वसुदेव जी ज्ञानी और गुणवान थे। देवकी कंस की चचेरी बहन थी। कंस देवकी से बहुत प्रेम करता था। अत: उसने वसुदेव जी के गुणों को विचार कर धूम-धाम से देवकी का विवाह उनके साथ कर दिया।
विवाह के बाद जव कंस वसुदेव- देवकी को विदा करने जा रहा था। तब आकाशवाणी हुई कि कंस! जिस देवकी को तू इतना प्रेम करता है इसी के अष्टम गर्भ से तेरी मृत्यु होगा। आकाशवाणी सुनकर कंस ने देवकी के बाल पकड़ लिए और मारने के लिए तैयार हो गया। तभी वसुदेव जी ने उसे समझाया कि देवकी ने तो तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा। हमारा जो भी पुत्र होगा मै उसे लाकर तुम्हे दे दूंगा। यह मेरा प्रण है।
लेकिन कंस ने वसुदेव-देवकी को कारागृह में बंदी वना लिया।
इसके उपरांत देवकी का प्रथम पुत्र हुआ जिसका नाम था कीर्तीमान।
उसे कंस को वसुदेव जी ने दिया। कंस ने कहा कि हे वसुदेव! मुझे तो आठवें पुत्र से डर है। यह तो पहला है। इसीलिए आप इसे ले जाएं। वसुदेव जी भी विचारने लगे कि कंस को कैसे दया आ गई। उसी समय देवर्षि नारद जी कंस के पास आकर कहने लगे कि हे कंस! आकाशवाणी ने आंठवा कहा था लेकिन देवता उल्टा भी गिनते है। यदि वे उल्टा गिनने लगे तो पहला ही आंठवा हो सकता है। अत: सावधान हो जाओ। शायद नारद जी ने सोचा होगा कि कंस यदि पुण्य करने लगा तो भगवान को आने में देरी होगी। इसलिए यदि यह पाप का घड़ा जल्दी भर जाए तो भगवान जल्दी आएंगे और इन दुष्टो से पृथ्वी का भार हरण करेंगे। कंस ने वसुदेव जी के पुत्रों को मारना शुरू कर दिया। वसुदेव जी ने एक एक करके देवकी के छ: पुत्रों को कंस को समर्पित कर दिया और कंस ने उन छ: पुत्रों की हत्या कर दी। ये छ: पुत्र ही छ: विकार है।
कहने का अर्थ यह है कि जब तक विकार नष्ट नहीं होता, तब तक विवेक जागृत नहीं होता। विवेक के बिना परमात्मा नहीं मिलता। इसलिए कंस ने पहले विकारों का नाश किया। विवेक ही बलराम है। बलराम रूप विवेक का अवतरण हो तब परमात्मा रूप कृष्ण मिलता है।
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