Wednesday, 29 June 2016

निरधनको धन राम

एक राजा भगवान्‌के बड़े भक्त थे, वे गुप्त रीतिसे भगवान्‌का भजन करते थे । उनकी रानी भी बड़ी भक्त थी । बचपनसे ही वह भजनमें लगी हुई थी । इस राजाके यहाँ ब्याहकर आयी तो यहाँ भी ठाकुरजीका खूब उत्सव मनाती, ब्राह्मणोंकी सेवा, दीन-दुःखियोंकी सेवा करती; भजन-ध्यानमें, उत्सवमें लगी रहती । राजा साहब उसे मना नहीं करते । वह रानी कभी-कभी कहती कि ‘महाराज ! आप भी कभी-कभी राम-राम‒ऐसे भगवान्‌का नाम तो लिया करो ।’ वे हँस दिया करते । रानीके मनमें इस बातका बड़ा दुःख रहता कि क्या करें, और सब बड़ा अच्छा है । मेरेको सत्संग, भजन, ध्यान करते हुए मना नहीं करते; परन्तु राजा साहब स्वयं भजन नहीं करते ।
ऐसे होते-होते एक बार रानीने देखा कि राजासाहब गहरी नींदमें सोये हैं । करवट बदली तो नींदमें ही ‘राम’ नाम कह दिया । अब सुबह होते ही रानीने उत्सव मनाया । बहुत ब्राह्मणोंको निमन्त्रण दिया; बच्चोंको, कन्याओंको भोजन कराया, उत्सव मनाया । राजासाहबने पूछा‒‘आज उत्सव किसका मना रही हो ? आज तो ठाकुरजीका भी कोई दिन विशेष नहीं है ।’रानीने कहा‒‘आज हमारे बहुत ही खुशीकी बात है ।’ क्या खुशीकी बात है ? ‘महाराज ! बरसोंसे मेरे मनमें था कि आप भगवान्‌का नाम उच्चारण करें । रातमें आपके मुखसे नींदमें भगवान्‌का नाम निकला ।’ निकल गया ? ‘हाँ’ इतना कहते ही राजाके प्राण निकल गये । ‘अरे मैंने उमरभर जिसे छिपाकर रखा था, आज निकल गया तो अब क्या जीना ?’
गुप्त अकाम निरन्तर ध्यान सहित सानन्द ।
आदर जुत जपसे तुरत पावत परमानन्द ॥
ये छः बातें जिस जपमें होती हैं, उस जपका तुरन्त और विशेष माहात्म्य होता है । भगवान्‌का नाम गुप्त रीतिसे लिया जाय, वह बढ़िया है । लोग देखें ही नहीं, पता ही न लगे‒यह बढ़िया बात है परंतु कम-से-कम दिखावटीपन तो होना ही नहीं चाहिये । इससे असली नाम-जप नहीं होता । नामका निरादर होता है । नामके बदले मान-बड़ाई खरीदते हैं, आदर खरीदते हैं, लोगोंको अपनी तरफ खींचते हैं‒यह नाम महाराजकी बिक्री करना है । यह बिक्रीकी चीज थोड़े ही है ! नाम जैसा धन, बतानेके लिये है क्या ? लौकिक धन भी लोग नहीं बताते, खूब छिपाकर रखते हैं । यह तो भीतर रखनेका है, असली धन है ।
माई मेरे निरधनको धन राम ।
रामनाम मेरे हृदयमें राखूं ज्यूं लोभी राखे दाम ॥
दिन दिन सूरज सवायो उगे, घटत न एक छदाम ।
सूरदास के इतनी पूँजी, रतन मणि से नहीं काम।

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