वस्य वणर्स्य देवी तु वेदमाताऽथ देवता ।।
आदित्यो बीजं ‘ओं’ एवं ऋषिव्यार्सोऽथयन्त्रकम् ॥
विद्या सन्ति च भूती द्वे स्मृतिविद्ये क्रमात्तथा ।।
अस्य प्रतिफलं दिव्यस्फुरणं ज्ञानमुत्तमम्॥
अर्थात – ‘व’ अक्षर की देवी- ‘वेदमाता’, देवता- ‘आदित्य’, बीज- ‘ओं’, ऋषि- ‘वेदव्यास’, यन्त्र- ‘विद्यायन्त्रम्’, विभूति- ‘स्मृति एवं विद्या’ तथा प्रतिफल- ‘दिव्य स्फुरणा व सद्ज्ञान’ है ।।
गायत्री को वेदमाता इसलिए कहा गया कि उसके २४ अक्षरों की व्याख्या के लिए चारों वेद बने ।। ब्रह्माजी को आकाशवाणी द्वारा गायत्री मन्त्र की ब्रह्म दीक्षा मिली ।। उन्हें अपना उद्देश्य पूरा करने के लिए सामर्थ्य, ज्ञान और विज्ञान की शक्ति और साधनों की आवश्यकता पड़ी ।।
इसके लिए अभीष्ट क्षमता प्राप्त करने के लिए उन्होंने गायत्री का तप किया ।। तप- बल से सृष्टि बनाई ।। सृष्टि के सम्पर्क, उपयोग एवं रहस्य से लाभान्वित होने की एक सुनियोजित विधि- व्यवस्था बनाई ।। उसका नाम वेद रखा ।।
वेद की संरचना की मनःस्थिति और परिस्थिति उत्पन्न करना गायत्री महाशक्ति के सहारे ही उपलब्ध हो सका ।। इसलिए उस आद्यशक्ति का नाम ‘वेदमाता’ रखा गया ।।
वेद सुविस्तृत हैं ।। उसे जन साधारण के लिए समझने योग्य बनाने के लिए और भी अधिक विस्तार की आवश्यकता पड़ी ।। पुराण- कथा के अनुसार ब्रह्मा जी ने चार मुखों से गायत्री के चार चरणों की व्याख्या करके चार वेद बनाये ।।
”ॐ भूभुर्वः” के शीर्ष भाग की व्याख्या से ‘ऋग्वेद’ बना ।। ‘तत्सवितुर्वेण्यम ‘ का रहस्योद्घाटन यजुर्वेद में है ।। ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ का तत्त्वज्ञान विमर्श ‘सामवेद में है ।’ ‘धियो योनः प्रचोदयात्’ की प्रेरणाओं और शक्तियों का रहस्य ‘अथर्ववेद ‘ में भरा पड़ा है ।।
विशालकाय वृक्ष की सारी सत्ता छोटे से बीज में सन्निहित रहती है ।। परिपूर्ण मनुष्य की समग्र सत्ता छोटे से शुक्राणु में समाविष्ट देखी जा सकती है ।। विशालकाय सौरमण्डल के समस्त तत्त्व और क्रिया कलाप परमाणु के नगण्य से घटक में भरे पड़े हैं ।।
ठीक इसी प्रकार संसार में फैले पड़े सुविस्तृत ज्ञान- विज्ञान का समस्त परिकर वेदों में विद्यमान है, और उन वेदों का सारतत्त्व गायत्री मन्त्र में सार रूप में भरा हुआ है ।। इस लिए गायत्री को ज्ञान- विज्ञान के अधिष्ठात्री वेद वाङ्मय की जन्मदात्री कहा जाता है ।। शास्त्रों में असंख्य स्थानों पर उसे ‘वेदमाता’ कहा गया है ।।
गायत्री मन्त्र का अवगाहन करने से वह ब्रह्मज्ञान साधक को सरलता पूर्वक उपलब्ध होता है, जिसको हृदयंगम कराने के लिए वेद की संरचना हुई है ।। गायत्री का माहात्म्य वर्णन करते हुए महर्षि याज्ञवल्क्य ने लिखा है- ‘गायत्री विद्या’ का आश्रय लेने वाला वेदज्ञान का फल प्राप्त करता है ।।
गायत्री के अन्तः करण में वे स्फुरणायें अनायास ही उठती हैं, जिनके लिए वेद विद्या का परायण किया जाता है ।।
वेद ज्ञान और विज्ञान दोनों के भण्डार हैं ।। ऋषिओं के प्रेरणाप्रद अर्थ भी हैं और उनके शब्द गुच्छकों में रहस्यमय शक्ति के अदृश्य भंडार भी ।। वेद में विज्ञान भी भरा पड़ा है ।।
स्वर- शास्त्र के अनुसार इन ऋचाओं का निर्धारित स्वर- विज्ञान के अनुसार पाठ, उच्चारण करने से साधक के अन्तराल का स्तर इतना ऊँचा उठ जाता है कि उस पर दिव्य प्रेरणा उतर सकें ।। उसके व्यक्तित्व में ऐसा ओजस् ,तेजस् एवं वर्चस् प्रकट होता है, जिसके सहारे महान् कार्य कर सकने योग्य शौर्य — साहस का परिचय दे सकें ।।
वातावरण में उपयुक्त प्रवाह, परिवर्तन संभव कर सकने के रहस्य वेद मन्त्रों में विद्यमान हैं ।। मन्त्रों के प्रचण्ड प्रवाह का वर्णन शास्त्रों में मिलता है ।। इस रहस्यमय प्रक्रिया को वेदमाता की परिधि में सम्मिलित समझा जाना चाहिए ।।
वेद ज्ञान, दूरदर्शी दिव्य दृष्टि को कहते हैं ।। इसे अपनाने वाले का मस्तिष्क निश्चित रूप से उज्ज्वल होता है ।। चार वेद, चार मंडल मात्र नहीं हैं ।। उस ज्ञान का विस्तार करने के कारण ब्रह्मा जी के चार मुख हुए ।। उनकी वैखरी, मध्यमा, परा, पश्यन्ति- चारों वाणी समस्त विश्व को दिशा देने में समर्थ हुई ।।
गायत्री का अवगाहन करने वाले चारों ऋषि- सनक, सनन्दन, सनातन, सनत् कुमार वेद भगवान् के प्रत्यक्ष अवतार कहलाये ।। चार वर्ण, चार आश्रम की परम्परा वेदों की आचार पद्धति है ।।
मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय जिसे पाकर मनुष्य कृतकृत्य बनता है, वह वेद ज्ञान है- कामधेनु के चार थन- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की चारों विभूतियों का पयपान करते हैं ।। साधन चतुष्टय में प्रवृत्ति वेदमाता की चतुर्विध दिव्य प्रेरणा ही समझी जा सकती है ।।
वेदमाता की साधना साधक को चार वेदों का आलंबन प्रदान करती और उसे सच्चे अर्थ में वेदवेत्ता, ब्रह्म ज्ञानी बनाती है, तत्त्वज्ञान, सद्ज्ञान, आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न करती है ।।
संक्षेप में वेदमाता के स्वरूप, वाहन आदि का विवेचन इस तरह से हैः-
वेदमाता के एक मुख, चार हाथों में चार वेद है ।। यह एक ब्राह्मी चेतना से निस्सृत ज्ञान की चार धाराओं का बोध कराता है ।। कमल आसन- सहस्रार कमल में भरी हुई अनन्त पंखुड़ियों- परत का प्रतीक है ।।
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