली होने पर भी हम देख नहीं पाते. मन के माध्यम से देखता कोई और है, जो मन से परे है, विचार, भाव, बुद्धि इन सबसे परे है, जो स्वयंभू है, जिसे किसी का आश्रय नहीं चाहिए, जो अपना आश्रय आप है, जो सभी का आश्रय है. गहराई से देखें तो यह सारा जगत ही हमारा शरीर है, हवा यदि जहरीली हो जाये, या सूर्य न रहे तो देह भी न रहेगी, धरा उसे टिकने के लिए चाहिए, शरीर प्रकृति का अंश है, पर आत्मा परम चैतन्य का अंश है. ध्यान में इसी की अनुभूति हम कर सकते हैं, उसकी झलक भी मन, प्राण, हृदय को ज्योतिर्मय कर देती है. सभी को अनजाने सुख से भर देता है.
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प्रज्ञानं
कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद (शुकरहस्योपनिषद) में महर्षि व्यास जी के आग्रह पर भगवान शिव उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश 'ब्रह्म रहस्य' के रूप में देते हैं।
वे चार महावाक्य-
1 ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म
2 ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि
3 ॐ तत्त्वमसि और
4 ॐ अयमात्मा ब्रह्म हैं।
(1) ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म(ज्ञान , आनंद आदि नाम भगवान शिव का पर्यायवाची नाम है ज्ञान शब्द से यह अर्थ न लगाना की ये शद्ब्ज्ञान का सूचक है)
इस महावाक्य का अर्थ है- 'प्रकट ज्ञान ब्रह्म है।' वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य है। उस महातेजस्वी देव का ध्यान करके ही हम 'मोक्ष' को प्राप्त कर सकते हैं। वह परमात्मा सभी प्राणियों में जीव-रूप में विद्यमान है। वह सर्वत्र अखण्ड विग्रह-रूप है। वह हमारे चित और अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने वाला है। जिसके द्वारा प्राणी देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ है। वही 'ब्रह्म' है।
(2) ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि
इस महावाक्य का अर्थ है- 'मैं ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अस्मि' शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह 'अहं ब्रह्मास्मि' कह उठता है।
(3) ॐ तत्त्वमसि
इस महावाक्य का अर्थ है-'वह ब्रह्म तुम्हीं हो।' सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अद्वितीय 'ब्रह्म' ही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी ब्रह्म को 'तत्त्वमसि' कहा गया है। वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है।
(4) ॐ अयमात्मा ब्रह्म
इस महावाक्य का अर्थ है- 'यह आत्मा ब्रह्म है।' उस स्वप्रकाशित परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को 'अयं' पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली अप्रत्यक्ष शक्ति ही 'आत्मा' है। वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है। सम्पूर्ण चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म है। वही आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं प्रकाशित 'आत्मतत्त्व' है।
अन्त में भगवान शिव शुकदेव से कहते हैं-'हे शुकदेव! इस सच्चिदानन्द- स्वरूप 'ब्रह्म' को, जो तप और ध्यान द्वारा प्राप्त करता है, वह जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है।'
भगवान शिव के उपदेश को सुनकर मुनि शुकदेव सम्पूर्ण जगत के स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर विरक्त हो गये। उन्होंने भगवान को प्रणाम किया और सम्पूर्ण प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की ओर चले गये।

भगवान शिव के दर्शन

एक बार भगवान नारायण वैकुण्ठलोक में सोये हुए थे। उन्होंने स्वप्न में देखा कि करोड़ों चन्द्रमाओं की कांतिवाले, त्रिशूल-डमरू-धारी, स्वर्णाभरण-भूषित, सुरेन्द्र-वन्दित, सिद्धिसेवित त्रिलोचन भगवान शिव प्रेम और आनन्दातिरेक से उन्मत्त होकर उनके सामने नृत्य कर रहे हैं। उन्हें देखकर भगवान विष्णु हर्ष से गद्गद् हो उठे और अचानक उठकर बैठ गये, कुछ देर तक ध्यानस्थ बैठे रहे। उन्हें इस प्रकार बैठे देखकर श्रीलक्ष्मी जी पूछने लगीं, ``भगवन! आपके इस प्रकार अचानक निद्रा से उठकर बैठने का क्या कारण है?'' भगवान ने कुछ देर तक उनके इस प्रशन का कोई उत्तर नहीं दिया और आनंद में निमग्न हुए चुपचाप बैठे रहे, कुछ देर बाद हर्षित होते हुए बोले, ``देवि, मैंने अभी स्वप्न में भगवान श्रीमहेश्वर का दर्शन किया है। उनकी छवि ऐसी अपूर्व आनंदमय एवं मनोहर थी कि देखते ही बनती थी। मालूम होता है, शंकर ने मुझे स्मरण किया है। अहोभाग्य, चलो, कैलाश में चलकर हम लोग महादेव के दर्शन करें।''
ऐसा विचार कर दोनों कैलाश की ओर चल दिये। भगवान शिव के दर्शन के लिए कैलाश मार्ग पर आधी दूर गये होंगे कि देखते हैं भगवान शंकर स्वयं गिरिजा के साथ उनकी ओर चले आ रहे हैं। अब भगवान के आनंद का तो ठिकाना ही नहीं रहा। मानों घर बैठे निधि मिल गयी। पास आते ही दोनों परस्पर बड़े प्रेम से मिले। ऐसा लगा, मानों प्रेम और आनंद का समुद्र उमड़ पड़ा। एक-दूसरे को देखकर दोनों के नेत्रों से आनन्दाश्रु बहने लगे और शरीर पुलकायमान हो गया। दोनों ही एक-दूसरे से लिपटे हुए कुछ देर मूकवत् खड़े रहे। प्रशनोत्तर होने पर मालूम हुआ कि शंकर जी को भी रात्रि में इसी प्रकार का स्वप्न हुआ कि मानों विष्णु भगवान को वे उसी रूप में देख रहे हैं, जिस रूप में अब उनके सामने खड़े थे।
दोनों के स्वप्न के वृत्तान्त से अवगत होने के बाद दोनों एक-दूसरे को अपने निवास ले जाने का आग्रह करने लगे। नारायण ने कहा कि वैकुण्ठ चलो और भोलेनाथ कहने लगे कि कैलाश की ओर प्रस्थान किया जाये। दोनों के आग्रह में इतना अलौकिक प्रेम था कि यह निर्णय करना कठिन हो गया कि कहां चला जाय? इतने में ही क्या देखते हैं कि वीणा बजाते, हरिगुण गाते नारद जी कहीं से आ निकले। बस, फिर क्या था? लगे दोनों उनसे निर्णय कराने कि कहां चला जाय? बेचारे नारदजी तो स्वयं परेशान थे, उस अलौकिक-मिलन को देखकर। वे तो स्वयं अपनी सुध-बुध भूल गये और लगे मस्त होकर दोनों का गुणगान करने। अब निर्णय कौन करे? अंत में यह तय हुआ कि भगवती उमा जो कह दें, वही ठीक है। भगवती उमा पहले तो कुछ देर चुप रहीं। अंत में वे दोनों की ओर मुख करते हुए बोलीं, ``हे नाथ, हे नारायण, आप लोगों के निश्चल, अनन्य एवं अलौकिक प्रेम को देखकर तो यही समझ में आता है कि आपके निवास अलग-अलग नहीं हैं, जो कैलाश है, वही वैकुण्ठ है और जो वैकुण्ठ है, वही कैलाश है, केवल नाम में ही भेद है। यहीं नहीं, मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी आत्मा भी एक ही है, केवल शरीर देखने में दो हैं। और तो और, मुझे तो स्पष्ट लग रहा है कि आपकी भार्याएँ भी एक ही हैं। जो मैं हूं, वही लक्ष्मी हैं और जो लक्ष्मी हैं, वही मैं हूँ। केवल इतना ही नहीं, मेरी तो अब यह दृढ़ धारणा हो गयी है कि आप लोगों में से एक के प्रति जो द्वेष करता है, वह मानों दूसरे के प्रति ही करता है। एक की जो पूजा करता है, वह मानों दूसरे की भी पूजा करता है। मैं तो तय समझती हूं कि आप दोनों में जो भेद मानता है, उसका चिरकाल तक घोर पतन होता है। मैं देखती हूं कि आप मुझे इस प्रसंग में अपना मध्यस्थ बनाकर मानो मेरी प्रवंचना कर रहे हैं, मुझे असमंजस में डाल रहे हैं, मुझे भुला रहे हैं। अब मेरी यह प्रार्थना है कि आप लोग दोनों ही अपने-अपने लोक को पधारिये। श्रीविष्णु यह समझें कि हम शिव रूप में वैकुण्ठ जा रहे हैं और महेश्वर यह मानें कि हम विष्णु रूप में कैलाश-गमन कर रहे हैं।
इस उत्तर को सुनकर दोनों परम प्रसन्न हुए और भगवती उमा की प्रशंसा करते हुए, दोनों ने एक-दूसरे को प्रणाम किया और अत्यंत हर्षित होकर अपने-अपने लोक को प्रस्थान किया। लौटकर जब श्रीविष्णु वैकुण्ठ पहुंचे तो श्रीलक्ष्मी जी ने उनसे प्रशन किया, ``हे प्रभु, आपको सबसे अधिक प्रिय कौन है?'' भगवन बोले, ``प्रिये, मेरे प्रियतम केवल श्रीशंकर हैं। देहधारियों को अपने देह की भांति वे मुझे अकारण ही प्रिय हैं। एक बार मैं और श्रीशंकर दोनों पृथ्वी पर घूमने निकले। मैं अपने प्रियतम की खोज में इस आशय से निकला कि मेरी ही तरह जो अपने प्रियतम की खोज में देश-देशान्तर में भटक रहा होगा, वही मुझे अकारण प्रिय होगा। थोड़ी देर के बाद मेरी श्री शंकर जी से भेंट हो गयी। वास्तव में मैं ही जनार्दन हूं और मैं ही महादेव हूं। अलग-अलग दो घड़ों में रखे हुए जल की भांति मुझमें और उनमें कोई अंतर नहीं है। शंकरजी के अतिरिक्त शिव की चर्चा करने वाला शिवभक्त भी मुझे अत्यंत प्रिय है। इसके विपरीत जो शिव की पूजा नहीं करते, वे मुझे कदापि प्रिय नहीं हो सकते।''
इस तरह जो शिव की पूजा करता है वह वैकुंठवासी विष्णु को भी स्वीकार है और जो श्री विष्णु की वंदना करता है, वह त्रिपुरारी को भी मना लेता है।
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THIS IS my MOST FAVOURITE MANTRA FROM VEdas
स होवाच
न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति, न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति, न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति, न वा अरे वित्तस्य कामाय वित्तं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति, न वा अरे ब्रह्मणः कामाय ब्रह्म प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय ब्रह्म प्रियं भवति, न वा अरे क्षत्रस्य कामाय क्षत्रं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय क्षत्रं प्रियं भवति, न वा अरे लोकानां कामाय लोकाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय लोकाः प्रिया भवन्ति, न वा अरे देवानां कामाय देवाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय देवाः प्रिया भवन्ति, न वा अरे भूतानां कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्त्यात्मनस्तु कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्ति, न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति, आत्मा वा अरे द्रष्टवः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदग्ं सर्वं विदितम्॥५
He said:
It is not for the sake of the husband, my dear, that he is loved, but for one s own sake (For the sake of one s own self.) that he is loved.
It is not for the sake of the wife, my dear, that she is loved, but for one s own sake that she is loved.
It is not for the sake of the sons, my dear, that they are loved,
but for one s own sake that they are loved.
It is not for the sake of wealth, my dear, that it is loved, but
for one s own sake that it is loved.
It is not for the sake of the Brahmana, my dear, that he is loved, but for one s own sake that he is loved.
It is not for the sake of the Ksatriya, my dear, that he is loved,
but for one s own sake that he is loved.
It is not for the sake of worlds, my dear, that they are loved, but
for one s own sake that they are loved.
It is not for the sake of the gods, my dear, that they are loved, but for one s own sake that they are loved.
It is not for the sake of beings, my dear, that they are loved, but for one s own sake that they are loved.
It is not for the sake of all, my dear, that all is loved, but
for one s own sake that it is loved.
The Self, my dear Maitreyi, should be realised --- should be heard of, reflected on and meditated upon.
By the realisation of the Self, my dear, through hearing, reflection and meditation,
all this is known.
In short koi maata pita putra patni etc kisi ke sukh ke lie use pyaar nahi karti sab apne sukh ke lie pyaar karte hai brahmaand ke jitne jeev hai SAB SWARTHI HAIII....
Om Namah Shivay.
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विद्यापति का शिव प्रेम और उगना की लोककथा

महाकवि विद्यापति ठाकुर
महाकवि विद्यापति भगवान शिव के अनन्य भक्त थे। उन्होंने महेशवानी और नचारी के नाम से शिवभक्ति से सम्बन्धित अनेक गीतों की रचना की। महेशबानी में जहाँ शिव के परिवार के सदस्यों का वर्णन, देवाधिदेव महादेव भगवान शंकर का फक्कर स्वरुप, दुनिया के लिए दानी, अपने लिए भिखारी का वेष, भूत-प्रेत, नाग, बसहा बैल, मूसे और सयुर सभी का एक जगह समन्वय, चिता का भष्म शरीर में लपेटना, भागं-धथुर पीना आदि शामिल है तो दूसरी ओर नचारी में एक भक्त भगवान शिव के समक्ष अपनी विवसता या दु:ख नाचकर या लाचार होकर सुनाता है। नीचे एक महेशवानी को दिया जा रहा है:
अगे माई जोगिया मोर जगत सुखदायक।
दुख ककरो नहिं देल।।
दुख ककरो नहिं देल महादेव, दुख ककरो नहिं देल।
अहि जोगिया के भाँग भुलैलक।
धथुर खुआइ धन लेल।।
आगे माई कार्तिक गणपति दुइ छनि बालक।
जगभर के नहिं जान।।
तिनकहँ अमरन किछुओं न थिकइन।
रत्ती एक सोन नहिं कान।।
अगे माई, सोन रुप अनका सुत अमरन।।
अधन रुद्रक माल।
अप्पन पुत लेल किछुओ ने जुड़ैलन।।
अनका लेल जंजाल।
अगे माई छन में हेरथि कोटि धन बकसथि।।
ताहि दबा नहिं थोर।
भनहि बिद्यापति सुनु ए मनाईनि
थिकाह दिगम्बर मोर।।
इस गीत में कवि एक महिला के माध्यम से कुछ इस प्रकार की बातें भगवान शंकर के सम्बन्ध में कहबाना चाहते हैं:
"मेरी सहेली, चाची एवं माँ, मैं क्या बताऊँ। मेरा अनमोल जोगी अर्थात् भगवान शंकर समस्त संसार के प्राणियों को सुख देने वाला है। यह किसी को दुख देना जानता ही नहीं है। भगवान शिव ने किसी को भी दुख नहीं दिया है। इस मस्त जोगी को भांग एवं धतूरा पिलाकर लोगों ने बदले में अपार धन का वरदान लिया है। जग में कौन भला नहीं जानता कि कार्तिक एवं गणेश इनके दे गुणी पुत्र हैं। इन्हें कोई आभूषण नहीं है और कानों में रत्ती-भर भी सोना नहीं है। दूसरों को सोना-चाँदी का आभरण ये देते हैं और अपने लिए केवल रुद्राश की माला भर है। अपने पुत्र के लिए नाना तरह के झंझट अपने सिर ले लेते हैं। फिर भी क्या कहूँ-ए सखी, यदि एक क्षण के लिए कृपालु हो जायँ तो करोड़ों का धन दे दे, किसी को देने में ये कभी नहीं करते। महाकवि विद्यापति कहते हैं कि ऐ मान्ये! सुनो, ये दिगम्बर शिव एकदम भोले हैं।"
नचारी में एक भक्त भगवान शंकर से अपनी लाचारी का बयान करता है। मिथिला विश्वविद्यालय के संगीत एवं नाटक विभाग के भूतपूर्व विभागध्यक्ष प्रो. चण्डेश्वर झा बतात हैं, "नचारी गीत संभवत: लाचारी का अपभ्रंश है। परन्तु लोग अपनी दुख का बयान नाचकर एवं भाव-विभोर होकर करतै हैं, अत: नचारी शब्द को अपभ्रंश भी आंख मूंदकर मान लेना उचित नहीं है।" जो भी नचारी में भक्त सचमुच में लाचार लगता है। एक नचारी के कुछ अंश नीचे दिया जा रहा है:
कखन हरब दुख मोर,
हे भोलानाथ कखन हरब दुख मोर,
दुखहिं जनम भेल, दुखहिं गमाओल,
सुख कखनहुँ नहिं भेल
हे भोलानाथ कखन हरब दुख मोर?
इसका अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है। भक्त अपन औड़ररानी भोलानाथ अर्थात् शिव से कहता है, "हे भोलानाथ, आप मेरे दुख का निवारण कब करेंगे? मेरा जन्म दुख में हुआ और तभी से आजतक केवल दुख ही झेल रहा हूँ। सुख मेरे लिए असंभव बन गया है। और ते और मैं ते स्वप्न में भी सुख नही देखता। है भोलानाथ, आप मेरे दुख का निवारण कब करेंगे?"
मिथिला के लोकमानस में यह बात समस्त विख्यात है कि विद्यापति जैसा शिवभक्त न इतिहास में हुआ न ही भविष्य में हो सकता है। लोकमान्यता के अनुसार महाकवि की रचनाधर्मिता एवं अपने प्रति भक्ति का असीम स्नेह को देखकर भगवान शंकर द्रवित हो गए। उन्हें ऐसा लगा कि अपने इस आश्चर्यजनक भक्त एवं कवि विद्यापति के बिना वे रह ही नहीं सकते।
फिर क्या था। एक दिन भगवान आसुतोष शिव ने अपना रुप बदल लिया और गाँव के एक गंवार एवं अनपढ़ रुप धारण कर महाकवि के समक्ष उपस्थित हो गए। उस अनपढ़ ग्रामीण को देखकर महाकवि ने पूछा: "तुम्हारा नाम क्या है? तुम मेरे पास क्यों आए हो।" इस पर उसने जवाब दिया, "मेरा नाम उगना है। मैं सूदूर गाँव का रहने वाला एक गरीब और बेरोजगार तथा अशिक्षित युवक हूँ। काम की तलाश में मैं आपके पास आया हूँ।"
इस पर महाकवि ने जवाब दिया,"मैं तो एक साधारण कवि हूँ। मेरे पास किसी भी तरह का रोजगार तुम्हारे लायक नहीं है।" अब उगना बोला, "हे कवि, आप मुझे अपने पास चाकर बना कर क्यों नहीं रख लेते?"
महाकवि कहने लगे,"भई, मैं ठहरा सामान्य आदमी। न तो मुझे सेवक की जरुरत है, और न ही मैं आर्थिक रुप से इतना सबल हूँ कि सेवक का लालन-पालन कर सकूँ। इसीलिए तुम यहाँ से चले जाओ।" लेकिन, उगना जाने के लिए तैयार नहीं था। महाकवि के कथ्य को समाप्त होते ही चंचल भाव से भयमुक्त होकर एकाएक बोल उठा:
"ठाकुर जी, मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए। सिर्फ दो वक्त का रुखा-सूखा भोजन खाने के लिए दे दीजिएगा।"
महाकवि चुप थे परन्तु घर के भीतर बैठी उनकी पत्नी सुशीला वार्तालाप को ध्यानपूर्वक सुन रही थी। जब उन्होने उगना को यह कहते सुना कि वह केवल भोजन लेकर महाकवि की चाकरी करने को इच्छुक है तो एकाएक बाहर आयी। महाकवि के मौन को भंग करते हुए बोली:
"आप भी किसी बात पर अकारण ही अड़ जाते हैं। बेचारा अपने आपको अनाथ बतला रहा है। आप इसको रख लीजिए। खाना ही तो खाएगा बेचारा। फिर इतने बड़े घर में बाहर-भीतर के लिए एक विश्वसनीय आदमी की जरुरत तो है ही। आप कभी-कभार बाहर अकेले जाते हैं, उस समय मैं केवल आपकी चिन्ता में मग्न रहती हूँ। यह देखने से सहज और ईमानदार लगता है। मैं तो आपसे यही कहुँगी कि आप इसे रख लीजिए। हम लोगों के साथ उगना परिवार के सदस्यों की भांति रह लेगा।"
महाकवि अपनी पत्नी सुशीला की बात पर गंभीरता से मौन होकर सोचने लगे। उधर उगना मन ही मन प्रसन्न हो रहा थी। होता भी क्यों नहीं, सुशीला ने तो उसके मन की बात महाकवि से समक्ष रख दिया था। कुछ देर सोचने के बाद विद्यापति उगना को सम्बोधित करते हूए बोले:
"देखो उगना, मैं तुम्हें अपने यहाँ रख रहा हूँ। तुम थोड़ी-बहुत मेरी सेवा कर दिया करना। तुम यहाँ भयमुक्त होकर मेरे परिवार के सदस्य की भांति रहो। कभी भी अपने-आपको चाकर नहीं समझना। हाँ मेरी धर्मपत्नी सुशीला तुम्हें जो भी कार्य दे उसे सही समय पर करना। मैं यो तो तुम्हें भोजन-वस्र दूँगा, परन्तु यह भी प्रयास कर्रूँगा कि तुम्हारे अंदर सही संस्कार पनपे। जाओ अब हमारे घर में ईमानदारीपूर्वक कार्य करो। अगर संभव हो पाया तो मैं तुम्हें कुछ राशि प्रतिमाह मैहनताना के तौर पर भी दे दिया कर्रूँगा। अब इस बीच मेरी पत्नी तुम्हारे लिए भोजन परोस देंगी।"
इतना कहकर महाकवि ने अपने कथ्य को विराम दिया। उगना की प्रसन्नता का वर्णन तो शब्द में किया ही नहीं जा सकता। प्रसन्न मन से वह महाकवि एवं सुशीला की ओर कृतज्ञ नैनों से देखते हुए महाकवि की आज्ञा का पालन करने के लिए बगल के तालाब में स्नान-ध्यान के लिए चल दिया। उसकी आँखे मानो बार-बार यह कहना चाहती थी कि श्रम हो महाकवि कोकिल, रससिद्ध, अभिनव जयदेव विद्यापति। आपने तो मुझे अपने घर में स्थान देकर कृत-कृत कर दिया।"
अब उगना महाकवि के यहाँ एक विनम्र और स्वामीभक्त चाकर के रुप में रहने लगा। प्रयास यह करता कि किसी को उसके कार्य में नुक्स ढूँढ़ने का अवसर ही न मिले। महाकवि विद्यापति ठाकुर और उनकी पत्नी सुशीला दोनों ही उगना के कार्य, ईमानदारी और स्वामीभक्ति से बेहद प्रसन्न थे। विद्यापति को तो उगना पर इतना विश्वास हो गया था कि वे जहाँ भी जाते अपने साथ उगना को भी ले जाते। जीवन अब बहुत ही आनन्द से चल रहा था।
एक बार की बात है। एक दिन महाकवि अपने गाँव विसपी से राजदरबार जा रहे थे । सेवक उगना भी साथ था। जेठ महीना था। गरमी अपने चरमोत्कर्ष पर थी। लोग परेशान हो रहे थे। दोनों भरी दुपहरिया में पैदल चले जा रहे थे, आगे-आगे महाकवि विद्यापति और पीछे-पीछे उगना। चलते-चलते वे एक ऐसे स्थना में पहुँचे जो बिल्कुल विरान लग रहा था। चारों तरफ न वृक्ष, न पानी का स्रोत, केवल खेत-ही-खेत। वह भी फसलविहिन केवल श्रोता हुआ और बड़ेबड़े मिट्टी के टुकड़ों से उबर-खाबर खेत। एकाएक महाकवि को प्यास लगी। परन्तु पानी नहीं था। देखते हैं तो चायें और पानी का कोई स्रोत-कुँआ, तालाब, नदी आदि तो है ही नहीं। एक आम के पेड़ के नीचे रुककर महाकवि ने उगना को सम्बोधित करते हुए कहा:
"उगना, प्रचण्ड गर्मी है।"
"हाँ ठाकुरजी।" उगना ने उनके कथ्य का समर्थन किया। महाकवि फिर बोले:
"उगना, मैं पानी पीना चाहता हूँ। यह लोटा लो और कहीं से पानी की व्यवस्था करो।"
उगना लाचार भाव से इधर-उधर देखते हुए बोला- "ठाकुरजी, परन्तु जल का स्रोत कहीं भी न नहीं आता। आप ही बताइये मैं क्या कर्रूँ। चलिये कुथ और आगे बढ़कर किसी गाँव के आस-पास चलते हैं। वहाँ पानी मिल सकता है।"
परन्तु विद्यापति का गला प्यास से सुखने लगा। बोल पड़े, "उगना, कहीं से भी पानी की व्यवस्था करो, वरना मैं प्यास से मर जाऊँगा।"
इतना कहकर कवि बेहोश होकर वहीं सो गये। उगना तो मामूली चाकर था नहीं। वह तो साक्षात् देवाधिदेव महादेव था। कोई उपाय न पाकर कुछ दूर गया और अपने जटा से एक लोटा गंगा जल लेकर महाकवि के पास आ गया। फिर विद्यापति को उठाते हुए बोला-
"ठाकुरजी, ठाकुरजी, उठिये आपके लिए किसी तरह मैंने एक लोटा जल का प्रबन्ध किया है। उठिये जल पीकर अपनी प्यास बुझाईये।"
उगना के इस कथ्य से जैसे महाकवि को जीवनदान मिल गया। वे फुर्ती के साथ उठे और लोटा के जल को एक ही साँस में पी गए। गटागट-गटागट। जल पीते ही उन्हें अनुभव हुआ कि यह जल सामान्य न होकर विशिष्ट था। जल-जल न होकर गंगाजल था। फिर क्या था, महाकवि ने उगना से पूछा-
"उगना, सच-सच बताओ तुम यह जल कहाँ से लाए। उगना, तुम मामूली चाकर नहीं हो। यह जल साधारण जल नहीं बल्कि गंगाजल है।"
उगना बात को टालते हुए बोला-
"नहीं ठाकुरजी, मैं तो थोड़ी दूर जाकर एक कुँए से आपके लिये यह जल बड़ी सुश्किल से लाया हूँ। आप बेवजह इसे गंगाजल कह रहे हैं। मैं भला इस विरान जगह में गंगाजल कहाँ से ला सकता हूँ। आप शंका न करें। जल्दी उठिये अब हम लोग आगे का सफर प्रारंभ करते हैं।"
हालांकि उगना थोड़ा घबराया लग रहा था। लेकिन महाकवि विद्यापति थे गजब के पारखी। उन्होंने फिर अपना प्रश्न दुहराया:
"उगना, मुझे पूरा विश्वास है, कि तुम मामूली चाकर नहीं हो। तुम मुझसे कुछ रहस्य छिपाना चाहते हो। सच-सच बताओ नहीं तो मैं यहाँ से नहीं उठने वाला। तुम कौन हो, और यह जल जो तुम मेरे पीने के लिए लाए हो उसका रहस्य क्या है। उगना, तुम अपना रहस्य मुझे बता दो।"
उगना फिर बोला-
"ठाकुर जी, आप बोवजह मेरे जैसे जाहिल चाकर में रहस्य देखने का प्रयास कर रहे हैं। आपकी प्यास बुझाने के लिए मैं एक कुँए से जल लाकर आपको दिया हूँ। इसके अलावा मैं कुछ नहीं जानता। अगर जल लाना रहस्य है तो मेरा रहस्य यही है।"
विद्यापति भला उगना के झांसा में कब आने वाले थे फिर बोले:
"उगना, अब देर मत करो। चुपचाप सच का बखान कर दो। मैंने जिस जल का पान अपने लोटा से किया है वह गंगाजल के अतिरिक्त कुछ नहीं हो सकता। अब या तो तुम सच-सच बता दो अन्यथा मैं यहाँ से आगे नहीं बढूँगा।"
अब उगना असंसजस में आ गया। विद्यापति फिर बोल उठे-
"उगना कहीं तुम शिव तो नहीं हो।" इस पर उगना मुस्करा दिया। विद्यापति को अब पूर्ण विश्वास हो गया कि उगना कोई और नहीं बल्कि भगवान महादेव है, और उसने अपने जटा से गंगाजल निकालकर उन्हें पीने के लिए दिया है। फिर क्या था वे उगना के पैर पर गिर कर त्राहिमाम् प्रभो-त्राहिमाम् कहने लगे।
अब उगना शिव के असली रुप में उपस्थित होकर कवि को धन्य कर दिया। महाकवि ने विस्फोटित नेत्रों से महादेव का दर्शन किया। फिर भगवान महादेव महाकवि को ईंगित करते हुए कहना प्रारंभ किया:
"देखो विद्यापति, मैं तुम्हारी भक्ति और कवित्त शैली से इतना प्रभावित हूँ कि हमेशा तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ। इसीलिए मैं उगना नामक जटिल चाकर का वेश बदलकर तुम्हारे पास गया। मैं अब भी तुम्हारे पास रहना चाहता हूँ, परन्तु एक शर्त है। जिस दिन तुमने किसी से यह कह दिया कि मैं उगना न होकर महादेव हूँ, मैं उसी पल अन्तध्र्यान हो जाऊँगा। इसे तुम अच्छी तरह गांठ बांध लो।"
महादेव के दर्शन पाकर महाकवि विद्यापति गदगद हो गए। उन्हें लगा कि मानो उनका जीवन धन्य हो गया। जो चीज लोग दस जन्मों में नहीं कर पाता, उसे कवि से सहज ही प्राप्त कर लिया। महाकवि ने भगवान शंकर से कहा- हे नाथ, मुझे संसार की किसी भी वस्तु का लोभ नहीं है। आप ही हमारे इष्ट देव, आराध्य देव, आदर्श-देव और पूज्यदेव हैं। आपका सानिध्य मिल गया। अब क्या चाहिए। परन्तु, प्रभो! आपका मेरे जैसे तुच्छ भक्त के यहाँ चाकर के रुप में रहना क्या ठीक है? क्या आप मेरे मित्र के रुप में या किसी अन्य वेश में नहीं रह सकते?"
भगवान शंकर ने इस पर जवाब दिया:
"नहीं पुत्र! मैं केवल उगना बनकर तुम्हारे साथ रहूँगा। तुमसे केवल एक निवेदन है कि तुम इस रहस्य को अपने तक रखोगे। और तो और किसी भी परिस्थिति में अपनी पत्नी सुशीला से भी इस रहस्य को उजागर नहीं करोगे।"
इस पर महाकवि ने गर्दन हिलाकर अपनी स्वीकृति दे दी। भगवान महादेव पुन: उगना के वेश में आ गए। हालांकि इस घटना के बाद महाकवि प्रयास करते कि उगना से जितना कम कार्य करवायाजा सके उतना अच्छा है। लेकिन उनकी पत्नी तो इस सच से बिल्कुल अन्जान थी।
एक दिन सुशीला ने उगना को कोई कार्य करने के लिए कहा। उगना कार्य को अच्छी तरह समझ नहीं पाया। करना कुछ और कर कुछ और दिया। इस पर सुशीला सुस्से से लाल हो गई। अपना क्रोध नहीं बर्दाश्त कर पाई। आवेग में आकर जमीन में पड़े झाड़ू उठाकर तरातर उगना पर बेतहाशा प्रहार करने लगी। उगना झाड़ू खाता रहा। इसी बीच महाकवि वहाँ पहुँच गए। उन्होंने सुशीला को मना किया। परन्तु सुशीला ने मारना बन्द नहीं किया। अब कवि के शव का बांध टूट गया। एकाएक भावातिरेक में चिल्लाते हुए बोले-
"अरी, ना समझ नारी! तुम्हे पता है तुम क्या कर रही हो? उगना सामान्य चाकर नहीं बल्कि भगवान शंकर है। तुम भगवान शंकर को झाड़ू मार रही हो।"
कवि का इतना कहना था कि उगना अन्तध्र्यान हो गया। अब विद्यापति को अपनी गलती का अहसास हुआ। लेकिन तब तक उगना विलीन हो चुका था। कवि घोर पश्चाताप में खो गये। खाना-पीना सभी छोड़कर उगना, उगना, उगना रट लगाने लगे। बावरे की तरह जगह-जगह उगना को खोजने लगे। उस समय भी महाकवि ने एक अविस्मरनीय गीत का उगना के लिए निर्माण किया। गीत नीचे दिया जा रहा है:
उगना रे मोर कतय गेलाह।
कतए गेलाह शिब किदहुँ भेलाह।।
भांग नहिं बटुआ रुसि बैसलाह।
जो हरि आनि देल विहँसि उठलाह।।
जे मोरा कहता उगना उदेस।
नन्दन वन में झटल महेस।
गौरि मोन हरखित मेटल कलेस।।
विद्यापति भन उगनासे काज।
नहि हितकर मोरा त्रिभुवन राज।।
महाकवि विद्यापति अधीर हो उठे। उनकी अधिरता ही पद का रुप ग्रहण करने लगी- अरे, मेरा उगना। तुम कहाँ चले गए? मेरे शिव, तुम कहाँ खो गए! तुम्हें क्या हो गया? आह! अगर तुम्हारी झोली में भागं नहीं रहता था तुम कैसे रुठ जाते थे! और जैसे ही मैं खोज-खाज कर ला देता था, तो तुम प्रसनान हो जाते थे। आज तुम एकाएक कहाँ चले गए? जो के ई भी मुझे मेरा उगना के सम्बन्ध में जानकारी देगा, मैं वास्तव में उसे उपहार स्वरुप कंगना दूँगा। अरे! भगवान महेश तो मिल गए! भाई, उसी नन्दन कानन में। अरे देखो, गौरी भी प्रसन्न हो उठी। अब मेरा भी क्लेश खत्म हो गया। मुझे तो केवल उगना से कार्य है। तीनों-लोक का यह राज-पाट मेरे लिए हितकारी नहीं है

परमात्मा का इशारा

लौरेंस नाम का एक अंग्रेज़ था जो जिंदगीभर अरब में रहा। रेगिस्तान की जिंदगी उसे बहुत पसंद थी। बहुत से अरब उसके अच्छे दोस्त थे। एक बार पेरिस में प्रदर्शनी लगी तो करीब दर्जन भर अरब मित्रों को, जो कभी अरब से बाहर नहीं गए थे, वो अपने साथ पेरिस ले गया प्रदर्शनी दिखाने के लिए। उसने उन सबको एक शानदार और प्रतिष्ठित होटल में ठहराया। लेकिन लौरेंस एक बात से अचंभित था कि वो जो अरेबीयन थे, वो ना प्रदर्शनी में रस ले रहे थे और ना ही किसी और चीज़ में। जहां ले जाओ, बस वो कहें कि जल्दी करो, होटल वापस चलें। और जैसे ही वो सब होटल पहुँचें, सीधे बाथरूम में घुस जाएँ। लौरेंस ने सोचा मामला क्या है? जब उसने परीक्षण किया तो पाया कि वो सब अपने अपने बाथरूम में टोंटी खोल कर या तो बहते हुए पानी के फव्वारे को देखें या उसके नीचे खड़े हो जाएँ। ये करने में उन अरब को बड़ा आनंद आता था। बड़ी भव्य प्रदर्शनी थी लेकिन उनका रस तो नल की टोंटी में था क्योंकि रेगिस्तान के लोग थे, पानी का अभाव देखा था। और इस तरीके से पानी तो कभी देखा ही न था उन्होने। फिर जिस दिन वापसी थी तो कारें आ गयी रेलवे स्टेशन ले जाने के लिए। सारा सामान कारों में लद चुका था, लेकिन देखा तो सब अरेबीयन फिर से नदारद। देर हो रही थी, लौरेंस भागा बुलाने के लिए तो देखा कि वो लोग अपने अपने बाथरूम की टोंटीयां खोल रहे थे साथ ले जाने के लिए। लौरेंस ने समझाया अरे नासमझो टोंटी तो तुम ले जाओगे लेकिन पानी कहाँ से लाओगे। भीतर पानी का स्त्रोत भी तो होना चाहिए। कमबख्तों पानी टोंटी से नहीं आ रहा है, टोंटी से तो सिर्फ निकल रहा है, आ तो भीतर स्त्रोत से रहा है। दोस्तों लौरेंस की इस कहानी में एक महत्वपूर्ण भेद छुपा है कि हम सब भी टोंटीयों की तरह है। हम जो भी कृत्य करते हैं, उनके लिए हम टोंटी जैसे है। हम जब किसी को प्रेम करते हैं तो उसको हम गले तो लगाते हैं मगर प्रेम का जल नहीं बहता हमारे अंदर से। क्योंकि भीतर प्रेम का स्त्रोत activate नहीं है। भीतर प्रेम का दरिया ना हो तो हम गले तो लगा लेंगे (टोंटी) लेकिन होगा क्या? शरीर से शरीर मिलेगा, चमड़ी चमड़ी को छूएगी लेकिन प्रेम का कोई आदान प्रदान नहीं होगा, प्रेम का फव्वारा भिगो नहीं पाएगा। हम टोंटी तो खोल देंगे लेकिन प्रेमरूपी जल की एक भी बूंद ना टपकेगी, जो है ही नहीं (स्त्रोत) बाहर कैसे छलकेगा क्योंकि पहले होना (Being) है, फिर करना (Doing) है अर्थात अभिव्यक्ति होती है। किसी भी प्रकार के कृत्य मात्र या अभिनय मात्र से सिर्फ हम टोंटी ही हो सकते हैं, उस कृत्य की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। सच्ची अभिव्यक्ति तो तभी होगी जब हममें वो स्त्रोत होगा अर्थात हम परमात्मारूपी स्त्रोत से जुड़े होंगे और जब हम उस परम स्त्रोत से जुड़े होंगे तो हमारे प्रत्येक कृत्य में उसकी अभिव्यक्ति स्वयं ही होगी वरना हम खाली टोंटी ही रह जाएंगे। यही लगभग हम सबके जीवन कि व्यथा है। जो उस स्त्रोत से जुड़ जाता है, उसका हर इशारा परमात्मा का इशारा हो जाता है। फिर वह जो करता है, वो सब पूजा हो जाता है।

मासूम की समझ


सोनू ने चॉकलेट मांगी तो माँ फ्रीज़ से बड़ा चॉकलेट निकालकर ले आई और उसे तोड़कर एक छोटा सा हिस्साउसे दे दिया। सोनू उसे खाने के बाद उँगलियाँ चाट ही रहा था कि उसकी नज़र कामवाली के बेटे कालू परपड़ी। वह एकटक उसकी उँगलियों को देखे जा रहा था। सोनू की उँगलियों के साथ साथ कालू की ऑंखें भी हरकतें कर रही थी। सोनू ने माँ से उसे भी चॉकलेट का एक छोटा सा टुकड़ा देने को कहा तो माँ भड़क गई,"तुझे पता भी है कितने की चॉकलेट है ये.....पूरे डेढ़ सौ की।""पर माँ.....""
पर वर कुछ नहीं।
तुझे और चाहिए तो ये ले।"माँ उसे चॉकलेट देने लगी तो उसका एक टुकड़ा फर्श पर गिर गया। सोनू ने उसे झट से उठा लिया और खाने
के लिए हाथ मुंह के करीब लाया ही था कि माँ ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली, "ये क्या कर रहा है तू। नीचे गिरी चीज नहीं खाते।" माँ ने वह टुकड़ा उससे लेकर कालू को दे दिया। सोनू को अब जब भी कोई चीज कालू को देनी होती तो वह उसे फर्श पर गिरा देता। एक दिन पापा उसके लिए स्वेटर लेकर आये।
सोनू बहुत खुश था। वह जब स्वेटर पहन कर देख रहा था तो उसकी नज़र अचानक कालू पर पड़ी।
फटी कमीज से उसका बदन जैसे उसी की ओर ताक रहा था।
उसने हाथ में लिया स्वेटर नीचे गिरा दिया। पापा उसकी यह हरकत देख मुस्कुराने लगे और उसके पास आकर बोले, "मैं जानता था तुम कुछ ऐसा ही करोगे। इसीलिए मैं एक स्वेटर और लाया हूँ। लो, उसे दे दो।"

एक दूसरे का हाथ बंटाते हुए काम करने का जज्ब़ा अपने अंदर लाएं...

कहानी - किस्से आपने खूब पढ़े होंगे मगर जो बात इस लेख में पढ़ने जा रहे हैं वह अगर आपके मर्म को छू जाए तो अपने युवा साथियों और अपने बच्चों को अवश्य बताएं : -
पढ़ाई पूरी करने के बाद एक छात्र किसी बड़ी कंपनी में नौकरी पाने की चाह में इंटरव्यू देने के लिए पहुंचा....
छात्र ने बड़ी आसानी से पहला इंटरव्यू पास कर लिया...
अब फाइनल इंटरव्यू
कंपनी के डायरेक्टर को लेना था...
और डायरेक्टर को ही तय
करना था कि उस छात्र को नौकरी पर रखा जाए या नहीं...
डायरेक्टर ने छात्र का सीवी (curricular vitae) देखा और पाया कि पढ़ाई के साथ- साथ यह छात्र ईसी (extra curricular activities) में भी हमेशा अव्वल रहा...
डायरेक्टर- "क्या तुम्हें पढ़ाई के दौरान
कभी छात्रवृत्ति (scholarship) मिली...?"
छात्र- "जी नहीं..."
डायरेक्टर- "इसका मतलब स्कूल-कॉलेज की फीस तुम्हारे पिता अदा करते थे.."
छात्र- "जी हाँ , श्रीमान ।"
डायरेक्टर- "तुम्हारे पिताजी क्या काम करते है?"
छात्र- "जी वो लोगों के कपड़े धोते हैं..."
यह सुनकर कंपनी के डायरेक्टर ने कहा- "ज़रा अपने हाथ तो दिखाना..."
छात्र के हाथ रेशम की तरह मुलायम और नाज़ुक थे...
डायरेक्टर- "क्या तुमने कभी कपड़े धोने में अपने पिताजी की मदद की...?"
छात्र- "जी नहीं, मेरे पिता हमेशा यही चाहते थे
कि मैं पढ़ाई करूं और ज़्यादा से ज़्यादा किताबें
पढ़ूं...
हां , एक बात और, मेरे पिता बड़ी तेजी से कपड़े धोते हैं..."
डायरेक्टर- "क्या मैं तुम्हें एक काम कह सकता हूं...?"
छात्र- "जी, आदेश कीजिए..."
डायरेक्टर- "आज घर वापस जाने के बाद अपने पिताजी के हाथ धोना...
फिर कल सुबह मुझसे आकर मिलना..."
छात्र यह सुनकर प्रसन्न हो गया...
उसे लगा कि अब नौकरी मिलना तो पक्का है,
तभी तो डायरेक्टर ने कल फिर बुलाया है...
छात्र ने घर आकर खुशी-खुशी अपने पिता को ये सारी बातें बताईं और अपने हाथ दिखाने को कहा...
पिता को थोड़ी हैरानी हुई...
लेकिन फिर भी उसने बेटे
की इच्छा का मान करते हुए अपने दोनों हाथ उसके
हाथों में दे दिए...
छात्र ने पिता के हाथों को धीरे-धीरे धोना शुरू किया.
साथ ही उसकी आंखों से आंसू भी झर-झर बहने लगे...
पिता के हाथ रेगमाल (emery paper) की तरह सख्त और जगह-जगह से कटे हुए थे...
यहां तक कि जब भी वह कटे के निशानों पर पानी डालता, चुभन का अहसास
पिता के चेहरे पर साफ़ झलक जाता था...।
छात्र को ज़िंदगी में पहली बार एहसास हुआ कि ये
वही हाथ हैं जो रोज़ लोगों के कपड़े धो-धोकर उसके
लिए अच्छे खाने, कपड़ों और स्कूल की फीस का इंतज़ाम करते थे...
पिता के हाथ का हर छाला सबूत था उसके एकेडैमिक कैरियर की एक-एक
कामयाबी का...
पिता के हाथ धोने के बाद छात्र को पता ही नहीं चला कि उसने उस दिन के बचे हुए सारे कपड़े भी एक-एक कर धो डाले...
उसके पिता रोकते ही रह गए , लेकिन छात्र अपनी धुन में कपड़े धोता चला गया...
उस रात बाप- बेटे ने काफ़ी देर तक बातें कीं ...
अगली सुबह छात्र फिर नौकरी के लिए कंपनी के डायरेक्टर के ऑफिस में था...
डायरेक्टर का सामना करते हुए छात्र की आंखें गीली थीं...
डायरेक्टर- "हूं , तो फिर कैसा रहा कल घर पर ?
क्या तुम अपना अनुभव मेरे साथ शेयर करना पसंद करोगे....?"
छात्र- " जी हाँ , श्रीमान कल मैंने जिंदगी का एक वास्तविक अनुभव सीखा...
नंबर एक... मैंने सीखा कि सराहना क्या होती है...
मेरे पिता न होते तो मैं पढ़ाई में इतनी आगे नहीं आ सकता था...
नंबर दो... पिता की मदद करने से मुझे पता चला कि किसी काम को करना कितना सख्त और मुश्किल होता है...
नंबर तीन.. . मैंने रिश्तों की अहमियत पहली बार
इतनी शिद्दत के साथ महसूस की..."
डायरेक्टर- "यही सब है जो मैं अपने मैनेजर में देखना चाहता हूं...
मैं यह नौकरी केवल उसे देना चाहता हूं जो दूसरों की मदद की कद्र करे,
ऐसा व्यक्ति जो काम किए जाने के दौरान दूसरों की तकलीफ भी महसूस करे...
ऐसा शख्स जिसने
सिर्फ पैसे को ही जीवन का ध्येय न बना रखा हो...
मुबारक हो, तुम इस नौकरी के पूरे हक़दार हो..."
आप अपने बच्चों को बड़ा मकान दें, बढ़िया खाना दें,
बड़ा टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर सब कुछ दें...
लेकिन साथ ही अपने बच्चों को यह अनुभव भी हासिल करने दें कि उन्हें पता चले कि घास काटते हुए कैसा लगता है ?
उन्हें भी अपने हाथों से ये काम करने दें...
खाने के बाद कभी बर्तनों को धोने का अनुभव भी अपने साथ घर के सब बच्चों को मिलकर करने दें...
ऐसा इसलिए
नहीं कि आप मेड पर पैसा खर्च नहीं कर सकते,
बल्कि इसलिए कि आप अपने बच्चों से सही प्यार करते हैं...
आप उन्हें समझाते हैं कि पिता कितने भी अमीर
क्यों न हो, एक दिन उनके बाल सफेद होने ही हैं...
सबसे अहम हैं आप के बच्चे किसी काम को करने
की कोशिश की कद्र करना सीखें...
एक दूसरे का हाथ
बंटाते हुए काम करने का जज्ब़ा अपने अंदर
लाएं...
यही है सबसे बड़ी सीख..............

मगर किसी की तो बहन हो.."

बाजार से घर लौटते वक्त कुछ खाने का मन किया तो, वह रास्ते में खड़े ठेले वाले के पास भेलपूरी लेने के लिए रूक गयी।
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उसे अकेली खड़ी देख, पास ही बनी पान की दुकान पर खड़े कुछ मनचले भी वहाँ आ गये।
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घूरती आँखे लड़की को असहज कर रही थी, पर वह ठेले वाले को पहले पैसे दे चुकी थी, इसलिए मन कड़ा करके खड़ी रही। द्विअर्थी गानों के बोल के साथ साथ आँखो में लगी अदृश्य दूरबीन से सब लड़के उसकी शारीरीक सरंचना का निरिक्षण कर रहे थे।
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उकताकर वह कभी दुपट्टे को सही करती तो कभी ठेले वाले से और जल्दी करने को कहती। मनचलों की जुगलबंदी चल ही रही थी कि कबाब में हड्डी की तरह एक बाईक सवार युवक वँहा आकर रूका।
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"अरे पूनम...तू यहाँ क्या कर रही है ? हम्म..! अपने भाई से छुपकर पेट पूजा हो रही है।" बाईक सवार युवक ने लड़की से कहा।
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संभावित खतरे को भाँपकर मनचले तुरंत इधर उधर खिसक लिये।
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समस्या से मिले अनपेक्षित समाधान से लड़की ने राहत की साँस ली फिर असमंजस भरे भाव के साथ युवक से कहा " माफ किजिए, मेरा नाम एकता है। आपको शायद गलतफहमी हुई है, मैं आपकी बहन नही हूँ।"
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"मैं जानता हूँ...! मगर किसी की तो बहन हो.." कहकर युवक ने मुस्कुराते हुए हेलमेट पहना ओर अपने रास्ते चल दिया।