Wednesday, 3 February 2016

माता कौसल्या की चरित्र शिक्षा


जिस समय श्रीस्वायंभुव मनु और रानी शतरूपा ने भगवत्प्राप्ति के लिए राज्य त्यागकर श्रीनैमिषारण्यतीर्थ में घोर तपस्या की और परम प्रभु भगवान को रामरूप में पाकर उनसे अपना पुत्र बनने का वर प्राप्त किया, उस समय वर - याचना में श्रीशतरूपा (कौसल्या जी) अपने पतिदेव महाराज मनु जी से इतना और अधिक बढ़ गयीं कि ‘हे नाथ ! निज भक्तों की भांति मुझ को विवेकादि सुखों को भी प्रदान कीजिए ।’ भगवान ने उनकी ऐसी रुचि देखकर परम उदारता के साथ यहां तक स्वीकार कर लिया कि ‘इस समय जो कुछ भी तुम्हारे मन में इच्छाएं हो रही हैं - कथन से जो कुछ भी छूट गया है, उन सबको मैंने प्रदान कर दिया । हे माता ! मेरे अनुग्रह से तुम्हारा अलौकिक विवेक अब कभी नहां मिटेगा ।’
इस पर जब श्रीस्वायंभवु मनु ने देखा कि उनकी पत्नी शतरूपा जी ने ‘जो बरु नाथ चतुर नृप मागा’ कहकर ‘चतुर’ शब्द से यद्यपि मुझको आदर दिया है, तथापि इनके मन में यह बात अवश्य बैठ गयी है कि केवल पुत्र बनने का वर अपर्याप्त है, इसलिए मैं विवेकादि सुखों को भी क्यों न मांग लूं । इससे यह टपक रहा है कि ये केवल पुत्र बनने का वर मांगने से हमारी अदूरदर्शिता समझ रही हैं । अत: अपने मांगे हुए वर पर जोर देने के लिए मनु जी फिर बोले -
‘प्रभो ! मेरी एक और विनती है । आपके चरणों में मुझको पुत्र भाव की ही प्रीति हो । चाहे मुझे कोई महामूढ़ ही क्यों न कहे; परंतु जिस प्रकार बिना मणि के सर्प के प्राण नहीं रहते, बिना जल के मछली नहीं जी पाती, उसी प्रकार आपके वियोग में मेरे प्राण न रह सकें ।’ ऐसा वर मांगकर उन्होंने चरण पकड़ लिए । तब करुणानिधान भगवान ने ‘एवमस्तु’ कहकर उसको भी स्वीकार कर लिया और आज्ञा ही कि ‘अभी आप दोनों इंद्रपुर में वास करें; जब अयोध्या में आप लोग राजा दशरथ और कौसल्या होंगे, तब मैं वहां आकर आप लोगों का पुत्र बनूंगा ।’
समय आने पर भगवान राम जी ने श्रीचक्रवर्ती दशरथ जी के यहां कौसल्या जी के गर्भ अवचार लिया और अपने पूर्व प्रदान किए हुए वर के अनुसार विवेकजनित सुखों को माता कौसल्या के भाग में रखकर पुत्रविषयक आनंद दंपति को दिया । प्रकट होते समय भगवान ने अपना जो चतुर्भुज रूप दिखाया, उसको केवल कौसल्या जी ने ही देखा -‘हरषित महतारी … अद्भुत रूप बिचारी ।’ इसी से यहां केवल ‘कौसल्या हितकारी’ पद आया है । जब भगवान ने पूर्व वरदान की कथा को श्रीकौसल्या जी से कहकर उनको संतुष्ट कर दिया ।
परम विवेकशीला श्रीकौसल्या माता जी की बुद्धि ने जब धर्म का विचार किया तो ‘नारिधर्म पतिदेव न दूजा’ ही समुचित जान पड़ा; परंतु हृदय में पुत्र स्नेही की भी पराकाष्ठा थी । अतएव धर्म और स्नेह दोनों ने उनकी बुद्धि को घेर लिया, न रोकते बनता था और न जाने की आज्ञा देने का ही साहस होता था । सोचने लगीं कि ‘यदि पुत्र को रोकती हूं तो अपना पतिव्रतधर्म जाता है, आपस में बंधु विरोध भी होता है और यदि जाने के लिए कह देती हूं तो बड़ी भारी हानि होती है ।’ ऐसे धर्म संकट और वियोग दु:ख की चिंता में पड़कर रानी विवश हो गयीं, उनकी दशा सांप और छछूंदर की सी हो गयी, परंतु सयानी विवेकशीला होने के कारण उनको शीघ्र ही अपना स्त्रीधर्म समझ में आ गया । उन्होंने अपने सगे पुत्र राम तथा सौतेले पुत्र भरत को एक समान माना । इससे बंधु विरोध की जड़ उखड़ गयी और स्नेह के लिए उन्होंने मन में खूब धैर्य धारण कर लिया । पश्चात अपने सरल स्वभाव से बोलीं - ‘हे तात ! तुमने बहुत उत्तम निश्चय किया है, क्योंकि पिता की आज्ञा का पालन करना ही सब धर्मों में श्रेष्ठ है । तुमको पिता ने राज्य देने का वचन दिया था, परंतु वन दे दिया - इसका मुझको लेशमात्र भी दु:ख नहीं है । तुम्हारे बिना भरत, स्वयं श्रीराजा जी और समस्त प्रजा आदि सबको बड़ा भारी कष्ट होगा । अतएव यदि केवल पिता की आज्ञा है, तो माता की आज्ञा न होने के कारण तुम अपने इस धर्म का विचार करके रुक सकते हो कि पुत्र को पिता माता दोनों की आज्ञाओं में से माता की आज्ञा को दस गुना अधिक गौरव देना चाहिए ।’
श्रीकौसल्या माता के चरित्र में प्रबल पतिव्रतधर्म की शिक्षा के साथ - साथ, जिसका रहस्य अंत में प्रकट होगा, दो और बातें विशेष ध्यान देने योग्य हैं । पहली बात यह है कि स्त्रियों को अपनी छोटी - बड़ी सभी सौतों तथा जेठानी देवरानियों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए - इसकी शिक्षा श्रीकौसल्या माता के चरित्र से ही मिलती है । यद्यपि कैकेयी जी की घोर अनीति उनके सामने थी, , वे बिना अपराध के ही प्यारे पुत्र राम जी को वन में भिजवाकर कोई भी हक न रखने वाले अपने बेटे भरत को राजगद्दी दिलवा रही थीं, तथापि श्रीकौसल्या माता के हृदय में तनिक भी द्वेष का संचार नहीं हुआ । दूसरी बात यह है कि सारे जगत की माताओं को अपने सगे, सौतेले आदि लड़कों के साथ कैसा प्रेम रखना उचित है - इसकी भी शिक्षा श्रीकौसल्या माता से ही मिलती है, जिन्होंने वैसी द्वेषजनक परिस्थिति में पड़कर भी निश्चय को दृढ़ रखा । इतनी ही नहीं, दोनों पुत्रों को समान रूप से जानने का प्रमाण भी दे दिया । जिस समय श्रीभरत जी अपने ननिहाल से लौटकर आएं और विकल होकर श्रीकौसल्या माता से मिलने गए, उस समय की अवस्था देखिए -
श्रीभरत जी को देखते ही श्रीकौसल्या अंबा आतुर होकर दौड़ीं, परंतु चक्कर आ जाने से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं । जब भरत जी जल्दी से उनके समीप पहुंचे, तब उनको हृदय से लगाकर इस तरह सुखी हुईं मानों श्रीराम जी वन से लौटकर आ गये हों । श्रीभरत जी नाना प्रकार से शपथ खा खाकर अपने को निर्दोष साबित करने लगे । इस पर श्रीकौसल्या माता जी ने यह कहा कि ‘इस कार्य में सुयश का भागी न होगा’ और फिर श्रीभरत जी को हृदय से लगा लिया । उस समय उनके दोनों स्तनों से दूध की धारा बहने लगी और नेत्रों में प्रेमाश्रु भर गए । अस्तु, ‘राम भरत दोउ सुत सम जानी’ का इससे अधिक प्रबल प्रमाण और क्या होगा ? माता के स्तनों से अपने ही बच्चे के लिए दूध टपकता है, दूसरे के बच्चे के लिए नहीं ।
धर्मज्ञ औ पतिव्रता स्त्रियों को श्रीकौसल्या के चरित्र से शिक्षा लेकर लोक - परलोक दोनों की दृष्टि से पति की अनुगामिनी बनना चाहिए । इसी में कल्याण है ।

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