‘जिन भगवान शंकर के ऊपर की ओर गजमुक्ता के समान किंचित श्वेत - पीत वर्ण, पूर्व की ओर सुवर्ण के समान पीतवर्ण, दक्षिण की ओर सजल मेघ के समान सघन नीलवर्ण, पश्चिम की और स्फटिक के समान शुब्र उज्जवल वर्ण तथा उत्तर की ओर जपापुष्प या प्रवाल के समान रक्तवर्ण के पांच मुख हैं । जिनके शरीर की प्रभा करोड़ों (छेनी), तलवार, वज्र, अग्नि, नागराज, घण्टा, अंकुश, पाश तथा अभयमुद्रा हैं । ऐसे भव्य, उज्ज्वल भगवान शिव का मैं ध्यान करता हूं ।’
ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात - ये भगवान शिव की पांच मूर्तियां हैं - ये ही उनके पांच मुख कहे जाते हैं । उनकी प्रथम मूर्ति क्रीड़ा, दूसरी तपस्या, तीसरी लोकसंहार, चौथी अहंकार की अधिष्ठात्री है । पांचवीं ज्ञान प्रधान होने के कारण संपूर्ण संसार को आच्छन्न रखती है ।
भगवान शंकर ब्रह्मा से कहते हैं कि मेरे कर्तव्यों को समझना अत्यंत गहन है, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें उसके विषय में बता रहा हूं । सृष्टि, पालन, तिरोभाव और अनुग्रह - ये मेरे जगत संबंधी कार्य हैं, जो नित्य सिद्ध हैं । संसार की रचना का जो आरंभ हा, उसी को सर्ग या सृष्टि कहते हैं । मुझसे पालित होकर सृष्टि का सुस्थिररूप से रहना ही उसकी स्थिति है । उसका विनाश ही संहार है । प्राणों के उत्क्रमण को तिरोभाव कहते हैं । इन सबसे छुटकारा मिल जाना मेरा अनुग्रह है । इस प्रकार मेरे पांच कृत्य हैं । सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसार का विस्तार करने वाले हैं । पांचवां कृत्य अनुग्रह मोक्ष का हेतु है । वह सदा मुझमें ही अचल भाव से स्थिर रहता है । मेरे भक्तजन इन पांचों कृत्यों को पंचभूतों में देखते हैं । सृष्टि भूतल में, स्थिति जल में, संहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है । पृथ्वी से सबकी सृष्टि होती है । जल से सबको वृद्धि और जीवन रक्षा होती है । आग सबको भस्म कर देती है । वायु सबको एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाती है और आकाश सबको अनुगृहीत करता है । विद्वान पुरुष को यह विषय इसी रूप में जानना चाहिए । इन पांचों कृत्यों का वहन करने के लिए ही मेरे पांच मुख हैं । चार दिसाओं में चार मुख और इनके बीच में पांचवां मुख है । तुमने और विष्णु ने मेरी तपस्या मेरी विभूतिरूप रुद्र ने मुझसे संहार और तिरोभावरूपी कृत्य प्राप्त किए हैं । परंतु मेरा अनुग्रह नामक कृत्य मेरे सिवा दूसरा कोई नहीं प्राप्त कर सकता । रुद्र को मैंने अपनी समानता प्रदान की है । वे रूप, वेष, कृत्य, वाहन, आसन आदि में मेरे ही समान हैं ।
पूर्वकाल में मैंने अपने स्वरूपभूत मंत्र का उपदेश किया था, जो ओंकार के नाम से प्रसिद्ध है । वह परम मंगलकारी मंत्र है । सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार प्रकट हुआ, जो मेरे मुख ओंकार प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूप का बोध कराने वाले है । ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूं । यह मंत्र मेरा स्वरूप ही है । प्रतिदिन ओंकार का स्मरण करने से मेरा ही स्मरण होता है ।
मेरे उत्तरपूर्वी मुख से अकार का, पश्चिम के मुख से उकार का, दक्षिण के मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से बिंदु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ । इस प्रकार पांच अवयवों से युक्त ओंकार का विस्तार हुआ । इन सभी अवयवों से युक्त होकर वह प्रणव ‘ॐ’ नामक एक अक्षर हो गया । यह संपूर्ण नाम रूपात्मक जगत, वेद, स्त्री - पुरुष वर्ग, दोनों कुल इस प्रणव मंत्र से व्याप्त हैं । यह मंत्र शिव और शक्ति दोनों का बोधक है । वह अकारादि क्रम से और मकारादि क्रम से क्रमश: प्रकाश में आया । इसी से पञ्चाक्षर मंत्र की उत्पत्ति हुई । जो मेरे सकल स्वरूप का बोधक है । ‘ॐ नम: शिवाय’ पञ्चाक्षर मंत्र है । उसी से त्रिपदा गायत्री का प्राकट्य हुआ । उस गायत्री से संपूर्ण वेद प्रकट हुए । उन वेदों से करोड़ों मंत्र निकले । इस प्रणव पञ्चाक्षर से संपूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती है । इसके द्वारा भोग और मोक्ष दोनों सिद्ध होते हैं ।
इस प्रकार गुरुवर महादेव ने ब्रह्मा और विष्णु को धीरे - धीरे उच्चारण करके अपने पांच मुखों से अपने उत्तम मंत्र का उपदेश किया । मंत्र में बतायी हुई विधि का पालन करते हुए उन्होंने अपने दोनों शिष्यों को मंत्र दीक्षा दी और अफने पांचों मुखों का रहस्य बताया ।
ब्रह्माऔर विष्णु ने भगवान महेश्वर से कृतकृत्य होकर कहा - ‘प्रभो आप प्रणव के वाच्यार्थ हैं । आपको नमस्कार है । सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह करने वाले आपको नमस्कार है । पांच मुखवाले आप परमेश्वर को नमस्कार है । पंच ब्रह्मस्वरूप वाले और पांच कृत्यवाले आपको नमस्कार है । आप सबकी आत्मा और ब्रह्म हैं । आप सद् गुरु और शंभु हैं । आपको नमस्कार है ।’ इस प्रकार गुरु महेश्वर की स्तुति करके ब्रह्मा और विष्णु ने भगवान पंचमुख शिव के चरणों में प्रणाम किया ।
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