सूतजी ने कहा - ऋषियों ! शालिवाहन के वंश में दस राजा हुए । उन्होंने पांच सौ वर्ष तक शासन किया और स्वर्गवासी हुए । तदनंतर भूमण्डल पर धर्म मर्यादा लुप्त होने लगी । शालिवाहन के वंश में अंतिम दसवें राजा भोजराज हुए । उन्होंने देश की मर्यादा क्षीण होती देख दिग्विजय के लिये प्रस्थान किया । उनकी सेना दस हजार थी और उनके साथ कालिदास एवं अन्य विद्वान ब्राह्मण भी थे । उन्होंने सिंधु नदी को पार करके गांधार, मलेच्छ और काश्मीर के शठ राजाओं को परास्त किया तथा उनका कोष छीनकर उन्हें दण्डित किया । उसी प्रसंग में आचार्य एवं शिष्यमण्डल के साथ म्लेच्छ महामद नाम का व्यक्ति उपस्थित हुआ । राजा भोज ने मरुस्थल में विद्यमान महादेव जी का दर्शन किया । महादेव जी को पंचगव्यमिश्रित गंगाजल से स्नान कराकर चंदन आदि से भक्तिभावपूर्वक उनका पूजन किया और उनकी स्तुति की ।
भोज राज ने कहा - हे मरुस्थल में निवास करनेवाले तथा म्लेच्छों से गुप्त शुद्ध सच्चिदानंदस्वरूप वाले गिरिजापते ! आप त्रिपुरासुर के विनाशक तथा नानाविध मायाशक्ति के प्रवर्तक हैं । मैं आपकी शरण में आया हूं, आप मुझे अपना दास समझें । मैं आपको नमस्कार करता हूं । इस स्तुति को सुनकर भगवान शिव ने राजा से कहा -
‘हे भोजराज ! तुम्हें महाकालेश्वर तीर्थ में जाना चाहिये । यह वाह्लीक नाम की भूमि है, पर अब म्लेच्छों से दूषित हो गयी है । इस दारुण प्रदेश में आर्य धर्म है ही नहीं । महामायावी त्रिपुरासुर यहां दैत्यराज बलिद्वारा प्रेषित किया गया है । मेरे द्वारा वरदान प्राप्त कर वह दैत्य समुदाय को बढ़ा रहा है । वह अयोनिज है । उसका नाम महामद है । राजन ! तुम्हें इस अनार्य देश में नहीं आना चाहिये । मेरी कृपा से तुम विशुद्ध हो ।’ भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर राजा भोज सेना के साथ अपने देश में वापस चला आया ।
राजा भोज ने द्विजवर्ग के लिए संस्कृत वाणी का प्रचार किया और शूद्रों के लिये प्राकृत भाषा चलायी । उन्होंने पचास वर्ष तक राज्य किया और अंत में स्वर्गलोक प्राप्त किया । उन्होंने देश मर्यादा का स्थापन किया । विन्ध्यगिरि और हिमालय के मध्य में आर्यावर्त की पुण्यभूमि है, वहां आर्यलोग रहते हैं
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