भक्तों की तीन श्रेणियां होती हैं । एक तो वे होते हैं जो किसी फल की कामना से भगवान को भजते हैं । भगवान कहते हैं - उनकी भक्ति वास्तविक भक्ति नहीं, वह तो एक प्रकार की स्वार्थपरायणता है । दूसरी श्रेणी के भक्त वे हैं जो बिना किसी फल की इच्छा के अपना सर्वस्व उन्हें समर्पित कर सदा उनकी सेवा ही करना चाहते हैं । इस श्रेमी के भक्त सच्चे भक्त समझे जाते हैं । भगवान ने दुर्वासा मुनि से अत्यंत करुणापूर्ण शब्दों में कहा है - कि ऐसे भक्त मुझे अपने अधीन बना लेते हैं, मेरी स्वतंत्रता को हर लेते हैं । ये भक्त मुझे ‘देने’ का आनंद न लेने देकर केवल ‘लेने’ का ही सुख देते हैं । उत्तम से उत्तम वस्तु को भी जिसे मैं इन्हें देता हूं ये इंकार कर देते हैं जिससे मैं इनके सामने बहुत छोटा हो जाता हूं और इनका ऋणी बन जाता हूं । वे मुझे ‘सेवा कराने’ का ही आनंद देते हैं, ‘सेवा करने का’ नहीं । भगवान प्रेम से परिपूर्ण होने के कारण भक्तों के हठ के सामने अपना सिर झुका देते हैं और अपनी इच्छा को उनके अधीन बना देने में ही संतुष्ट होते हैं और स्थलों में भगवान स्वामी बनकर ही रहते हैं सेवक बनकर कदापि नहीं रह सकते, परंतु प्रेम - स्वातंत्र्य के लिए तो निरतिशय समानता होनी चाहिए ।
परस्पर आदान - प्रदान और सेवा करने कराने में पूर्ण स्वतंत्रतायुक्त समान बर्ताव होना चाहिए । यह बात उन्हें ब्रज और वृंदावन में ही मिली । क्योंकि व्रज में प्रेम का ही एकच्छत्र राज्य था । वहां ऊंचा - नीचा, छोटे - बड़े या जीव ईश्वर का कोई भेद नहीं था । जब वे अपनी माता को खिझाते थे तो वह उन्हें ऊखल से बांध दिया करती थी । कहीं खेल में यदि हार जाते तो उन्हें अपने साथियों को पीठ पर लाद कर दम्ड चुकाना पड़ता था और सखा हार जाते थे तो वे भी भगवान को पीठपर चढ़ा कर ले जाते थे ।
व्रजवासियों की अभिलाषाएं केवल भगवान के आनंद की वृद्धि के लिए ही होती थीं, उनकी प्रसन्नता भगवान की प्रसन्नता में और भगवान की प्रसन्नता उनकी प्रसन्नता में थी । उनकी निष्ठा थी ‘तत्सुख सुखित्वम्’ अर्थात् अपने प्रियतम के आनंद में आनंदित रहना । उनके अंदर ऐसा सभी गुण विद्यमान थे जो भगवान के आनंद को बढ़ाते थे । वह आनंद आदान और उपभोग के द्वारा हो , चाहे प्रदान और सेवा के द्वारा हो । जिस वस्तु के प्राप्त करने की प्रेमास्पद को अत्यंत तीव्र अभिलाषा है, उसके प्रदान में प्रेमी को और भी अधिक आनंद मिलता है । इसलिए वे लोग भगवान को देने अथवा उनकी सेवा करने के लिए आग्रह करते थे । इसी तरह आदान और उपभोग का आनंद उसी समय अधिक होता है, जब कि प्राप्त वस्तु बड़ी कठिनाई और परिश्रम से मिलती है । इसलिए देने के पूर्व वे भगवान को उत्कण्ठित किया करते थे ।
सखियां भगवान को श्रीराधा जी के दर्शन के लिए वृक्षों के कोटरों में छिपाकर प्रतीक्षा करवाया करती थीं । व्रज में समस्त कार्यों का छिपा हुआ उद्देश्य तथा प्रयोजन सर्वथा स्वतंत्र, समान और पारस्परिक प्रेम एवं सेवा का एक महान समन्वय था ।एकता की कुंजी प्रत्येक मनुष्य का स्वार्थत्यागपूर्वक व्रजवासियों जैसे प्रेम के साथ दूसरों की भलाई के लिए चेष्टा करना ही है । यहीं यज्ञ का मार्ग है, जिसे भगवान ने मनुष्य मात्र की एकता और समृद्धि का एकमात्र उपाय बतलाया है
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