श्याम कुन्ज में मीरा और जयमल , दोनों भाई बहन एक दूसरे के कण्ठ लगे रूदन कर रहे है ।जयमल स्वयं को अतिशय असहाय मान रहे है जो बहन की कैसे भी सहायता करने में असमर्थ पा रहेे है ।
भोजराज श्याम कुन्ज के द्वार पर खड़े उन दोनों की बातें आश्चर्य से सुन रहे थे ।वे थोड़ा समीप आ ही सीधे मीरा को ही सम्बोधित करते हुए बोले ," देवी !" उनका स्वर सुनते ही दोंनो ही चौंक कर अलग हो गये ।एक अन्जान व्यक्ति की उपस्थिति से बेखबर मीरा ने मुँह फेर कर उघड़ा हुआ सिर ढक लिया ।पलक झपकते ही वह समझ गई कि यह अन्जान , तनिक दुख और गरिमा युक्त स्वर और किसी का नहीं , मेवाड़ के राजकुमार का है ।थोड़े संकोच के साथ उसने उनकी ओर पीठ फेर ली ।
" देवी ! आत्महत्या महापाप है ।और फिर बड़ो की आज्ञा का उल्लंघन भी इससे कम नहीं ।आपने जिस चित्तौड़ के राजकुवंर का नाम लिया , वह अभागा अथवा सौभाग्यशाली जन आपके सामने उपस्थित है ।मुझ भाग्यहीन के कारण ही आप जैसी भक्तिमती कुमारी को इतना परिताप सहना पड़ रहा है ।उचित तो यह है कि मैं ही देह छोड़ दूँ ताकि सारा कष्ट ही कट जाये , किन्तु क्या इससे आपकी समस्या सुलझ जायेगी ? मैं नहीं तो मेरा भाई - याँ फिर कोई ओर - राजपूतों में वरों की क्या कमी ? हम लोगों का अपने गुरूजनों पर बस नहीं चलता ।वे भी क्या करें ? क्या कभी किसी ने सुना है कि बेटी बाप के घर कुंवारी बैठी रह गई हो ? पीढ़ियों से जो होता आया है , उसी के लिए तो सब प्रयत्नशील है ।"
भोजराज ने अत्यंत विनम्रता से अपनी बात समझाते हुये कहा ," हे देवी ! कभी किसी के घर आप जैसी कन्याएँ उत्पन्न हुईँ है कि कोई अन्य मार्ग उनके लिए निर्धारित हुआ हो ? मुझे तो इस उलझन का एक ही हल समझ में आया है ।और वो यह कि मातापिता और परिवार के लोग जो करे , सो करने दीजिए और अपना विवाह आप ठाकुर जी के साथ कर लीजिए ।यदि ईश्वर ने मुझे निमित्त बनाया तो....... मैं वचन देता हूँ कि केवल दुनिया की दृष्टि में बींद बनूँगा आपके लिए नहीं ।जीवन में कभी भी आपकी इच्छा के विपरीत आपकी देह को स्पर्श भी नहीं करूँगा ।आराध्य मूर्ति की तरह ............ ।"
भोजराज का गला भर आया ।एक क्षण रूककर वे बोले ," आराध्य मूर्ति की भाँति आपकी सेवा ही मेरा कर्तव्य रहेगा ।आपके पति गिरधर गोपाल मेरे स्वामी और आप ......... आप.......... मेरी स्वामिनी ।"
भीष्म प्रतिज्ञा कर , भोजराज पल्ले से आँसू पौंछते हुये पलट करके मन्दिर की सीढ़ियाँ उतर गये ।एक हारे हुये जुआरी की भाँति पाँव घसीटते हुये वे पानी की नाली पर आकर बैठे ।दोनों हाथों से अंजलि भर भर करके मुँह पर पानी के छींटे मारने लगे ताकि आते हुये जयमल से अपने आँसु और उनकी वज़ह छुपा पायें ।पर मन ने तो आज नेत्रों की राह से आज बह जाने की ठान ही ली थी ।वे अपनी सारी शक्ति समेट उठे और चल पड़े ।
जयमल शीघ्रतापूर्वक उनके समीप पहुँचे ।उन्होंने देखा - आते समय तो भोजराज प्रसन्न थे, परन्तु अब तो उदासी मुख से झर रही है ।उसने सोचा -संभवतः जीजा के दुख से दुखी हुए है, तभी तो ऐसा वचन दिया ।कुछ भी हो , जीजा इनसे विवाह कर सुखी ही होंगी ।
और भोजराज ? वे चलते हुये जयमल से बीच से ही विदा ले मुड़ गये ताकि कहीं एकान्त पा अपने मन का अन्तर्दाह बाहर निकालें ।
क्रमशः .............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
भोजराज श्याम कुन्ज के द्वार पर खड़े उन दोनों की बातें आश्चर्य से सुन रहे थे ।वे थोड़ा समीप आ ही सीधे मीरा को ही सम्बोधित करते हुए बोले ," देवी !" उनका स्वर सुनते ही दोंनो ही चौंक कर अलग हो गये ।एक अन्जान व्यक्ति की उपस्थिति से बेखबर मीरा ने मुँह फेर कर उघड़ा हुआ सिर ढक लिया ।पलक झपकते ही वह समझ गई कि यह अन्जान , तनिक दुख और गरिमा युक्त स्वर और किसी का नहीं , मेवाड़ के राजकुमार का है ।थोड़े संकोच के साथ उसने उनकी ओर पीठ फेर ली ।
" देवी ! आत्महत्या महापाप है ।और फिर बड़ो की आज्ञा का उल्लंघन भी इससे कम नहीं ।आपने जिस चित्तौड़ के राजकुवंर का नाम लिया , वह अभागा अथवा सौभाग्यशाली जन आपके सामने उपस्थित है ।मुझ भाग्यहीन के कारण ही आप जैसी भक्तिमती कुमारी को इतना परिताप सहना पड़ रहा है ।उचित तो यह है कि मैं ही देह छोड़ दूँ ताकि सारा कष्ट ही कट जाये , किन्तु क्या इससे आपकी समस्या सुलझ जायेगी ? मैं नहीं तो मेरा भाई - याँ फिर कोई ओर - राजपूतों में वरों की क्या कमी ? हम लोगों का अपने गुरूजनों पर बस नहीं चलता ।वे भी क्या करें ? क्या कभी किसी ने सुना है कि बेटी बाप के घर कुंवारी बैठी रह गई हो ? पीढ़ियों से जो होता आया है , उसी के लिए तो सब प्रयत्नशील है ।"
भोजराज ने अत्यंत विनम्रता से अपनी बात समझाते हुये कहा ," हे देवी ! कभी किसी के घर आप जैसी कन्याएँ उत्पन्न हुईँ है कि कोई अन्य मार्ग उनके लिए निर्धारित हुआ हो ? मुझे तो इस उलझन का एक ही हल समझ में आया है ।और वो यह कि मातापिता और परिवार के लोग जो करे , सो करने दीजिए और अपना विवाह आप ठाकुर जी के साथ कर लीजिए ।यदि ईश्वर ने मुझे निमित्त बनाया तो....... मैं वचन देता हूँ कि केवल दुनिया की दृष्टि में बींद बनूँगा आपके लिए नहीं ।जीवन में कभी भी आपकी इच्छा के विपरीत आपकी देह को स्पर्श भी नहीं करूँगा ।आराध्य मूर्ति की तरह ............ ।"
भोजराज का गला भर आया ।एक क्षण रूककर वे बोले ," आराध्य मूर्ति की भाँति आपकी सेवा ही मेरा कर्तव्य रहेगा ।आपके पति गिरधर गोपाल मेरे स्वामी और आप ......... आप.......... मेरी स्वामिनी ।"
भीष्म प्रतिज्ञा कर , भोजराज पल्ले से आँसू पौंछते हुये पलट करके मन्दिर की सीढ़ियाँ उतर गये ।एक हारे हुये जुआरी की भाँति पाँव घसीटते हुये वे पानी की नाली पर आकर बैठे ।दोनों हाथों से अंजलि भर भर करके मुँह पर पानी के छींटे मारने लगे ताकि आते हुये जयमल से अपने आँसु और उनकी वज़ह छुपा पायें ।पर मन ने तो आज नेत्रों की राह से आज बह जाने की ठान ही ली थी ।वे अपनी सारी शक्ति समेट उठे और चल पड़े ।
जयमल शीघ्रतापूर्वक उनके समीप पहुँचे ।उन्होंने देखा - आते समय तो भोजराज प्रसन्न थे, परन्तु अब तो उदासी मुख से झर रही है ।उसने सोचा -संभवतः जीजा के दुख से दुखी हुए है, तभी तो ऐसा वचन दिया ।कुछ भी हो , जीजा इनसे विवाह कर सुखी ही होंगी ।
और भोजराज ? वे चलते हुये जयमल से बीच से ही विदा ले मुड़ गये ताकि कहीं एकान्त पा अपने मन का अन्तर्दाह बाहर निकालें ।
क्रमशः .............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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