Tuesday, 23 February 2016

विपुलस्वान मुनि और उनके पुत्रों की कथा


द्वापर युग की बात है मंदनपाल नाम का एक पक्षी था । उसके चार पुत्र थे, जो बड़े बुद्धिमान थे । उनमें द्रोण सबसे छोटा था । वह बड़ा धर्मात्मा और वेद - वेदांग में पारंगत था । उसने कंधर की अनुमति से उसकी पुत्री तार्क्षी से विवाह किया । कुछ समय बाद तार्क्षी गर्भवती हुई और साढ़े तीन मास के पश्चात वह कुरुक्षेत्र चली गयी । वहां वह भविष्यतावश कौरवों और पाण्डवों के भंयकर युद्ध के बीच घुस गयी । तब अर्जुन के बाण से उसकी खाल उधड़ गयी, जिससे उसका पेट फट गया और उसके चार अंडे अपनी आयु शेष रहने के कारण पृथ्वीपर ऐसे गिरे मानो रुई की ढेर पर गिरे हों । उनके गिरते ही राजा भगदत्त के सुप्रतीक नामक गजराज का विशाल घंटा, जिसकी जंजीर अर्जुन के ही बाण से कटी थी, नीचे गिर पड़ा । उसने भूतल को विदीर्ण कर दिया और मांस की ढेर पर पड़े तार्क्षी के उन अंडों को चारों ओर से ढक दिया ।
युद्ध की समाप्ति के बाद शमीक ऋषि उस स्थान पर आ तब उन्होंने शिष्यों के साथ उस घंटे को ऊपर उठाया और उन अनाथ एवं अजातपक्ष पक्षि शावकों को देखा । फिर तो उन्होंने शिष्यों से कहा - ‘इन पक्षि - शावकों को आश्रम में ले चलो और इन्हें ऐसे स्थान पर रखो, जहां बिलाव आदि का भय न हो ।’
मुनि कुमार पक्षि शावकों को लेकर आश्रम में आये । वहां मुनिवर शमीक ने प्रतिदिन भोजन, जल और संरक्षण के द्वारा उनका पालन पोषण किया । एक मास में ही वे सूर्यदेव के रथमार्ग पर उड़ने लगे, जिन्हें कौतुकवश आंखें फाड़कर मुनिकुमार देखा करते थे ।
जब उन पक्षि शावकों ने नगरों से भरी, समुद्र से घिरी, नदियों वाली और रथ के पहिये के समान गोल पृथ्वी का परिभ्रमण कर लिया, तब वे आश्रम में लौट आये । उस समय ऋषि शमीक शिष्यों पर अनुकंपा करके प्रवचन द्वारा धर्म कर्म का निर्णय कर रहे थे । उन पक्षि शावकों ने उनकी प्रदक्षिणा करके उनके चरणों की वंदना की और कहा - ‘मुनिवर ! आपने हमें भयंकर मृत्यु से मुक्त किया है, अत: आप हमारे पिता हैं और गुरु भी । जब हमलोग मां के पेट में थे, तभी हमारी मां मर गयी और पिता ने बी हमारा पालन पोषण नहीं किया । आपने हमें जीवनदान दिया है, जिससे हम बालक बचे हुए हैं । इस पृथ्वी पर आपका तेज अप्रतिहत है । आपने ही हाथी का घंटा उठाकर कीड़ों की भांति सूखते हुए हगमलोगों के कष्टों का निवारण किया है ।’
उन पक्षि शावकों की ऐसी स्पष्ट शुद्ध वाणी सुनकर शमीक मुनि ने उनसे पूछा - ‘ठीरक - ठीक बताओ, तुम्हें यह मानव वाणी कैसे मिली ? साथ ही यब भी बताओ कि किसके शाप से तुममें रूप और वाणी का ऐसा परिवर्तन हो गया ?’
पक्षियों ने कहा - विपुलस्वान नाम के एक प्रसिद्ध महामुनि थे । उनके दो पुत्र हुए - सुकृष और तुम्बुरु । हम चारों यतिराज सुकृष के ही पुत्र हैं और सदा विनम्रतापूर्वक व्यवहार और भक्तिभाव से उन्हीं की सेवा शुश्रूषा में लगे रहे हैं । तपश्चरण में लीन अपने पिता सुकृष मुनि की इच्छा के अनुसार हमने समिधा, पुष्प और भोज्य पदार्थ सब कुछ उन्हें समर्पित किया है । इस प्रकार जब हम वहां रहते रहे, तब एक बार हमारे आश्रम में विशाल देहधारी टूटे पंखवाले वृद्धावस्थाग्रस्त ताम्रवर्ण के नेभों से युक्त, शिथिल शरीर पक्षी के रूप में देवराज इंद्र पधारे । वे सुकृष ऋषि की परीक्षा लेने आये थे । उनका आगमन ही हमलोगों पर शाप का कारण बन गया । पक्षी रूपी इंद्र ने कहा - ‘बज्य विप्रवर ! मैं बुभुक्षित हूं । आप मेरी प्राणरक्षा करें । मैं भोजन की याचना करता हूं । आप ही हमारे एकमात्र उद्धारक हैं । मैं विध्याचल के शिखर पर रहनेवाला हूं, जहां से उड़ान भरने वाले पक्षियों के पंखों की वेगयुक्त वायु से मैं नीचे गिर पड़ा । गिरने के कारण मैं सप्ताह भर बेसुध पृथ्वी पर पड़ा रहा । आठवें दिन मेरी चेतना लौटी । तब क्षुधा पीड़ित मैं आपकी शरण में आया हूं । मैं बड़ा दु:खी हूं, मेरा मन बड़ा खिन्न है और मेरी प्रसन्नचा नष्ट हो चुकी है । बस, मुझे भोजन की अभिलाषा है । विप्रवर ! आप मुझे कुछ खाने को दें, जिससे मेरे प्राण बच जाएं । ’
ऐसा कहे जाने पर सुकृष ऋषि ने पक्षिरूपधारी इंद्र से कहा - ‘प्राणरक्षा के लिए तुम जो भी भोजन चाहो, मैं दूंगा ।’ ऐसा कहकर ऋषि ने फिर उस पक्षी से पूछा - ‘तुम्हारे लिए मैं किस प्रकार के भोजन की व्यवस्था करूं ?’ यह सुनकर उसने कहा - ‘नर मांस मिलने पर मैं पूर्णरूप से संतृप्त हो जाऊंगा ।’
ऋषि ने पक्षी से कहा - तुम्हारी कुमारवस्था एवं युवावस्था समाप्त हो चुकी है, अब तुम बुढ़ापे की अवस्था में हो । इस अवस्था में मनुष्य की सभी इच्छाएं दूर हो जाती हैं । फिर भी ऐसा क्यों है कि तुम इतने क्रूर हृदय हो ? कहां तो मनुष्य का मांस और कहां तुम्हारी अंतिम अवस्था, इससे तो यही सिद्ध होता अथवा मेरा यह सब कहना निष्प्रयोजन है, क्योंकि जब मैंने वचन दे दिया तब तो तुम्हें भोजन देनी ही है ।
उससे ऐसा कहकर और नर मांस देने का निश्चय करके विप्रवर सुकृष ने अविलंब हमलोगों को पुकारा और हमारे गुणों की प्रशंसा की । तत्पश्चात उन्होंने हमलोगों से, जो विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़े बैठे थे, बड़ा कठोर वचन कहा - ‘अरे पुत्रों ! तुम सब आत्मज्ञानी होकर पूर्णमनोरथ हो चुके हो, किंतु जैसे मुझपर अतिथि ऋण है, वैसे ही तुम पर भी है, क्योंकि तुम्हीं मेरे पुत्र हो । यदि तुम अपने गुरु को जो तुम्हारा एकमात्र पिता है, पूज्य मानते हो तो निष्कलुष हृदय से मैं जैसा कहता हूं, वैसा करो ।’ उनके ऐसा कहने पर गुरु के प्रति श्रद्धालु हमलोगों के मुंह से निकल पड़ा कि ‘आपका जो भी आदेश होगा, उसके विषय में आप यहीं सोचें कि उसका पालन हो गया ।’
ऋषि ने कहा - ‘भूख और प्यास से व्याकुल हुआ यह पक्षी मेरी शरण में आया है । तुमलोगों के मांस से इसकी क्षणभर के लिए तृप्ति हो जाती तो अच्छा होता । तुमलोगों के रक्त से इसकी प्यास बुझ जाएं, इसके लिए तुमलोग अविलंब तैयार हो जाओ ।’ यह सुनकर हमलोग बड़े दु:खी हुए और हमारा शरीर कांप उठा, जिससे हमारे भीतर का भय बाहर निकल पड़ा और हम कह उठे - ‘ओह ! यह काम हमसे नहीं हो सकता ।’
हमलोगों की इस प्रकार की बात सुनकर सुकृष मुनि क्रोध से जल भुन उठे और बोले - ‘तुमलोगों ने मुझे वचन देकर भी उसके अनुसार कार्य नहीं किया, इसलिए मेरी शापाग्नि में जलकर पक्षियोंनि में जन्म लोगे ।’
हमलोगों से ऐसा कहकर उन्होंने उस पक्षी से कहा - ‘पक्षिराज ! मुझे अपना अंत्येष्टि संस्कार और शास्त्रीय विधि से श्राद्धादि कर लेने दो, इसके बाद तुम निश्चिंत होकर यहीं मुझे खा लेना । मैंने अपना ही शरीर तुम्हारे लिए भक्ष्य बना दिया है ।’ आप अपना योगबल से अपना शरीर छोड़ दें, क्योंकि मैं जीवित जंतु को नहीं खाता । पक्षी ने कहा । पक्षी के इस वचन को सुनकर मुनि सुकृष योगयुक्त हो गये । उनके शरीर त्याग के निश्चय को जानकर इंद्र ने अपना वास्तविक शरीर धारण कर लिया और कहा - ‘विप्रवर ! आप अपनी बुद्धि से ज्ञातव्य वस्तु को ज्ञान लीजिए । आप महाबुद्धिमान और परम पवित्र हैं ।आपकी परीक्षा लेने के लिए ही मैंने यह अपराध किया है । आज से आपमें ऐंद्र अथवा परमैश्वर्ययुक्त ज्ञान प्रादुर्भूत होगा और आपके तपश्चरण तथा धर्म कर्म में कोई विघ्न उपस्थित न होगा ।’
ऐसा कहकर जब इंद्र चले गये, तब हमलोगों ने अपने क्रुद्ध पिता महामुनि सुकृष से सिर झुकाकर निवेदन किया - ‘पिताजी ! हम मृत्यु से भयभीत हो गये थे, हमें जीवन से मोह हो गया था, आप हम दोनों को क्षमा दान दें । तब उन्होंने कहा - ‘मेरे बच्चों ! मेरे मुंह से जो बात निकल चुकी है, वह कभी मिथ्या न होगी । आजतक मेरी वाणी से असत्य कभी भी नहीं निकला है । मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि दैव ही समर्थ है और पौरुष व्यर्थ है । भाग्य से प्रेरित होने से ही मुझसे ऐसा अचिंतित अकार्य हो गया है । अब तुमलोगों ने मेरे सामने नतमस्तक होकर मुझे प्रसन्न किया है, इसलिए पक्षी की योनि में पहुंच जाने पर भी तुमलोग परमज्ञान को प्राप्त कर लोगे ।’ भगवन ! इस प्रकार पहले दुर्दैववश पिता सुकृष ऋषि ने हमें शाप दिया था, जिससे बहुत समय के बाद हमलोगों ने दूसरी योनि में जन्म लिया है ।
उनकी ऐसी बात सुनकर परमैश्वर्यवान शमीक मुनि ने समस्त समीपवर्ती द्विजगमों को संबोधित करके कहा - ‘मैंने आपलोगों के समक्ष पहले ही कहा था कि ये पक्षी साधारण पक्षी नहीं हैं, ये परमज्ञानी हैं, जो अमानुषिक युद्ध में भी मरने से बच गये ।’ इसके बाद प्रसन्नहृदय महात्मा शमीक मुनि की आज्ञा पाकर वे पक्षी पर्वतों में श्रेष्ठ, वृक्षों और लताओं से भरे विंध्याचल पर्वतपर चले गये ।
वे धर्मपक्षी आजतक उसी विंध्यपर्वत पर निवास कर रहे हैं और तपश्चरण तथा स्वाध्याय में लगे हैं एवं समाधि सिद्धि के लिए दृढ़ निश्चय कर चुके हैं ।

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