लौरेंस नाम का एक अंग्रेज़ था जो जिंदगीभर अरब में रहा। रेगिस्तान की जिंदगी उसे बहुत पसंद थी। बहुत से अरब उसके अच्छे दोस्त थे। एक बार पेरिस में प्रदर्शनी लगी तो करीब दर्जन भर अरब मित्रों को, जो कभी अरब से बाहर नहीं गए थे, वो अपने साथ पेरिस ले गया प्रदर्शनी दिखाने के लिए। उसने उन सबको एक शानदार और प्रतिष्ठित होटल में ठहराया। लेकिन लौरेंस एक बात से अचंभित था कि वो जो अरेबीयन थे, वो ना प्रदर्शनी में रस ले रहे थे और ना ही किसी और चीज़ में। जहां ले जाओ, बस वो कहें कि जल्दी करो, होटल वापस चलें। और जैसे ही वो सब होटल पहुँचें, सीधे बाथरूम में घुस जाएँ। लौरेंस ने सोचा मामला क्या है? जब उसने परीक्षण किया तो पाया कि वो सब अपने अपने बाथरूम में टोंटी खोल कर या तो बहते हुए पानी के फव्वारे को देखें या उसके नीचे खड़े हो जाएँ। ये करने में उन अरब को बड़ा आनंद आता था। बड़ी भव्य प्रदर्शनी थी लेकिन उनका रस तो नल की टोंटी में था क्योंकि रेगिस्तान के लोग थे, पानी का अभाव देखा था। और इस तरीके से पानी तो कभी देखा ही न था उन्होने। फिर जिस दिन वापसी थी तो कारें आ गयी रेलवे स्टेशन ले जाने के लिए। सारा सामान कारों में लद चुका था, लेकिन देखा तो सब अरेबीयन फिर से नदारद। देर हो रही थी, लौरेंस भागा बुलाने के लिए तो देखा कि वो लोग अपने अपने बाथरूम की टोंटीयां खोल रहे थे साथ ले जाने के लिए। लौरेंस ने समझाया अरे नासमझो टोंटी तो तुम ले जाओगे लेकिन पानी कहाँ से लाओगे। भीतर पानी का स्त्रोत भी तो होना चाहिए। कमबख्तों पानी टोंटी से नहीं आ रहा है, टोंटी से तो सिर्फ निकल रहा है, आ तो भीतर स्त्रोत से रहा है। दोस्तों लौरेंस की इस कहानी में एक महत्वपूर्ण भेद छुपा है कि हम सब भी टोंटीयों की तरह है। हम जो भी कृत्य करते हैं, उनके लिए हम टोंटी जैसे है। हम जब किसी को प्रेम करते हैं तो उसको हम गले तो लगाते हैं मगर प्रेम का जल नहीं बहता हमारे अंदर से। क्योंकि भीतर प्रेम का स्त्रोत activate नहीं है। भीतर प्रेम का दरिया ना हो तो हम गले तो लगा लेंगे (टोंटी) लेकिन होगा क्या? शरीर से शरीर मिलेगा, चमड़ी चमड़ी को छूएगी लेकिन प्रेम का कोई आदान प्रदान नहीं होगा, प्रेम का फव्वारा भिगो नहीं पाएगा। हम टोंटी तो खोल देंगे लेकिन प्रेमरूपी जल की एक भी बूंद ना टपकेगी, जो है ही नहीं (स्त्रोत) बाहर कैसे छलकेगा क्योंकि पहले होना (Being) है, फिर करना (Doing) है अर्थात अभिव्यक्ति होती है। किसी भी प्रकार के कृत्य मात्र या अभिनय मात्र से सिर्फ हम टोंटी ही हो सकते हैं, उस कृत्य की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। सच्ची अभिव्यक्ति तो तभी होगी जब हममें वो स्त्रोत होगा अर्थात हम परमात्मारूपी स्त्रोत से जुड़े होंगे और जब हम उस परम स्त्रोत से जुड़े होंगे तो हमारे प्रत्येक कृत्य में उसकी अभिव्यक्ति स्वयं ही होगी वरना हम खाली टोंटी ही रह जाएंगे। यही लगभग हम सबके जीवन कि व्यथा है। जो उस स्त्रोत से जुड़ जाता है, उसका हर इशारा परमात्मा का इशारा हो जाता है। फिर वह जो करता है, वो सब पूजा हो जाता है।
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