श्रीराधा के संबंध में आलोचना करते समय सबसे पहले वैष्णवों के राधातत्त्व के अनुसार ही आलोचना करनी पड़ती है । वायुपुराण आदि में राधा की जैसी आलोचना है, इस लेख में हम उसका अनुसरण न कर वैष्णवोचित भाव से ही कुछ चर्चा करते हैं । राधातत्त्व के इतिहास के संबंध में किसी दूसरे निबंध में आलोचना की जा सकती है ।
प्राचीन वैष्णवों के श्रीकृष्ण ही एकमात्र आराध्य थे, वे श्रीकृष्ण को ही अपना सर्वस्व मानते थे । वे जानते थे कि श्रीकृष्ण ही परम पुरुष और आनंदघन हैं । आनंद ही उनका स्वरूप है । वे ही मूर्तिमान आनंद हैं । श्रीकृष्म का विश्लेषण कर वे उनमें भीतर बाहर सर्वत्र एक आनंद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देख पाते थे । परंतु बाद के वैष्णवों ने एक अपूर्ण आविष्कार किया । अद्वैत सत् - चित् आनंदस्वरूप वस्तु ही परमतत्त्व है । प्राचीन वैष्णवों की भांति परवर्ती संप्रदाय भी यह बात तो मानी । उन्होंने केवल इतना ही विशेष समझा कि ज्ञानी लोग इस परमतत्त्व है - प्राचीन वैष्णवों की भांति परवर्ती संप्रदाय ने भी यह बात तो मानी । उन्होंने केवल इतना ही विशेष समझा कि ज्ञानी लोग इस परमतत्त्व को सत्ताप्रधान ब्रह्म बतलाते हैं, योगीगण चैतन्यप्रधान परमात्मा मानकर उनका ध्यान करते हैं और प्रेमिकगण आनंदप्रधान विग्रहवान भगवान जानकर उनकी सेवा करते हैं । सभी अपनी अपनी प्रवृत्ति और अधिकार के अनुसार जो कुछ करते हैं, वहीं उनके लिए उपयोगी है, किंतु ‘आनंदघन भगवान’ की उपासना तो जीवमात्र के लिए ही सहज - स्वाभाविक है । जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त जीवमात्र प्रतिक्षण कृष्णानुसंधान ही करते हैं । मूर्तिमान आनंद ही कृष्ण हैं । जीव आनंद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहता - आनंद के बिना वह बच नहीं सकता । परंतु आनंद कैसे मिल सकता है, इस बात को जीव नहीं जानता, इसलिए वह स्त्री - पुत्र, धन संपत्ति आदि पार्थिव पदार्थों में आनंद को ढूंढ़ता है । यदि कोई मूर्तिमान आनंदस्वरूप श्रीकृष्ण को जान ले तो फिर वह स्त्री - पुत्रादि को नहीं चाहेगा ।
जीव के अंदर ऐसी बलवती आनंद लिप्सा क्यों है, इसी बात को समझने के लिए गौड़ीय वैष्णवों ने जीव के स्वरूप की आलोचना करते हुए राधा स्वरूप का आविष्कार किया है । वे कहते हैं जैसे एक ही सत्, चित्, आनंदस्वरूप परमतत्त्व सत्ताप्रधान होने से भगवान कहलाता है, वैसे ही सत्, चित् और आनंदस्वरूप वस्तु प्रेम प्रदान होने से शुद्ध जीव कहलाती है । सत्तास्वरूप वस्तु निर्विशेषभाव से रह सकती है और है भी, और चैतन्यस्वरूप वस्तु आप ही परिस्फुट है, इस दशा में आनंद का होना न होना समान ही हो जाता है ।
इसलिए वे श्रुति के वचनों को उद्धृत कर कहते हैं कि - ‘परब्रह्म ने अपने असत् समझा और बहुत होने की अभिलाषा की ।’ समझना, अभिलाषी होना कहनेमात्र को है, क्योंकि लीला ही आनंद का स्वभाव है और आनंद ही लीला का आस्वाद्य है । मनुष्य आनंदप्रणेदित होकर ही क्रीड़ा करके आनंद का ही आस्वादन करता है । किसी प्रकार का अभाव प्रतीत होने पर उसकी पूर्ति के लिए स्वत: ही इच्छा होती है, पूर्णानंदस्वरूप भगवान में किसी प्रकार का अभाव नहीं है इसलिए उनमें इच्छा भी नहीं है । वे अपने आप ही प्रतिनियत निजानंद का आस्वादन करते हैं, यहीं उनकी अप्राकृत नित्य लीला है और इस प्रकार के अप्राकृत प्रेमप्रधान भगवदंश ही शुद्ध जीव हैं अथवा भगवान की नित्य लीला के परिकर हैं ।
जहां आनंद है, वहीं प्रेम है और जहां प्रेम है, वहीं आनंद है बिना प्रेम नहीं होता और प्रेम बिना आनंद नहीं रहता, आनंद के घनीभूत विग्रह श्रीकृष्ण हैं । और प्रेम की घनीभूत मूर्ति श्रीराधा हैं । अतएव जहां श्रीकृष्ण हैं, वहीं राधा हैं और जहां श्रीराधा हैं वहीं श्रीकृष्म हैं, कृष्म बिना राधा अथवा राधा बिना कृष्ण रह ही नहीं सकते ।
श्रीराधा और सखियों की सेवा से भगवान को जितनी प्रसन्नता होती है, भगवान की सेवा करके उनके उससे कहीं अधिक आनंद होता है । निजानंद में ही नित्यप्रीत परमेश्वर को सेवा से कैसे प्रसन्नता होती है, इस बात को समझने के अधिकारी प्रेमी, रसिक और भावुकों के सिवा और कोई नहीं है । यहीं वैष्णव सिद्धांत हैं ।
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