स्वामी विवेकानंद की ख्याति दिन प्रतिदिन फैलती रही । उनका गुणगान सुनकर अलवर राज्य के दीवान महोदय ने उन्हें अपने घर बुलाया । स्वामी जी का सत्संग करके दीवान जी ने अपना महोभाग्य माना । दूसरे दिन दीवान जी ने महाराज से इनके बारे में एक पत्र लिखकर चर्चा की । महाराज उस समय अलवर से दो मील दूरी पर एक प्रासाद में ठहरे हुए थे । वे दूसरे दिन अलवर नगर में लौट आये स्वामी जी के दर्शनार्थ दीवानगी के निवास पर पहुंचे । बातों ही बातों में महाराज कहने लगे, ‘स्वामी जी महाराज, आप अनेक भाषाओं के विद्वान हैं । आप चाहें तो अपनी योग्यता से प्रचुर धनोपार्जन कर सकते हैं । फिर भी आपने भिक्षावृत्ति को क्यों स्वीकार किया हुआ है ?’
स्वामी जी ने इस प्रश्न का प्रकारान्तर से उत्तर देने का निश्चय किया । उन्होंने महाराज से पूछा, ‘आप राज - काज की चिंता छोड़कर अंग्रेज अधिकारियों के साथ शिकार खेलने के नाम पर अपना समय व्यर्थ क्यों नष्ट करते हैं ?’
वहां उपस्थित अनेक राज्याधिकारी इस प्रश्न को सुनकर स्तब्ध रह गये । उन्हें आशंका थी कि कहीं महाराज इसे अपना अपमान समझकर कुछ अनुचित न कह या कर बैठें । कुछ क्षण सोचकर महाराज ने उत्तर दिया, ‘हां, करता तो हूं, पर क्यों करता हूं, यह नहीं कह सकता । इतना ही कह सकता हूं कि वह मुझे अच्छा लगता है ।’
स्वामी जी ने हंसकर उत्तर दिया, ‘मैं भी इसलिए साधु वेश में इधर उधर घूमता फिरता हूं कि यह मुझे अच्छा लगता है ।’ महाराज इस स्पष्ट संभाषण से समझ गये कि यह संन्यासी केवल पुस्तक पण्डित ही नहीं है, संन्यासी के गुण - धर्म भी इसमें विद्यमान हैं । महाराज ने स्वामी जी से दूसरा प्रश्न किया, ‘देखिये स्वामी जी, मूर्तिपूजा में मेरा रत्ती भर भी विश्वास नहीं है । इसके लिए मुझे क्या दण्ड मिलेगा ?’
स्वामी जी ने उत्तर दिया, ‘अपने विश्वास के अनुसार उपासना करने पर परलोक में दण्ड क्यों मिलेगा, मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं है तो न सही ।’
वहां बैठे अन्य भक्तजन स्वामी जी के इस उत्तर से बड़े असमंजस में पड़े । वे सोचने लगे - स्वयं तो स्वामी जी मूर्ति पूजा करते हैं, भगवान की प्रतिमा को देखते ही भाव विभोर होकर अश्रुविमोचन करने लगते हैं, और उसे अनावश्यक भी बता रहे हैं । इतने में स्वामी जी की दृष्टि उस कक्ष में टंगे महाराज की एक फोटो पर पड़ी । स्वामी जी ने उस चित्र को उतरवाया और हाथ में लेकर दीवान साहब से पूछा, ‘क्या यह महाराज की ही फोटो है ?’ दीवान जी ने स्वीकृति सूचक सिर हिला दिया ।
स्वामी जी ने दीवान महोदय से कहा, ‘जरा इस चित्र पर थूक दीजिए ।’ दीवान जी अवाक् होकर स्वामी जी की ओर देखने लगे । स्वामी जी ने सभी उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए कहा, ‘आपमें से कोई इस पर थूक दीजिए । यह एकमात्र कागज का टूकड़ा ही तो है ।’ कोई कुछ नहीं बोला, किसी ने नहीं थूका । अंत में दीवान जी बोले, ‘स्वामी जी, आप क्या कह रहे हैं ! हम महाराज के चित्र पर कैसे थूक सकते हैं !’
‘महाराज का चित्र होने से इसमें महाराज का कौन सा गुण कर्म स्वभाव आ गया है । यह तो कागज का टुकड़ा भर है । इसमें प्राण तो नहीं हैं । फिर भी इस पर आप सबको थूकने में संकोच क्यों हो रहा है ?’ फिर हंसते हुए बोले, ‘मैं जानता हूं, आप इस पर थूक नहीं सकेंगे, क्योंकि आप लोग समझ रहे हैं कि इस पर थूकने से महाराज के प्रति ससम्मान प्रकट होगा । है न यहीं बात ?’ अब स्वामी जी ने महाराज को लक्ष्य करके कहा, ‘देखिये महाराज, एक दृष्टि से विचार करने पर यह कागज का टुकड़ा आप नहीं है पर दूसरी दृष्टि से विचार करने पर यह कागज का टुकड़ा आप नहीं हैं पर दूसरी दृष्टि से देखा जाएं तो इस कागज के टुकड़े पर आपका अस्तित्व है । यहीं कारण है कि सब लोग आपको तथा आपके चित्र को एक ही मान रहे हैं । ठीक इसी प्रकार पत्थर या धातु की बनी प्रतिमाएं भी भगवान की विशेष गुणवाचक मूर्तियां हैं । उनके दर्शन से ही भक्त के मन में भगवान की स्मृति जाग उठती है । भक्त मूर्ति के माध्यम से भगवान की ही उपासना करते हैं । धातु या पत्थर की पूजा नहीं करते । मैं अनेक मंदिरों तीर्थों में घूमा हूं, पर आज तक किसी को यह कहते नहीं सुना है कि ‘हे पत्थर, हे घातु, मैं तुम्हारी पूजा कर रहा हूं ।’ सभी एकमेव अद्वितीय परब्रह्म को अपने अपने भाव के अनुसार भजते हैं ।’
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