महाराज सत्राजित का भगवान भास्कर में स्वाभाविक अनुराग था । उनके नेत्र कमल तो केवल दिन में भगवान सूर्य पर टकटकी लगाये रहते हैं, किंतु सत्राजित की मनरूपी आंखें उन्हें दिन - रात निहारा करती थीं । भगवान सूर्य ने भी महाराज को निहाल कर रखा था । उन्होंने ऐसा राज्य दिया था, जिसे वे अपनी प्यारभरी आंखों से दिन रात निहारा करते थे । इतना वैभव दे दिया था, जिसे देखकर सबको विस्मय होता था, स्वयं महाराज भी विस्मित रहते थे ।
इसी विस्मय ने उनमें यह जिज्ञासा जगा दी थी कि ‘वह कौन सा पुण्य है, जिसके कारण यह वैभव उन्हें मिला है । यदि उस पुण्यकर्म का पता लग जाएं तो उसका फिर से अनुष्ठान कर अगले जन्म में इस वैभव को स्थिर बना लिया जाएं ।’
उन्होंने ऋषि - मुनियों की एक सभी एकत्र की । महारानी विमलवती ने भी इस अवसर से लाभ उठाना चाहा । उन्होंने महाराज से कहा - ‘नाथ ! मैं भी जानना चाहती हूं कि मैंने ऐसा कौन सा शुभ कर्म किया है जिससे मैं आपकी पत्नी बन सकी हूं ।’ महाराज ने सभा को संबोधित करते हुए कहा - ‘पूज्य महर्षियों ! मैं और मेरी पत्नी - दोनों यह जानना चाहते हैं कि पूर्वजन्म में हम दोनों कौन थे ? और किस कर्म के अनुष्ठान से यह वैभव प्राप्त हुआ है ? यह रूप और यह कांति भी कैसे प्राप्त हुई है ?’
महर्षि परावर्तन ने ध्यान से देखकर कहा - ‘राजन ! पहले जन्म में आप शूद्र थे और ये महारानी उस समय भी आपकी ही भार्या थीं । उस समय आपका स्वभाव और कर्म दोनों आज से विपरीत थे । प्रत्येक को पीड़ित करना आपका काम था । किसी प्राणी से आप स्नेह नहीं कर पाते थे । उत्कट पाप से आपको कोढ़ भी हो गया था । आपके अंग कट - कट कर गिरने लगे थे । उस समय आपकी पत्नी मलयवती ने आपकी बहुत सेवा की । आपके प्रेम में मग्न रहने के कारण वह भूखी - प्यासी रहकर भी आपकी सेवा किया करती थी । आपके बंधु बांधवों ने आपको पहले से ही छोड़ रखा था, क्योंकि आपका स्वभाव बहुत ही क्रूर था । आपने क्रूरतावश अपनी पत्नी का भी परित्याग कर दिया था, किंतु उस साध्वी ने आपका त्याग कभी नहीं किया । वह छाया की तरह आपके साथ लगी रही । अंत में इसी पत्नी के साथ आपने सूर्यमंदिर की सफाई आदि का कार्य आरंभ कर दिया । धीरे - धीरे आप दोनों ने अपने को सूर्यभगवान को अर्पित कर दिया ।
आप दोनों के सेवाकार्य उत्तरोत्तर बढ़ते गये । झाड़ू - बुहारू, लीपना पोतना आदि कार्य करके शेष समय दोनों इतिहास पुराण के श्रवण में बिताने लगे । एक दिन आपकी पत्नी ने अपने पिता की दी हुई अंगूठी वस्त्र के साथ कथा वाचक को दे दी । इस तरह सूर्य की सेवा से आप दोनों के पाप जल गये । सेवा में दोनों को रस मिलने लगा था, अत: दिन - रात का भान ही नहीं होता था ।’
एक दिन महाराज कुवलाश्व उस मंदिर में आये । उनके साथ बहुत बड़ी सेना भी थी । राजा के उस ऐश्वर्य को देखकर आप में राजा बनने की इच्छा जाग उठी । यह जानकर भगवान सूर्य ने उससे भी बड़ा वैभव देकर आपकी इच्छा की पूर्ति कर दी है । यह तो आपके वैभव प्राप्त करने का कारण हुआ । अब आप में जो इतना तेज है और आपकी पत्नी में जो इतनी कांति आ गयी है, इनका रहस्य सुनें । एक बार सूर्य मंदिर का दीपक तैल न रहने से बुझ गया । तब आपने अपने भोजन के लिए रखे हुए तैल में से दीपक में तैल डाला और आपकी पत्नी ने अपनी साड़ी फाड़कर बत्ती लगा दी थी । इसी से आप में इतना तेज और आपकी पत्नी में इतनी कांति आ गयी है ।
आपने उस जन्म में जीवन की संध्यावेला में तन्मयता के साथ सूर्य की आराधना की थी । उसका फल जब इतना महान है तब जो मनुष्य दिन रात भक्ति भाव से दत्तचित्त होकर जीवनपर्यन्त सूर्य की उपासना करता है, उसके विशाल फल को कौन माप सकता है ?
महाराज सत्राजित ने पूछा - ‘भगवान सूर्य को क्या क्या प्रिय है ? मैं चाहता हूं कि उनके प्रिय फूलों और पदार्थों का उपयोग करुं ।’ परावसु ने कहा - ‘भगवान को घृत का दीप बहुत पसंद है । इतिहास पुराणों के वाचक की जो पूजा की जाती है, उसे भगवान सूर्य की ही पूजा समझो । वेद और वीणा की ध्वनि भगवान को उतना पसंद नहीं है, जितनी ‘कथा’ । फूलों में करवीर (कनेर) का फूल और चंदनों में रक्त चंदन भगवान सूर्य को बहुत प्रिय है ।’
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